भगवान बड़े हों या छोटे, मंदिर बड़ा हो या छोटा, संगमरमर का हो या लकड़ी का, पूजा अर्चना करे बिना अन्न ग्रहण करना अनेकों अनेक परिवारों का नियम होता है । ईश्वर को याद करना, भजन करना, भोग लगाना और जो दिया उसके लिए ईश्वर को धन्यवाद करना हमारे सनातन की परम्परा भी है । भगवान का स्थान हो, सफ़ाई हो, घी का दीपक हो, धूप अगरबत्ती हो और फूल न हों , ऐसा तो हो ही नहीं सकता न । दिन की शुरुआत यदि ऐसी न हो तो दिन अधूरा सा लगता है ।
इस आस्था की परम्परा को निभाने प्रतिदिन लोग सुबह-सुबह एक प्लास्टिक की थैली लिए निकल पड़ते हैं। पुरुष, स्त्री, बराबर । कुछ लोगों ने तो बच्चों को भी ट्रेन कर दिया है। अल सुबह सैर पर निकले लोगों के हाथ में वो प्लास्टिक की थैली, मुझे बहुत कष्ट देती है। देखते ही कुछ होने लगता है । फूल तोड़ते हैं, उचक-उचक कर तोड़ते हैं। डाली को कभी-कभी तो डण्डे से इतना नीचे खींच लेते हैं कि डाली ही टूट जाती है और वो अधकटी, अधमरी डाली अपने पेड़ के तने से टूटी, कराहती, अधर में लटक जाती है। कोई उसका दर्द समझता ही नहीं । मूल तना अपने कटे अंग को सहला भी नहीं सकता । वो भी रोता होगा, चुप-चाप।
पर हमें क्या, हमें जीवित लोगों का कष्ट आजकल नहीं पिघलाता, यह तो गूंगा पौधा है । उगाने वाला मालिक कभी अपने उद्यान की शोभा बढ़ाने के लिए उगाता हो या सुंदरता से प्रेम के कारण, पर उस पौधे की डाली की इतनी गलती होती है कि वो अपने मालिक के घर से उगकर बाहर की तरफ लटक जाती है । वह डाली तो निःस्वार्थ सिर्फ प्रसन्न थी। इसीलिए अपनी ख़ुशी जाहिर करते हुए फूल से लद गई थी ।
उस फूल पर उसी प्रसन्नता से उड़-उड़ कर रंगों की अनुपम छटा बिखेरती तितलियाँ आ जाती हैं । फुदकती, मंडराती, इस फूल से उस फूल , खुशियाँ बांटती हैं । कभी-कभी भंवरें भी आ जाते हैं । हालांकि, आजकल भंवरें कम ही दिखाई पड़ते हैं । पुरूषों ने जो भँवरों का काम ले रखा है, इधर-उधर उड़ना, भुनभुनाना और शोर मचाना ।इन रंग-बिरंगे फूलों पर मधुमक्खियाँ भी आती हैं । मधु लेना, अपनी रानी मक्खी तक पहुँचाना, मधु बनाना ! बहुत मेहनत से, लगन से, अपने काम करने में जुटी रहती हैं। कहते हैं, ये तीनों प्राणी न हों तो फूलों का चक्र ही चलना बंद हो जाए ।
प्रकृति के अपने कायदे हैं, अपने नियम हैं । प्रकृति निश्छल है, नि:स्वार्थ है, सिर्फ़ देना जानती है ! अप्रतिम सुन्दरता, स्नेह और एक दूसरे के प्रति समर्पण । लेकिन मनुष्य है कि मानता ही नहीं,
भगवान को फूल चढ़ाने के नाम पर नोचना बंद ही नहीं करता। भगवान, गिरे फूल को स्वीकार नहीं करेंगे क्या ?मूर्ति से निकलकर डांट देंगे क्या ?
भगवान, मूर्ति से निकलकर शायद फूल भी गिनेंगे – “अरे तुमने सिर्फ़ पन्द्रह फूल चढ़ाए, जाओ मैं तुम्हारी बात नहीं सुनता ” । हंसी आती है, पर गुस्सा ज़्यादा । इतना ही शौक है, ऐसी पूजा का, तो खरीद लीजिए न 5 रुपए के फूल । शायद किसी का भला हो जाए । नीचे गिरे फूल व्यर्थ जाएँगे, उन्हें ही समेट लीजिए । एक फूल तोड़ने से, पौधा रो पड़ता है । उसका बच्चा चला जाता है, तितली उड़ना बंद कर देती हैं, भँवरें तो गुम हो ही गए, मधुमक्खी भी हम भगाए जा रहे हैं ।
क्या, भगवान ऐसे प्रसन्न होंगे ? कभी नहीं । भगवान फूल गिन नहीं रहे । हाँ, भगवान आपके कर्म अवश्य गिनते हैं ।कृपया सैर पर नित्य जाइए लेकिन वो प्लास्टिक की थैली के बिना ।
कृपया मत तोड़िये, उस अनुपम सुन्दरता को, प्रकृति को प्रसन्न रहने दीजिए । प्रकृति की प्रसन्नता में ही साक्षात् ईश्वर का वास है ।