लेखक – जयराम शुक्ल
कुछ साल पहले भोपाल में जब विश्व हिंदी सम्मेलन आयोजित किया गया था तब ऐसा लगा था कि सरकार के साथ ही हम प्रदेशवासी सोते जागते इसी की माला जपेंगे। पूरा शहर हिंदीमय था, मुख्यमंत्री स्वयं बाजार निकल पड़े थे दूकानों के साइनबोर्डस को हिंदी में बदलने।
टीटीनगर, न्यूमार्केट समेत अँग्रेजी वाले सभी ठौर ठिकानों पर हिंदी का ठप्पा ठोकने का अभियान शुरू हुआ था। लेकिन हिंदी का भूत बल्लभभवन के पंचम तल पर पहुँचते ही उतर गया। फिर वही ढ़ाक के पात।
तो चलिए पहले हम यह सामान्य जानकारी जान लेते हैं कि हम हिन्दी दिवस क्यों मनाते हैं। 14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने यह निर्णय लिया कि हिन्दी भी केन्द्र सरकार की आधिकारिक भाषा होगी। वर्ष 1953 से पूरे भारत में 14 सितम्बर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाता है।
संसद और संसद के बाहर काका कालेलकर, हजारीप्रसाद द्विवेदी, सेठ गोविन्द दास आदि साहित्यकारों को साथ लेकर जबलपुर के व्यौहार राजेन्द्र सिंह के नेतृत्व में एक प्रभावशाली अभियान चला।
इससे पूर्व वर्ष 1918 में गांधी जी ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन में हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने को कहा था। इसे गांधी जी ने जनमानस की भाषा भी कहा था।
स्वतंत्र भारत की राष्ट्रभाषा के प्रश्न पर 14 सितम्बर 1949 को काफी विचार-विमर्श के बाद यह निर्णय लिया गया जो भारतीय संविधान के भाग 17 के अध्याय की अनुच्छेद 343(1) में इस प्रकार वर्णित है।
“संघ की राष्ट्रभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अन्तरराष्ट्रीय रूप होगा”
जब राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को चुना गया और लागू किया गया तो अ-हिन्दी भाषी राज्य के लोग इसका विरोध करने लगे और अंग्रेजी को भी राजभाषा का दर्जा देना पड़ा।
1977 में अटल बिहारी बाजपेई ने भारत की तरफ से संयुक्त राष्ट्र सभा में हिंदी भाषा के माध्यम से संबोधन किया था। यह तो रही हिंदी के संवैधानिक और राजकीय मामलों में लिखापढ़ी की मोटी-मोटी बात।
अब आइए यथार्थ पर। सरकार हिन्दी को लेकर कितनी निष्ठावान हैंं यह जानना है तो जाके भोपाल का ‘अटलबिहारी हिंदी विश्वविद्यालय’ की दशा देख आइए।
सही पूछा जाए तो अहिंदी क्षेत्रवासियों ने ही हिन्दी का बाना उठाया। बालगंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, सुभाषचंद्र बोस, रवींद्रनाथ टैगोर, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, सुब्रह्मण्यम भारती जैसे मनीषी थे जिन्होंने हिन्दी की प्राण प्रतिष्ठा में मदद की।
ये सभी यह मानते थे कि हिन्दी ही देश को एक सूत्र में बाँध सकती थी। क्योंकि यह संघर्ष भी भाषा है,यह आंदोलन की जुबान है। महात्मा गांधी खुद स्वीकार करते थे कि उनकी हिन्दी कमजोर है फिर भी यह भाषा राष्ट्र की आन, बान, शान है।
संविधान में हिन्दी को जब राजभाषा स्वीकार किया गया तो ये बात कही गई कि निकट भविष्य में देश अँग्रेजी की केंचुल उतार फेकेगा लेकिन यह एक झांसेबाजी थी।
भारतीय प्रशासनिक एवं समकक्षीय सेवाएं जिनसे देसी लाटसाहब तैयार होते हैं,वहां हिन्दी के संस्कार नहीं दिए गए। ये देश के नए राजे महाराजे हैं और हर बाप अपने बेटों का भविष्य इन्हीं की छवि में देखता है।
इसलिए सरकारी स्कूलों के समानांतर पब्लिक स्कूलों का कारोबार आजादी के बाद न सिर्फ जारी रहा वरन दिनदूना रात चौगुना बढता रहा। साठ के दशक तक आते आते यह धारणा पुख्ता हो गई कि अँग्रेजी अफसर पैदा करती.है और हिन्दी चपरासी।
इन्हीं दिनों जब डाक्टर राममनोहर लोहिया ने हिन्दी का आंदोलन चलाया तो मध्य व पिछड़ा वर्ग इसलिए जुडा़ कि उनके बच्चों के लिए भी भविष्य का रास्ता हिंदी से भी साफ होगा। समाजवादी नेताओं ने इसका फायदा उठाया। कई राज्यों की सरकारें बदलीं।
इधर डा.लोहिया सत्तर का दशक नहीं देख पाए उधर इनके चेलों ने लोहिया के संकल्पों को विसर्जित करना शुरू कर दिया। चरण सिंह और मुलायम सिंह लोहिया टोपी लगाकर बात तो हिन्दी की बढाने की करते थे पर बेटों को विलायत पढने के लिए भेजते रहे।
हिन्दी सरकारी और राजनीतिक दोनों के दोगलेपन का शिकार हो गई और आज भी जारी है। लाटसाहबियत में अँग्रजी अभी भी है कल भी रहेगी नेता कुछ भी बोलें उसे फर्जी समझिए।
हिन्दी अब तक न्याय की भी भाषा नहीं बन पाई। उच्चन्यायालयों में नख से शिख तक अँग्रजी है। मुव्वकिलों को हिन्दी की एक एक चिंदी का अँग्रजी रूपांतरण करवाना होता है और उसके लिए भी रकम खर्चनी पड़ती है। यहां अँग्रजी शोषण की भाषा है।
कल्पना करिए यदि उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में हिन्दी व देश की अन्य भाषाओं को उनके क्षेत्र हिसाब से चलन में आ जाए तो अँग्रजी का एकाधिकार टूटने में पलभर भी नहीं लगेगा। मंहगे वकीलों की फीस जमीन पर आ जाएगी और न्याय भी सहज और सस्ता हो जाएगा।
हिन्दी और देशी भाषाओं की लडा़ई लड़ने वाले श्यामरुद्र पाठक की सुधि लेने वाली न भाजपा है न स्वदेशी आंदोलन वाले।
सन् 2011 में यूपीए सरकार के खिलाफ लंबी लडा़ई लड़ी। सालोंसाल धरने में बैठे रहे। एक दिन सरकार ने पकड़कर तिहाड़ भेज दिया तब से पता नहीं कि वे कहां हैं।
श्यामरुद पाठक कोई मामूली आदमी नहीं हैं। उच्च शिक्षित, व हिंदी माध्यम से विग्यान विषय में पीएचडी करने वाले, हिंदी माध्यम से आईएएस की परीक्षा पास करने वाले।
हर मुद्दे पर गत्ते की तलवार भांजने वाले चैनलिया एंकरों को भी इधर देखने की फुरसत नहीं।
मोदीजी भले ही हिन्दी की बात करें पर वे ऊँची अदालतों और लाटसाहबी की भाषा हिन्दी को बना पाएंगें मुश्किल है। इसकी साफ वजह है। पिछली सरकारों से लेकर अब की सरकार में भी बडे़ वकील ही प्रभावशाली मंत्री हैंं। ये जब कुछ नहीं रहते तब वकील होते हैंं।
जब अँग्रजी ही इनकी विशिष्टता है त़ो भला ये क्यों राय देंगे कि हिन्दी और देशी भाषाओं को न्याय की भाषा बनाई जाए।
सरकार के नीति निर्देशक प्रारूप यही अँग्रेजीदा लाटसाहब लोग बनाते हैंं तो ये अपनी ही पीढी के पाँव में कुल्हाड़ी क्यों मारेंगे। सो यह मानकर चलिए कि ये सरकारोँ में आने जाने वाले लोग बातें तो हिन्दी की बहुत करेंगे, कसमें खाएंगे और संकल्प भी लेंगे पर हिन्दी की बरकत के लिए करेंगे कुछ भी नहीं।
हिन्दी को हिन्दी के मूर्धन्य भी नहीं पालपोस रहे हैं। उनकी रचनाओं, कृतियों को पढता कौन है..जो पीएचडी कर रहे होते हैं वे, या वे जिन्होंने समालोचकों का हुक्का भरा व उसके प्रतिद्वंदी को गरियाया वो, फिर कमराबंद संगोष्ठियों में अपनी अपनी सुनाने की प्रत्याशा में बैठे साहित्य के कुछ लोभार्थी और लाभार्थी।
यदि ये माने कि हिन्दी इनके माथे बची है या आगे बढ़ रही है तो मुगालते में हैं। हिन्दी में कोई बेहतरीन बिक्री वाली पुस्तक क्यों नहीं निकलती…?
प्रेमचंद, निराला, दिनकर और इनके समकलीन ही पुस्तक की दूकानों में अभी भी चल खप रहे हैं।
दरअसल जो लोकरूचि का लेखक है उसे ये महंत और उनके पंडे साहित्यकार मानते ही नहीं। बाहर गाँडफादर, और लोलिता जैसे उपन्यासों को साहित्यिक कृति का दर्जा है। यहां ऐसी कृतियों को लुगदी साहित्य करार कर पल भर में खारिज कर दिया जाता है।
हिन्दी के कृतिकार अपने ख़ोल में घुसे हैं, यही इनकी दुनिया है। हिन्दी को बाजार पालपोस रहा है।
यह उत्पादक और उपभोक्ता की भाषा है। बाजार के आकार के साथ साथ हिन्दी का भी आकार बढ़ रहा है। फिल्में हिन्दी को सात समंदर पार ले जा रही हैं। जिस काम की अपेक्षा साहित्यकारों से है वह काम अपढ-जाहिल फिल्मकार कर रहे हैं।
हिन्दी की गति उसकी नियति से तय हो रही है। जैसे फैले फैलने दीजिए। अपन तो यही मानते हैं कि जैसे घूरे के दिन भी कभी न कभी फिरते हैं, वैसे ही हिन्दी के भी फिरेंगे।