बुद्धि देवता गणेश, ऑनलाइन लर्निंग और ज्ञान की संपूर्णता

Mohit
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अजय बोकिल

मंगलमूर्ति गणेश बुद्धि के देवता तो हैं ही, ‘आॅन लाइन लर्निंग’ के भी आदि देवता माने जा सकते हैं, क्योंकि उन्होंने महर्षि वेद व्यास द्वारा रचित महाभारत का ‘नाॅन स्टाॅप’ लेखन किया था। यानी वेद व्यास कहते गए, गणेश उसे लिपिबद्ध करते गए ( कुछ लोग इसे डिक्टेशन भी मानते हैं)। मानव जीवन के यथार्थ का एक महाकाव्य रचा गया। हालांकि यह ‘आॅन लाइन’ उस प्रकार का नहीं था, जैसा कि आज कोरोना काल में बच्चे स्क्रीन पर अकेले ही जीवन का पाठ सीखने की कोशिश कर रहे हैं, वो आॅन लाइन जो अपने आप में ‘अनफिनिश्ड’ है। इससे कई सामाजिक, शैक्षणिक जटिलताएं जन्म ले रही हैं, जिनका उत्तर हमे आने वाली पीढि़यों को देना पड़ेगा। स्कूली बच्चों का यह ‘आॅन लाइन एजुकेशन’ वर्ग भेद को भी बढ़ा रहा है तो दूसरी तरफ बच्चों की सामाजिकता खत्म हो रही है। वो सामाजिकता, जो मनुष्य की बुनियादी दरकार है और जो मनुष्य को मनुष्यता में ढालती है।

महाभारत हिंदू धर्म का एक अप्रतिम महाकाव्य और पौराणिक आख्यान है, जो मनुष्य के सामाजिक रिश्तों, स्वार्थों, त्याग, लोभ, प्रेम, दुष्टता, उदात्तता, समर्पण, कर्तव्य भाव, राजनीति, विदुरनीति, षड्यंत्र, मनोविज्ञान आदि कई पहलुअों को अपने भीतर समेटे हुए है। महर्षि वेद व्यास इसके माध्यम से तत्कालीन समाज और प्रकारांतर से मनुष्य मात्र की नियति का आख्यान रचते हुए कर्तव्य करते जाने का महान संदेश देते हैं।

कोरोना महामारी ने भी कुछ ऐसे ही हालात पैदा किए हैं जिससे शिक्षक और शिष्य के बीच फिजिकल दूरी बहुत ज्यादा बढ़ गई है। ‘सोशल‍ डिस्टेंसिंग’ ने उस ऊर्जा को मानो डिलीट ही कर दिया है, जो गुरू से प्रत्यक्ष ज्ञान हासिल करने से होती रही है। आज भारत सहित दुनिया के अधिकांश देशों में आॅन लाइन एजुकेशन का जो हल्ला है, वह दरअसल ‘मरता क्या न करता’ का परिणाम ज्यादा है। क्योंकि ज्यादातर जगहों पर स्कूल बंद हैं। बच्चों और शिक्षकों का प्रत्यक्ष संवाद बंद है। डांट-फटकार तथा प्यार-पुचकार बंद है। जो कुछ है, वो एक पर्दे के माध्यम से है, जिसमें केवल तस्वीरें झांकती है। टीचर के डिक्टेशन सुनाई देते हैं। बच्चे भी उसी पर्दे के माध्यम से ज्ञान से ‘कनेक्ट’ होने की कोशिश करते हैं। वो सीख तो रहे हैं, लेकिन यह सीख मस्तिष्क के गोदाम में ज्ञान का माल भरने जैसी ज्यादा है।

यह ‘आॅन लाइन शिक्षा’ भी सबको सुलभ नहीं है। ठीक उसी तरह कि महाभारत में ‘एकलव्य’ को शूद्र होने की वजह से गुरू द्रोणाचार्य के इंकार के बाद ‘सेल्फ लर्निंग’ के आॅप्शन पर जाना पड़ा था। आज आॅन लाइन शिक्षा भी उन्हें ही मिल सकती है, ‍िजनके पास स्मार्ट फोन्स हैं, लैपटाॅप हैं। इंटरनेट कनेक्शन हैं, इंटरनेट का बिल भरने के पैसे हैं। और इंटरनेट चलाने के लिए बिजली का कनेक्शन है। ये आॅन लाइन क्लासेस भी ज्यादातर अच्छे और महंगे निजी स्कूलों में ही चल रही हैं। सरकारी स्कूलों में कितनी चल रही हैं, कहना मुश्किल है। उसमें भी ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति और बदतर है। अव्वल तो गांवों में बिजली ही कम आती है। बिजली है तो अबाधित इंटरनेट सेवा नहीं है। ये दोनो है तो गरीब बच्चों के पास वो ‍िडवाइस नहीं है, जिसके जरिए आॅन लाइन लर्नर बना जा सके।

इस बात की पुष्टि हाल में हुए एक सर्वे के निष्कर्ष से होती है। देश के 15 राज्यों में लगभग 1400 बच्चों के बीच कराए गए इस सर्वे में उजागर हुआ कि ग्रामीण क्षेत्रों के सिर्फ 8 फीसदी बच्चे नियमित आॅन लाइन पढ़ाई कर पा रहे हैं, जबकि 37 फ़ीसदी बच्चे बिल्कुल भी नहीं पढ़ पा रहे हैं। वे न केवल पढ़ने के अधिकार बल्कि स्कूल जाने से मिलने वाले दूसरे फ़ायदों जैसे कि सुरक्षित माहौल, बढ़िया पोषण और स्वस्थ सामाजिक जीवन से भी वंचित हो गए। क्योंकि इन सभी राज्यों में प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल पूरे 17 महीने से बंद हैं। ‘स्कूल चिल्ड्रेंस ऑनलाइन एंड ऑफलाइन लर्निंग (स्कूल)’ नामक यह रिपोर्ट कोऑर्डिनेशन टीम (निराली बाखला, अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़ और रीतिका खेड़ा तथा रिसर्चर विपुल पैकरा) ने तैयार की है।

रिपोर्ट के मुताबिक कोरोना के कारण स्कूल बंद होने से ये बच्चे गांव या बस्ती में समय काटने लगे। वे न केवल पढ़ने के अधिकार बल्कि स्कूल जाने से मिलने वाले दूसरे फायदों जैसे सुरक्षित माहौल, बढ़िया पोषण और स्वस्थ सामाजिक जीवन से भी वंचित हो गए।यह स्कूल सर्वे अगस्त 2021 में 15 राज्यों (असम, बिहार, चंडीगढ़, दिल्ली, गुजरात, हरियाणा, झारखंड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, पंजाब, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल) के 1400 बच्चों के बीच कराया गया। रिपोर्ट के अनुसार सर्वे में शामिल करीब आधे बच्चे कुछ ही शब्द पढ़ पाए। ज्यादातर अभिभावकों का मानना था कि लॉकडाउन के दौरान उनके बच्चों की पढ़ने-लिखने की क्षमता कम हो गई। सर्वे में शामिल करीब 60 फीसदी परिवार ग्रामीण इलाकों में रहते हैं और लगभग 60 फीसदी दलित या आदिवासी समुदायों के हैं।

सर्वे में यह खुलासा भी हुआ कि इन बच्चों तक आॅन लाइन शिक्षण सामग्री भी नहीं पहुंच रही है। कुछ ही बच्चों के अभिभावकों ने माना कि आॅन लाइन शिक्षा से उनके बच्चों को फायदा हुआ है। जबकि ज्यादातर बच्चों की लंबे समय से अपने शिक्षक से भेंट नहीं हुई थी। कुछेक बच्चों को वाॅट्स एप के जरिए यूट्यूब लिंक फॉरवर्ड करने जैसे सांकेतिक ऑनलाइन इंटरेक्शन जरूर बताए गए। इसके अलावा स्कूल बंद होने से मिड डे मील भी बंद हो गया। इसके बदले में कुछ जगह अनाज दिया गया।

सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि इन पौने दो सालों में ज्यादातर बच्चे पहले जो सीखे थे, वो भी भूलने लगे हैं। खासकर नर्सरी और प्राथमिक कक्षाअों के बच्चे, जिन्होंने जीवन के साथ औपचारिक शिक्षा का ककहरा सीखना अभी शुरू ही किया था। यह ऐसा ‘लर्निंग लाॅस’ है, जिसकी भरपाई किस तरह से हो पाएगी, कहना मुश्किल है। कई जगह तो प्री-स्कूल के बच्चों को भी खानापूर्ति के लिए आॅन लाइन शिक्षा दी जा रही है, खेलते-खेलते सीखने की उम्र वाले ये बच्चे समझ नहीं पाते कि घंटों आॅन लाइन स्क्रीन पर आंखे गड़ाए रखने की सजा उन्हें किस ‘जुर्म’ में दी जा रही है। कई बच्चे तो अब पाठशाला का संस्कार और अनुशासन भी भूल चुके हैं। स्कूल खुले भी तो वहां जाने से ज्यादा उन्हें अपने मोबाइल में डूबे रहने में रूचि रह गई है। ऐसे बच्चों को मुख्य धारा में लौटाना बड़ी चुनौती है। ‍समाज के लिए, शिक्षकों के लिए और अभिभावकों के लिए भी।

इधर कोरोना की दूसरी लहर खत्म भी नहीं हुई है कि तीसरी लहर फिर दस्तक देने लगी है। मप्र जैसे कुछ राज्यों में सरकार ने सेकंडरी स्कूल खोलकर विद्यार्थियों को फिर शिक्षा के पुराने माहौल और अनुशासन में लौटाने की पहल की है, लेकिन यदि कोरोना वायरस फिर कहर बरपाने लगेगा तो स्कूल ही सबसे पहले बंद करने पड़ेंगे। यानी औपचारिक शिक्षा का यह ‘गैप’ और बढ़ता जाएगा। इससे भी बड़ा खतरा कोरोना काल के इन नौनिहालों का समाज से दूर होते जाना है। हम देख रहे हैं ‍िक मोबाइल गेम की लत के कारण बच्चों के खुदकुशी के मामले इन दिनो काफी बढ़ गए हैं। इन बच्चों की जिंदगी इसी में बर्बाद हो रही है। कई मां बाप ने अपना पेट काटकर बच्चों को आॅन लाइन पढ़ाई के लिए मोबाइल लाकर दिए, जिसका दुरूपयोग बच्चे गेम खेलने या पोर्न देखने में कर रहे हैं। अपढ़ मां बाप को इसका पता ही नहीं है। रोकने पर बच्चे आत्महत्या कर रहे हैं।

नेट के रूप में संचार क्रांति ज्ञान के क्षितिज को अनंत विस्तार देने और ज्ञान की जिज्ञासा का यथा शक्य शमन करने के उद्देश्य से हुई थी। लेकिन व्यवहार में उसका दुरूपयोग ही ज्यादा होता दीख रहा है। कोरोना की वजह से एहतियात के तौर पर बरती जा रही इस ‘अ-सामाजिकता’ ने बच्चों के एकाकीपन को नितांत आत्मकेन्द्रित तथा जहरीला बना दिया है। बड़े होकर ये बच्चे कैसा सामाजिक व्यवहार करेंगे, रिश्तों-नातों का उनके लिए क्या अर्थ होगा? आॅन लाइन सबक सीखे ये बच्चे ‘आॅफ लाइन बिहेव’ किस तरह करेंगे, जीवन की जटिलताअोंको कैसे समझेंगे, जिदंगी की सच्चाइयों से कैसे रूबरू होंगे, जीवन की परिभाषा उनके लिए क्या होगी, जैसे कई सवाल अनुत्तरित हैं। यूनेस्को का अनुमान है कि पूरी दुनिया में 1 अरब 60 करोड़ बच्चे अब शायद ही फिजीकल क्लासरूम में बैठकर पढ़ सकेंगे। इसका सबसे बड़ा कारण महामारी के संक्रमण का डर होगा। लिहाजा वर्चुअल क्लास अब एक अनचाही सच्चाई है। और इसके सामाजिक नतीजे हमे भुगतने ही होंगे। स्टूडेंट टीचर के रिश्तों को भी नए मापदंडों पर परखना होगा। बाल मनोविज्ञान को बदले संदर्भों में देखना होगा।

हमारी धार्मिक आस्थाअो में गणेश के साथ सरस्वती का वास भी शामिल है। गणेश बुद्धिदाता हैं तो सरस्वती ज्ञानदायिनी है। बुद्धि से ज्ञान होता है और ज्ञान से ही जीवन में रंग भरे जाते हैं। भगवान गणेश ने जब महाभारत को लिखने की जिम्मेदारी स्वीकारी होगी, तो उसके पीछे कारण संभवत: इस महाख्यान का जीवन से भरपूर होना ही रहा होगा। कहते हैं कि महाभारत का लेखन तीन वर्ष में पूरा हुआ। ये वेद व्यास और गणेशजी के बीच गहरी ‘ट्यूनिंग’ और ‘अंडरस्टैंडिग’ का सुपरिणाम था। महाभारत अपने आप में संपूर्ण ज्ञान है। यानी धर्मशास्त्र से लेकर कामशास्त्र तक। बुद्धि का आग्रह और ज्ञान की तृष्णा भी यही है। लेकिन क्या ‘आॅन लाइन एजुकेशन’ उन हदों को छू पाएगा?