रविवारीय गपशप: महानगरों का वैसा मोह बचा नहीं है, जो आज से चालीस-पचास बरस पहले था

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आनंद शर्मा। अब तो वैश्वीकरण और तकनीक ने चीजें बड़ी आसान कर दी हैं, तो महानगरों का वैसा मोह बचा नहीं है, जो आज से चालीस- पचास बरस पहले था। पहले दिल्ली या मुंबई जाने का ख़्याल ही एक अलग जुनून पैदा कर देता था, ख़ासकर मुंबई का तो नवजवानों के दिल में एक अलग ही स्थान था, वो तिलिस्माती शहर सा था, जहाँ ना जाने कौन कौन से ख़ज़ाने दबे हुए थे। मुझे अपनी नौकरी लगने तक मुंबई जाने का मौक़ा नहीं आया, बहुत हुआ तो परीक्षा के बहाने इलाहाबाद, बनारस हो आए।

जबलपुर में जब हम जी.एस. कालेज में पढ़ा करते थे, तो अपने गृह नगर कटनी से पढ़ने के लिए ट्रेन से जबलपुर जाने वाले छात्रों का एक संगठन हमने बनाया हुआ था, जिसे छात्र संग्राम परिषद नाम दिया गया था। यह संगठन कटनी के छात्रों के लिए नए शहर में आने वाली बाधाओं के शमन के अलावा मुफ़्त पुस्तकालय, मुफ़्त कक्षायें आदि का आयोजन किया करता था। इसके अलावा साल के अंत में ऐसे छात्र जो अपने विषय में शहर में टॉप करते, उनके सम्मान का एक कार्यक्रम भी यह संगठन आयोजित करता था।

पहले तो सामान्य रूप में कार्यक्रम हुए , पर बाद में मुंबई के फ़िल्मी कलाकार भी इस आयोजन में बुलाए जाने लगे। वर्ष 1990 में जबकि मैं नरसिंहपुर में बतौर डिप्टी कलेक्टर पदस्थ हुआ, तब मुझे ऐसे ही अवसर के बहाने इस मायानगरी के भ्रमण का मौक़ा मिला। कटनी में छात्र संग्राम परिषद हर साल की तरह इस बरस भी वार्षिक आयोजन में एक बड़े कार्यक्रम की योजना बना रही थी। आयोजन का समय आया तो मेरे मित्रों ने, जो मुंबई कलाकारों को फाइनल करने जा रहे थे, मुझे भी फ़ोन किया कि इच्छा हो तो मुंबई चलो। संयोग कुछ ऐसा था कि मेरी पत्नी मायके गई हुई थी, और दो दिन की छुट्टी मिलने में कोई ज़्यादा परेशानी नहीं थी और आख़िरी सुविधा ये कि ट्रेन नरसिंहपुर स्टेशन से ही गुजरा करती थी तो मैं टिकट कटा कर बंबई मेल की उसी बोगी में बैठ गया जिसमें मेरे अन्य मित्र थे।

मुम्बई पहली बार पहुँचे तो बड़े शहर की चकाचौंध का नशा हम पर छाया हुआ था। फ़िल्म आशिक़ी नई हिट थी और उसके गीतों के लिए कुमार शानू भी, और उनसे मिलने का ज़रिया थे प्रसिद्ध संगीतकार स्वर्गीय आदेश श्रीवास्तव जो तब मुंबई में अपने संघर्ष के दिन काट रहे थे तथा न्यू कटनी जंक्शन के निवासी होने से हमारा संपर्क सूत्र थे। हम लोग रेलवे कालोनी में स्थित उनके एक छोटे से फ़्लैट में मिलने पहुँचे तो देखा, वे खुली बालकनी में दलेर मेंहदी के साथ फ़र्श पर बैठे उनके नये गाने की धुन बना रहे थे।

हमने अपना परिचय दिया, तो अपने शहर के लोगों को देख आदेश ने दलेर मेंहदी को बाद में आने का कहा और हमारे साथ टैक्सी में बैठ कुमार शानू के यहाँ चल पड़े। कुमार शानू ने उस जमाने में कटनी आकर प्रोग्राम करने के पचास हज़ार रुपये माँगे थे। जब संस्था के पदाधिकारियों ने संस्था द्वारा किए जाने वाली दान धर्म की योजनाओं का हवाला देकर फ़ीस कम करने की गुज़ारिश की तो कुमार शानू ने साफ़ कहा दया धर्म हम खुद ही कर लेंगे आप तो फ़ीस का बंदोबस्त कर लो। बहरहाल दिन भर आदेश के ज़रिए बाक़ी के कलाकार भी तय करने के बाद अंत में जब हम विदा लेने लगे तो आदेश ने एक नवजवान की ओर इशारा कर कहा कि इसे भी ले जाओ, बढ़िया गाता है, कुछ लेगा नहीं बस आने-जाने का फर्स्ट क्लास का टिकट दे देना।

संस्था के लोगों को तो सहमत होना ही था, आप को जान कर आश्चर्य होगा की रेल टिकट की प्राइज़ में आने वाला वो गायक छैयाँ छैंया वाला सुखविंदर था। इसके बाद हम साथियों ने मिल कर महालक्ष्मी, हैंगिंग गार्डन और मुंबई की बाक़ी मशहूर जगहों का भ्रमण कर फोटो खिंचवाईं। तीन दिन बाद जब मैं नरसिंहपुर वापस पहुँचा तो घर पर श्रीमती जी वापस आ चुकी थीं, और कोप भवन में थीं । मैंने कारण जानना चाहा तो जवाब मिला “ हमारे बिना बंबई क्यों गये ?” मैंने कहा भाग्यवान आप तो मायके में थीं, मैं अकेला ही यहाँ था तो मित्रों के साथ चला गया , पर मेरे किसी तर्क ने साथ ना दिया आख़िरकार जब मैंने इण्डिया हाउस से उनके लिये लाया खूबसूरत सलवार सूट निकाला तब जाकर उनके चेहरे पर मुस्कान आयी और इस तरह मेरी पहली मुंबई यात्रा का सफल समापन हुआ।