दिलीप गुप्ते की कलम से
सावन लगे दस दिन हो गए लेकिन कई हिस्सों में बादल न तो आसमान में घुमड़ रहे हैं और न ही ज़मीन भिगो रहे हैं. ऐसे में आसमान ताकता किसान दुखी हो कर गा रहा है,”अल्ला मेघ दे. पानी दे रे तू”. यह लोकगीत तत्कालीन पूर्वी बंगाल के भटियाली गायक अब्बासुद्दीन अहमद ने सन 1940 के दशक में गाया था. लिखा था अज़ीमुद्दीन अहमद ने. शायद बंगाल के अकाल का दर्द बताने. तब यह गीत बहुत लोकप्रिय हुआ था.
पूर्वी बंगाल में मेघ को ‘म्ऐघ’ गाया जाता है. इस गीत की धुन हिंदी फ़िल्मों मे ली गई है. संगीतकार हेमंत कुमार ने फिल्म ‘नागिन’ के गीत “छोड़ दे सजनिया छोड़ दे पतंग मेरी छोड़ दे” यह घुन ली. इस फिल्म के लिये उन्हें पुरस्कार मिला था. लेकिन इसे जन जन तक पहुँचाया सचिन देव बर्मन ने, फिल्म ‘गाइड’ के ज़रिये . कविराज शैलेंद्र ने अल्ला के साथ रामा और श्यामा जोड़ कर भारतीयता की मिसाल पेश की. तब भारत में सूखा पड़ा था, इसलिये सह गीत प्रासंगिक हो गया. बाद में बप्पी लाहिड़ी ने इसे मॉडर्न बना कर फिल्म ‘शराबी’ के गीत “दे दे प्यार दे” में लिया. ‘पलकों की छांव में’ फिल्म में सिर्फ मुखड़ा ही लिया गया, शेष काम गुलज़ार ने किया.
इस धुन का जादू पाकिस्तान जा पहुँचा . फिल्म ‘रामचंद पाकिस्तानी’ में भी इसका मुखड़ा ही लिया गया. इसे शुभा मुद्गल और शफाकत अमानत ने गाया. फिर तो “अल्ला मेघ दे” स्टेज पर भी गाया जाने लगा. शान और शान की आवाज़ में भी यह गीत ूआया. रू ना लैला ने भी यह गीत गाया. गीत में किसान गाता है, “आसमान होइलो टूटा फूटा, जोमिन होलो फाटा फाटा”. इसे बंगाली लोकधर्म भटियाली माना जाता रहा. पर भटियाली नाविकों का गीत है. जो भी हो, यह गीत भारतीय उपमहाद्वीप का लोकप्रिय गीत बन गया.