शिक्षा-नीति को चौराहे की कुतिया बनाने वालों से

Mohit
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jayram shukla

साँच कहै ता/जयराम शुक्ल

तीज त्योहारों की तरह हर साल शिक्षक दिवस भी आता है। पूजाआराधना में जैसे गोबर की पिंडी को गणेश मानकर पूज लिया जाता है वैसे ही एक दिन के लिए सभी गोबर गणेश बन जाते हैं। यह एक अनिवार्य कर्मकाण्ड है जो हर साल यह अहसास दिलाता है कि अपने यहां शिक्षक भी पूजे जाते हैं।

कर्म जहां जड़ हो जाता है वहीं से कांड शुरू होता है। अपने यहाँ कर्म और कांड का रेशियो ट्वंटी एट्टी का होता है। ट्वंटी परसेंट कर्म एट्टी परसेंट कांड। इसी औसत में हमारे शिक्षा संस्थानों में पढाई होती है।

गणेश विसर्जन के दूसरे दिन से पितृपक्ष शुरू होता है। यह भी कर्मकाण्ड ही है। मातापिता की सेवा ट्वंटी परसेंट शेष उनका कांड। बेटा विलायत में था डेढ साल पहले माँ से बात करके अपने दायित्व का कोटा पूरा कर लिया था। लौटा तो यहां घर में कांड हो चुका था। माँ की हड्डी की ठटरी मिली। अब वो पितर बन चुकी है। बेटा गया जाकर माँ की आत्मा का तर्पण कर आया इति श्री कर्मकाण्डम्। सच्चे सपूतों यही गुणधर्म है।

देश में शिक्षा भी कर्मकान्डी है। यहां कर्म कम कांड ज्यादा होते हैं। जेएनयू का कन्हैया कांड, हैदराबाद का बेमुला कांड। फिर ऐसे ही कई कई लोकल कांड। न पढाई की फुर्सत, न पढाने का वक्त।

रागदरबारी वाले श्रीलाल शुक्ल कह गए.. भारत की शिक्षानीति.. चौराहे पर खड़ी ऐसी कुतिया है कि हर राहगीर लतिया के निकल जाता है..। आजादी के बाद से उस बेचारी कुतिया को मुकाम नहीं मिला। वो,आए तो बोले ऐसा भोंको..वह ऐसा भोंकने का अभ्यास कर ही रही थी कि ये,आ गए। इन्होंने कहा भोकने में कुछ लय सुर मिलाओ तब चलेगा..कुतिया बेचारी भौचक खड़ी है वहीं उसी चौराहे में राहगीरों से लात खाते हुए।

सवा अरब की आबादी। एक लाख से ज्यादा शैक्षणिक संस्थान। दुनिया के श्रेष्ठ दो सौ संस्थानों में एक भी नहीं। हम चल पड़े हैं विश्वगुरु बनने। हालत ढाँक के तीन पात। सगोत्रीय शिक्षाविदों की तलाश में पढाई ठप्प।

लड़कों को पढाई चाहिए भी कहाँ। डिग्रियां मिल रही हैंं। इंन्जीनियर बने दुबई में कारपेंटरी कर रहे। माँ बाप खुश कि बेटा बडे़ पैकेज में है। एमबीए किया इटली पहुंचे पिज्जा बेचने लगे। नब्बे फीसद शिक्षा संस्थानों के यही हाल हैं। शेष दस प्रतिशत में आधों का ब्रेन ड्रेन होकर समुंदर पार हो गया। जो बचे उन्हें नेताओं ने अपने पीछे लगा लिया। अँधेर नगरी चौपट्ट राजा, टकेसेेर भाजी टकेसेर खाजा।

शिक्षक दिवस समारोह के मुख्य अतिथि बने चौरासी वर्षीय पंडिज्जी बिना थके, बिना रुके धकापेल बोले जा रहे थे। मंच पर बैठे नेताजी अध्यक्षता कर रहे थे। चैनलिया बसहबाजों की भाँति उठकर बीच में बोल पड़े –पंडिज्जी देश में सब बुरई बुरा नहीं हो रहा। अच्छा भी हो रहा है। हम तरक्की कर रहे हैं। आगे बढ रहे हैं। ग्रोथ की रफ्तार देखिए। दूसरी आँख भी खोलिए।

आज पंडिज्जी का दिन था, वे फिर बमके.. ..कैसी ग्रोथ? भ्रष्टाचार में एशियाई लायन, भूख के सूचकांक में अफ्रीकियों से अंगुल भर ऊपर,आर्थिक विषमता ऐसी कि पांच फीसद लोगों के पास देश की नब्बे फीसद दौलत,महिला दमन के मामले में अरब मुल्क लजा जाएं। बड़े चले आए दुनिया की महाशक्ति बनने.. दादा के माथे नौ नौ मेहर…। एक तमंचा तक तो आयात करते हो। पूरी दौलत लुटाए दे रहे हो हथियार खरीदने में कहते हो हम बड़ी ताकत हैं।

पंडिज्जी भारत छोडो आंदोलन के संग्रामी थे। आजादी के बाद अध्यापक हो गए.। शिक्षक दिवस के दिन वरिष्ठ शिक्षाविद के नाते उनका नाम तय किया गया था। पंडिज्जी के सिर पर गाँधी टोपी मध्यकाल के नेताओं को भी मात कर रही थी।

पंडिज्जी उपसंहार करते हुए मुद्दे पर आए..देश में सामाजिक विषमता का अध्ययन करना है तो शिक्षकों की स्थिति पर करिए। दो हजार पाने वाला भी शिक्षक, दो लाख पाने वाला भी। जो कम पाए वो हाड़तोड़ पढाए,जो ज्यादा पाए मटरगस्ती करे। अरे जो शिक्षा की बुनियाद रख रहे हैं उन्हें कमसे कम मजूरों के बराबर मजूरी तो दो। एक ने सफाई कर्मियों की तरह शिक्षाकर्मी बना दिया,दूसरे ने तरक्की देकर गुरुजी बना दिया, पहले तदर्थं शिक्षक थे अब वही अतिथि विद्वान हो गए।

ग्रोथ, सिर्फ़ लफ्फाजी की ग्रोथ। शिक्षकों की यह फ्रस्टेट पीढी से गढ़कर कैसी पौध निकलेगी और निकल रही है सब सामने है। सो मैं इसलिए कह रहा हूँ कि ये कर्मकाण्ड बंद करिए और फिर जो मरजी हो करिए। हमने अपना जमाना जिया तुम लोग जियो या मरो अपना क्या..?

पडिज्जी ने यह सवाल छोड़ते हुए जयहिंद कर लिया। नेता जी ने पंडिज्जी के भाषण को ऐतिहासिक बताते हुए कहा सहिष्णुता ऐसी ही हो कि कोई कटु से कटु कहे तो कान में कड़वे तेल की तरह डालों फिर खूंट समेत नकाल दो। स्कूल के बच्चों ने लयबद्धता के साथ तलियाँ पीटीं।

प्राचार्य महोदया ने शाल श्रीफल, पत्रम् पुष्पम् के साथ पंडिज्जी का सम्मान किया। फिर आभार मानते हुए बोलीं–बाय-द-वे आपका स्पीच वंडरफुल रहा। पंडिज्जी अपने वंडरफुल स्पीच से मुदित थे। दिहाड़ी वाले गुरूजी और अतिथि विद्वान नाश्ते के दोने लगाने में मस्त थे। संचालक ने घोषणा की कि आज का यह समारोह यहीं समाप्त हुआ। अगले वर्ष इसी दिन फिर मिलेंगे। पंडिज्जी नेताजी की सफारी में बैठकर बच्चों को टाटा बायबाय करते हुए चले गए।