रविवारीय गपशप : ट्रांसफर होते ही अफसर को लगता है कि एक जन्म पूरा हो गया

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आनंद शर्मा : आम चुनावों की आहट के साथ ही निष्पक्ष निर्वाचन के मापदंडों के चलते शासकीय सेवकों के स्थानांतरण की श्रृंखला आरम्भ हो गई है। हालाँकि यह भी सही है कि आदमी जिस दिन से सरकारी होता है उसी दिन से उसके जीवन में स्थानांतरण का ग्रह प्रविष्ट हो जाता है। नौकरी में रहते हुए इस ग्रह का प्रभाव समय समय पर उसके ऊपर अच्छे या बुरे अनुभव के साथ पड़ता रहता है। यद्यपि कई जीवट जीव ऐसे भी रहते हैं जिन्हें पता रहता है कि वे कहाँ जा रहे हैं , पर अधिकांश बंदे ऐसे होते हैं जिनका जब ट्रांसफर होता है तो उन्हें छोड़ कर बाक़ी सबको पता होता है कि वो जा रहा है।

एक और दिलचस्प पहलू ये है कि जैसे ही अफ़सर का ट्रांसफर होता है , उसके सारे छुपे गुण सामने आ जाते हैं। लोग बातें करते हैं कि अरे इस मामले में बड़ा अच्छा था और उस मामले में बड़ा बढ़िया था, नाराज जरूर होता था पर नुकसान नहीं करता था , न जाने नया आने वाला कैसा हो ? ये जैसा भी था पर ऐसा तो नहीं था ..आदि आदि। लेकिन जैसे ही नया अफ़सर कुर्सी नशीन होता है , नए के गुण और पुराने के अवगुण तुरंत खुल जाते हैं। अरे भाई ये तो बड़ा तेज़ है , पुराने को तो ये आता ही नहीं था और कैसा बौड़म था भाई देखो इसने तो कसावट ला दी …आदि आदि। अक्सर नया आने वाला अफसर सोचता है कि पुराना सब कुछ अव्यवस्थित था और उसे ही सब ठीक करना होगा। आख़िरी बात यह कि ट्रांसफर होता सबका है , पर सब सोचते हैं कि दूसरे का ही होगा अपना नहीं।

पिछले दिनों एक पुराने मित्र भी मिल गए जो अभी कुछ महीने पहले ही कलेक्टरी से हटे थे , बात चली तो मैंने पूछा आपका ट्रांसफर तो बड़ी जल्दी हो गया क्या कारण था ? वो बोले सर बस तभी से मै भी सोच रहा हूँ , पर समझ नहीं आ रहा है। तभी पास में खड़े एक तीसरे सज्जन ने कहा भाई मेरे इतने दिन ये सोचने में लगाने के कि हटे कैसे ये सोचा होता कि अब फिर कैसे बनें तो बेहतर होता , और हम सब ठहाका मार कर हंस पड़े। ट्रांसफ़र का एक नियम और है कि ये जैसे ही होता है , अफ़सर को लगता है जैसे एक जन्म पूरा हुआ और अब नए सिरे से ज़िंदगी शुरू होगी। स्थानांतरण की इस प्रक्रिया यह ऐसी विचित्र अवस्था भी होती है जब अफ़सर रिलीव तो हो गया हो पर नयी पोस्टिंग पर ज्वाइन न हुआ हो। जैसे प्राणी की आत्मा पुराना शरीर तो छोड़ चुकी है पर अभी नया मिला नहीं है। कई बार मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ।

राजगढ़ से हटने के बाद जब एक विवाह समारोह में शिरकत करने भोपाल आया , होटल पहुचने पर रिसेप्शन पर बैठे बन्दे ने कमरा तो दे दिया , पर कहने लगा सर आई.डी. दे दें। मैं सोचने लगा इसे क्या कहूँ आई.डी. पर लिखा है “कलेक्टर राजगढ़” जो अब मैं हूँ नहीं , जो बनने वाला हूँ वो तब तक नहीं हो सकता जब तक ज्वाइन न कर लूँ। मैंने उसे पुराना आई.डी. कार्ड दिया और बताया भाई अभी मैं एक आत्मा हूँ , नया शरीर मिलना बाकी है। स्थानांतरण के प्रसंग की एक शेर के साथ समाप्ति ;
कल तक रुके थे आज यहाँ , फिर सफर में हैं
खानाबदोश जिंदगी में ठौर हैं कई।
तुम चल सको तो साथ मेरे चलो हमनशीं ,
फ़िक्रे जहाँ में मुश्किलों के दौर हैं कई।