“रोना एक कला है। इसके लिए गला भर काफी नहीं,गति-लय, आरोह-अवरोह भी चाहिए होता है। ज्यादातर मामलों में लोगों को मजबूरी में रोना पड़ता है। दिल हंसता है, मुंह से रुदन के स्वर और आंखों से आंसू।”
साँच कहै ता/जयराम शुक्ल
अलसुबह भैय्याजी को रोने की सामूहिक आवाजों ने नींद से जगा दिया। वे घर के बाहर निकले तो सड़क पर पानी छिछला था। कान सामूहिक विलाप के समवेत स्वरों की ओर थे और आंखें छिछले पानी में कुछ खोज रहीं थीं। अचानक उनकी छठी इन्द्रिय ने सूचना दी कि भैय्याजी ये पानी नहीं है, आपकी प्रिय क्षेत्रीय जनता के आंखों का आंसू है जो यहां तक बहकर पहुंच गया।
भैय्याजी की आत्मा में बैठा भावुक समाजसेवी यकायक जाग उठा। उन्होंने कुर्ता-पाजामा पहना, ड्रायवर को गाड़ी लगाने के लिए आवाज दी। पत्नी ने पूछा- सुबह-सुबह कहां चल दिए। भैय्याजी ने बताया, पड़ोस के गांव रोने के लिए जाना है। आगे चुनाव हैं सो रोनेवालों के साथ रोना तो पड़ेगा ही।
किसी कुशल प्रबंधक की तरह पत्नी ने भैय्याजी के कलफदार कुर्ते को एक दो जगह ब्लेड से चीरा और पाजामें में कीचड़ मल दिया। भैय्याजी पत्नी की अकल के मुरीद थे आखिर वे सजधज के रोने जाते तो लोग क्या कहते?
रोना भी एक कला है। इसके लिए गला भर नहीं गति-लय, आरोह और अवरोह भी चाहिए होता है। गांवों में महिलाएं रोने के अन्दाज के लिए जानी जाती है। बेटी किसी की बिदा हो रही हो, स्वर जानकर दूर से पूरा गांव जान जाता कि फलाने की बहू रो रही है।
ज्यादातर मामलों में लोगों को मजबूरी में रोना होता है। दिल हंसता है, मुंह से रुदन के स्वर निकलते हैं और आंखों से आंसू। जो ऐसे गमगीन मसले पर रोने के लिए अभ्यस्त नहीं है वे फिल्मों से प्रेरणा प्राप्तकर पिपरमेंट का प्रयोग करते हैं। मुंह से कैसी भी आवाज निकले आंखों से टप्प-टप्प आंसू गिरे, लोग इसे रोना ही मानेंगे।
भैय्याजी के जेब में पिपरमेंट की डिबिया थी। गांव के सीवान तक पहुंचे ही रोने की आवाजें तेज व साफ सुनाई दे रही थीं। उन्होंने देखा एक घर के चौगान पर गांव के लोग स्त्री-पुरुष-बच्चे जमा थे। ज्यादा देर से रोने वाले सुबक रहे थे, कुछेक के मुंह से विलाप के मद्धिमसुर निकल रहे थे, जो हाल में आए थे वे तेज-तेज रो रहे थे। भैय्याजी नवागंतुक थे, लिहाजा पिपरमेंट लगी रूमाल आंखों में रखकर जोर-जोर से रोने लगे।
भैय्याजी को रोते देख सब चुप हो गए और कौतुकी नजरों से देखने लगे। दरअसल भैय्याजी इलाके के सबसे ज्यादा रसूखवाले आदमी थे। दो बार एमएलए रह चुके थे। आखिरी के छ: महीनों में मंत्री भी रहे। इन आखिरी के छ: महीनों में क्षेत्र की जनता को इतना रुलाया कि जब चुनाव हुआ तो भैय्याजी के तिबारा चुनाव जीतने के अरमां आंसुओं में बह गए। सो इसलिए वे आंसू और रोने के महात्म को भली भांति समझने लगे थे।
वे किसी के जश्न में शामिल हों या नहीं पर इलाके के मरे-जरे लोगों के दाह संस्कार, दशगात्र, तेरही-बरखी में जरूर जाते थे। भले ही बेटा की मनउती में बुढ़ऊ मरे हों और वह दिल ही दिल खुश हो, पर भैय्याजी उसका भी कंधा पकड़कर दो-चार टुप्प आंसू बहा लेते और भर्राई आवाज में कहते चिन्ता न करो बेटा ‘मैं हूं न..।
भैय्याजी उस दिन जाते ही रोने में भिड़ गए। ज्यादा लोग, ज्यादा रुदन, ज्यादा आंसू, ज्यादा असर। वे पूछ ही नहीं पाए कि आखिर सब लोग रो क्यूं रहे हैं? ऐसे में पूछना जोखिम भरा रहता है। लोग मान सकते हैं कि भैय्याजी जैसे रसूख वाले नेता को इतनी भी खबर नहीं कि उनके क्षेत्र में क्या हो रहा है।
वह गांव के मुखिया का घर था। भैय्याजी ने नजरें दौड़ाईं तो देखा मुखिया, उनके बेटे, मुखियाइन और सभी लोग सकुशल थे। उनमें से किसी की आंखों में आंसू की एक लकीर तक नहीं! मुखियाजी जैसे ही किसी नए आने वाले को ढांढस बंधाते हुए घटना बताने की चेष्टा करते वह फफक-फफक कर रो पड़ता। फिर उसे रोते हुए देख, नया आने वाला रोने लगता।
बस सुबह से यही सिलसिला चल रहा था। मुखिया क्या… किसी ने कुल्ला-मुखारी तक नहीं की थी। और मुखिया के घरवाले व उनके मुंहलगे नौकर के अलावा कोई जान भी नहीं पा रहा था कि असली वजह क्या है? भैय्याजी के आने के बाद शोक का ग्लैमर भी बढ़ गया था। पड़ोस के गांवों से भी लोगों के आने का सिलसिला शुरू हो गया था।
मुखिया सांसत में थे। वे तो नौकर की बेवकूफी के चक्कर में फंस गए थे। यदि दरवाजे पर शोक मनाने वाले सैकड़ों लोगों की भीड़ न लगी होती तो वे अपने नौकर को इतने जूते मारते कि वह किसी काम का न बचता। इस बीच वहां इलाके के दूसरे समाजसेवियों की मोटरें आती दिखीं। भैय्याजी को गमगीन व रोते देख नए उत्साही समाजसेवी व चुनाव की उम्मीदवारी के उम्मीदवार और तेज से रोने लगते।
मुखियाजी को लगा कि इलाके के सारे लोग एक साथ रोएंगे तो उनके आंसुओं की धारा से मेरी ये बखरी ही बह जाएगी। मुखिया ने दिल मजबूत किया.. और शांति-शांति-शांति की आवाज लगाई। सब चुप… सन्नाटा छा गया।
मुखिया ने रहस्य खोला दरअसल सुबह-सुबह मेरा ये हरामजादा नौकर मुझसे यह कहते हुए लिपटकर रोने लगा.. कि सेबकराम मर गया.. बाबूजी.. सेबकराम के बिना आप कैसे जी पाएंगे..। बस उसके तेज रोने की आवाज से पड़ोसी आ गए.. रोते गए.. दरअसल सेबकराम – मेरे एलसीसियन कुत्ते का नाम था। यह बात सही है कि मैं उसे बहुत चाहता था।
मुखिया के चुप होते ही.. भैय्याजी बोले- भाइयों मैं भी जानता था कि ‘सेबकरामजी..ही मरे हैं और मेरे आंसू भी उन्हीं को समर्पित हैं। आज के दौर में जब आदमी-आदमी को ही सांप की तरह डसता है। चुनाव आने पर वोटर नेताओं की खाल में भुस भरता है, ऐसे दौर में … आदमी से जानवर ज्यादा वफादार है। आइए हम सब दो मिनट की मौन श्रद्धांजलि दें। इन दो मिनटों में भैय्याजी मन ही मन अपने नेता होने पर रो रहे थे।