हिंदी पत्रकारिता का संकट, संपादकों की बदलती भूमिका को हमें स्वीकार करना चाहिए

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अर्जुन राठौर

अब समय आ गया है कि हमें आज के संपादकों की बदलती हुई भूमिका को स्वीकार कर लेना चाहिए संपादकों को कोसने और गाली देने से कुछ भी नहीं होने वाला। अब वे दिन चले गए जब राजेंद्र माथुर, रघुवीर सहाय, प्रभाष जोशी, विद्यानिवास मिश्र जैसे आदर्शवादी संपादक हुआ करते थे उनका अपना एक वैचारिक धरातल था और वे अपनी एक अलग ही सोच रखते थे इन संपादकों के विचार पढ़कर पाठक ना केवल अपनी दिशाएं तय करते थे बल्कि राजनेता और समाज के अन्य बुद्धिजीवी भी उनसे प्रेरणा लेते थे ।

लेकिन अब समय बदल गया अब संपादकों की भूमिका वैचारिक नहीं है उन्हें अब पचास तरह के दबावों के बीच काम करना है बड़े मीडिया घरानों से लेकर छोटे अखबारों तक सभी में आर्थिक संसाधन जुटाने का संकट सबसे बड़ा रहता है और आर्थिक संसाधन या तो कारपोरेट के पास है या फिर सरकार के पास और संपादकों से मालिक की यही अपेक्षा रहती है कि वे सरकारों तथा कारपोरेट से अपने संबंध अच्छे बनाएं वे एक तरह से पी आर की भूमिका निभाए वे सफल संपादक तभी हो सकते हैं और अपनी नौकरी भी तभी टिका सकते हैं,

जब वे राजनेताओं और बड़े कारपोरेट घरानों से अपना तालमेल अच्छा रखें बड़े कारपोरेट घरानों और राजनेताओं से उनके अच्छे संबंध आर्थिक संसाधन जुटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं यही वजह है कि अब संपादक कम पीआर मैनेजर वाली भूमिका में संपादक आ गए हैं, अब उनसे यह अपेक्षा करना व्यर्थ है कि वे राजेंद्र माथुर की तरह अलग कमरे में बैठकर देश और समाज के बारे में सोचें उसकी चिंता करें और उस पर वैचारिक लेखन करें अखबार की अर्थनीति से उनका कोई लेना-देना नहीं रहे वे तो सिर्फ अपने वैचारिक सोच के माध्यम से ही पाठकों को प्रभावित करें अब निश्चित रूप से ऐसे संपादकों की किसी को भी जरूरत नहीं है ।