मंदिर अपने राम का

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निर्मल उपाध्याय

वह अवसर आ गया जिसका अरसे से इंतजार था।राम मंदिर का भव्य भूमि पूजन, भव्य मं दिर के निर्माण की स्पष्ट प्रस्तावना है।सदियों की गुलामी ने न केवल हमारी अस्मिता को तहस नहस किया बल्कि हमारे संस्कार के मूल प्रतीकों को भी ध्वस्त करने की खूब चेष्ठा की।कुछ प्रतीकों को ध्वस्त भी किया गया।सब कुछ किया मगर मन और आत्मा से उन स्मारकों के आकर्षण, स्पंदन ध्वस्त नहीं कर पाए।हम भारतीयों की खासियत ही यह है कि हम आत्मीय अक्स ही ज़मीन पर उकेरने के संस्कारों में पले बढ़े लोग हैं।हमारे स्मारक,हमारी स्मृतियाँ, कभी पृथक नहीं की जा सकतीं।यदि ऐसी कोशिश होती है तो हमारे अतीत को भरोसा है कि हम अपनी आत्मा को जरूर फिर ज़मीन पर आस्था का वह परिसर देंगे जिसके दर्शन विरासत की आस्थाओं को वैसी ही तसल्ली देते रहेंगे जैसे हमारे पूर्वजों की निष्ठाओं के प्रतिफल हमें मिलते रहे हैं।मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम हमारी आस्था हैं, संस्कार हैं और हमारी अस्मिता के सार्थक मूल्यों का परिष्कार करने वाले श्रद्धांक हैं।राम के नाम पर बना धारावाहिक यदि हमारे मानस को इतना अभिभूत और तृप्त करता है कि उसके चलते रास्ते सुनसान हो जाते हैं तो अयोध्या के परिसर यदि भव्य आकार लेते दिखाई देते हैं तो आल्हाद के सीमान्त पर जैसे चेतना इठलाती सी प्रतीत होती है।ये वस्तुतः सीमेंट कांक्रीट का मंदिर भर नहीं है बल्कि श्रद्धा और आस्थाओं का वह अनमोल तीर्थ है जिसके दर्शन की फलश्रुतियों में हमारी आत्मा की तृप्ति है,और श्रद्धा सागर में आकंठ हमारी अस्मिता के आल्हाद की शुभ शंख ध्वनि है।
राम मंदिर के निर्माण को केवल राजनीतिक दृष्टि से देखने वाले बेवजह जैसे अपनी ही आत्मा से अनिभिज्ञ होने का साहस जी रहे हैं।आश्चर्य रहा कि अपने राम के लिए हम एक मत न हो पाए न लोगों ने होने दिए।चाहे मंदिर निर्माण के पक्षधर हों या उसे किसी एक के द्वारा भुना लिए जाने से कुण्ठित लोग हों,यदि राम मंदिर के निर्माण को केवल राजनीति से जोड़ते हैं तो अपनी तथाकथित विचारधारा, और राजनीति को केवल कलंकित करने के सिवाय और कुछ नहीं करते।प्रगतिशील चिंतन के नाम पर,या और किसी भी विचार से मंदिर निर्माण का विरोध करने वाले ख़ुद अपनी तादाद की असलियत नहीं जानते।आप तथाकथित प्रगतिशील, या अन्यथा विचारवान ,बौद्धिक हो कितने, जो आस्था से जुड़े हमारे संस्कार के मूल्यों को आम भारतीय से पृथक करके आकलन करने पर तुले हो।ये राम मंदिर उन करोड़ों लोगों की श्रद्धा का तीर्थ है जो सैकड़ों मील दूर से आज भी अपने राम के जन्म स्थान की मिट्टी छू लेने को अपने कई पिछले जन्मों का शेष रहा पुण्य मानकर आज भी दौड़ दौड़ कर आते हैं और अपने भाग्य पर इठलाना चाहते हैं।कई दिन,महीनों के जीवन यापन का सामान सिर पर उठा कर पंचक्रोशी यात्राओं में जहाँ का सहज जीवन अंतर्मन की तृप्ति पाता हो वहाँ आप और हम जैसे कुछ तथाकथित शहरी, तथाकथित बुद्धिजीवी किसी और सभ्यता के आईने में अपने संस्कार के मनभावन चित्र देखने के प्रयास में भूल जाते हैं कि वे ऐसी विचारधारा को ग्राह्य करके न केवल अपने आपको भूलने के जतन कर रहे हैं बल्कि ईमानदार निष्ठाओं को दिग्भ्रमित करने का पाप भी कर रहे हैं।राम मंदिर के निर्माण के नाम पर राजनीति करने वालों को करने दीजिए राजनीति, न तो राम मंदिर के नाम से कोई चुनाव जीतता न चुनाव हारता है।ये सबके अपने पाले हुए भ्रम हैं।सत्य ये है कि हमारा संस्कार चाहता है कि हम अपनी आत्मा में सहेजे श्रद्धेय मूल्यों का उस रूप में दर्शन कर सकें जिसे हम तीर्थ कहते हैं।आश्चर्य यह है कि हम अपने ही तीर्थ के पुनर्निर्माण के मुद्दे पर कैसे बटे रहे,और क्यों बटे रहना था।राम मंदिर विवादित बना रहे और करोड़ों करोड़ों श्रद्धालु अपने राम की क्षत् विक्षत् अयोध्या को देख कर निराश लौटते रहें ये कौन से जनतंत्र का आदर्श हो सकता है,जिसमें आस्था और श्रद्धा के मूल्यों को राजनीति से समझने की चेष्ठा हो।ऐसा वो ही सोच सकते हैं जो भारत को भारत देखने के बजाय निर्वसन पाश्चात्य पागलपन में जीने के लिए लिए व्याकुल हैं।यह नहीं भूलना चाहिए कि सुदूर अतीत के भारत का ही वह संस्कार है जो आज भी सबको एक सूत्र में बाँधे हुए है।जो नहीं बँध पाए वो जाने कौन कौन से विचारों, संस्कारों की कौन कौन सी आँधियों में कब और कहाँ बह गए पता नहीं।ऐसे लोग पता नहीं ये क्यों भूल जाते हैं कि भारत ताजमहल या कुतुबमीनार दिखा कर नहीं समझाया जा सकता भारत तो राधारानी के त्याग में, सीता के आदर्श में और अनुसुइया के सतीत्व मे समझाया जा सकता है।राम, कृष्ण,बुद्ध या महावीर जैसे अवतारों के संस्कारों को छोड़ कर कहाँ से बता पाऐंगे अपना देश।जब औरंगजेब जैसा धर्मान्ध शासक जिसे आलमगीर ज़िन्दा पीर कहा जाता है,हमारे मंदिरों पर आकर सनद दे जाता है तो कुछ तो अर्थ होगा जो बड़े बड़े मुस्लिम धर्मान्ध समझ गए मगर हमारे अपने तथाकथित विद्वानों को समझ नहीं आया।यदि शाहजहाँ अपनी बीवी का मक़बरा बना कर हमें दुनिया को दिखा कर गदगद होने के लिए छोड़ जाता है तो हम अपने आदर्श, अपने इष्ट, अपने आराध्य के प्रति अनासक्त रह कर हम अपने अर्थों में क़ाफिरी कर रहे हैं।मंदिर निर्माण हमारे संस्कार की बहुत कीमती ज़रुरत थी,क्योंकि हमारी मान्यता में ईश्वर ने कलयुग में विग्रहों में अपने दर्शन करने का निर्देश दिया है।खैर विरोध कोई कर नहीं सकता, न करना चाहिए, विरोध होता भी नहीं बशर्ते हमारे राजनीतिक आकाओं ने अपनी राजनीति को और इच्छाओं को आम भारतीय की आस्था से घटाया होता।चाहे मंदिर निर्माण के पक्ष की राजनीति हो या विपक्ष की, मंदिर को मतपत्र से जोड़ कर देखने की कोशिश की गई।यह मंदिर बनाने वालों को भी भलीभांति समझ लेना चाहिए कि मंदिर का निर्माण करके वो जनता और उसकी आस्था को उपकृत नहीं कर रहे हैं,न जनता उसे ऐसा समझने वाली।जनता केवल यह समझने वाली है कि हमारी अस्मिता के जबर्दस्ती ध्वस्त किए गए तीर्थ के पुनर्निर्माण में इतना विलंब न किया होता।मंदिर निर्माण के पक्षधर यदि श्रेय लेना चाहें तो लेने दीजिए, जब मंदिर के ताले दर्शन के लिए खुलवाने वाले लोगों को भाव नहीं दिए गए तो पूरी सामर्थ्य और हैसियत में मंदिर बनवाने वालों को क्या भाव देगी।यदि वे इस संबंध में स्वयं को पुलकित पुलकित समझ भी रहे हों तो यह उनका निर्विवाद भ्रम है।जो उनकी जिम्मेदारी थी उसमें सुविधानुसार की गई देरी को जनता विस्मृत नहीं करेगी।मा,सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुरूप पहले ही सामन्जस्य बनाया जा सकता था मगर अपने राजनीतिक स्वार्थों की शर्त पर नहीं।इन सब अंदर की बातों को प्रभु श्री राम पर छोड़ दें, यदि हम उन्हें भगवान कहते हैं तो यह भी मानना पड़ेगा कि वे उसे अवश्य अपने कर्मों का फल देंगे जिसने इस पवित्र आस्था में स्वार्थ को भुनाया है।राम ख़ुद क्यों अपना मंदिर बनवाने को व्याकुल होंगे जो हर मन को मंदिर बनाना जानते हों,राम यह जरूर विचार में लेंगे कि वे कौन कौन हैं जिन्होंने करोड़ों आस्थाओं,श्रद्धा के मूल्यों और संवेदनाओं को तिरस्कृत कर केवल निरीह श्रद्धालु जनता के मन को अतुलनीय कष्ट पहुंचाया है।
मंदिर के भूमि पूजन के बाद तो कम से कम सबको एक जाजम पर बैठकर रामरक्षा स्त्रोत्र का पारायण कर लेना चाहिए ताकि जनता से राजनीति पर भरोसा करवाने का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अवसर हाथ से न चला जाए।जहाँ तक मुसलमानों का प्रश्न है तथाकथित कौम या राजनीति के नज़रिए से उनका भी विरोध रहा हो मगर यह बिलकुल स्पष्ट है कि हर मुसलमान यह जानता है कि यह हिन्दुस्तान है यहाँ जो सम्मान तुलसी, सूर मीरा को है वही सम्मान रहीम,रसख़ान के लिए भी है।यहाँ जितना सम्मान और अक़ीदा किसी हिन्दू संत के लिए है उससे कम ख़्वाज़ा मोइनुद्दीन चिश्ती र,उ,अ,के लिए कभी नहीं है।
कहना यह है राम को राम ही मानना होगा जो सबके परमेश्वर हैं जिनके लिए कोई हिन्दू, कोई मुसलमान नहीं उन्हें पूजा में सिर्फ आस्था चाहिए वह आस्था जो केवल ईश्वर की सत्ता के लिए हो किसी और राजनीतिक सत्ता के लिए नहीं।