रविवारीय गपशप

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मैं ये नहीं कहता की मैं झूठ नहीं बोलता , वक्त जरूरत पर हर कोई झूठ बोलता है | कहते हैं कि यदि किसी झूठ से निर्बल या जरूरतमंद व्यक्ति की मदद हो रही हो तो उसे बोलने में कोई पाप नहीं है | हालांकि मैं इतना पात्रता अपात्रता विचार कर झूठ नहीं बोलता पर ये जरूर है कि मेरे झूठ बोलने के पीछे किसी का बुरा करने का निहितार्थ नहीं होता | ये और बात है कि मैं झूठ बोलने में कच्चा हूँ इसलिये जरा सी ही देर में पकड़ा जाता हूँ | ऐसी ही एक पुरानी याद आपसे साझा करते हैं |

उन दिनों मैं सीहोर जिले में अनुविभागीय अधिकारी सीहोर के पद पर पदस्थ था | शायद कुछ लोग इस बात से अंजान हों कि पहले भोपाल सीहोर जिले का भाग ही था , जिसे तहसील हुज़ूर कहते थे | लोग तो यह भी कहते हैं कि पहले सीहोर को ही राजधानी बनाने का विचार आया था पर कुछ अजब भूगर्भीय हलचलों ने इसे सीहोर से भोपाल शिफ्ट कर दिया | लेकिन सिहोर का महत्व हमेशा रहा है , अब तो प्रदेश के मुखिया ही इस जिले के निवासी और इस जिले में आने वाली विधान सभा के सदस्य हैं |

सामान्यतः सरकारी दौरे पर आये केंद्र के दल को सीहोर का दौरा कराना हमेशा से परम्परा रही है और यदि दौरा अचानक हो तो तो फिर सीहोर का होना तो लाज़िमी रहता है | इन परिस्थियों के मद्देनज़र सीहोर के अधिकारी हमेशा ऐसे दौरों के लिये तैयार और सतर्क रहा करते थे , पर इस प्रव्रत्ति का नुक़सान ये था कि मुख्यालय छोड़ने की अनुमति बड़ी मुश्किल से मिला करती थी | कुल मिला कर ये कि भोपाल के इतने पास रह कर भी भोपाल का कुछ ” सुख ” हासिल न था |

एक दिन कुछ ऐसा हुआ कि मेरी पत्नी का अपने मायके जाने का कार्यक्रम था , उन दिनों बच्चे भी बहुत छोटे थे | श्रीमती जी के अपने घर जाने की ट्रेन भोपाल से पकड़ती थीं | यात्रा लम्बी नहीं थी तो स्टेशन पर ही टी टी ई से बात कर किसी खाली सीट पर आरक्षण करा लेते थे और हर बार ये प्रक्रिया थोड़ी बहुत दौड़ भाग से ही संपन्न हो जाया करती थी | चूँकि केवल भोपाल जाकर ट्रेन में परिवार को बिठाने का काम ही था तो मैंने पूर्व से कोई छुट्टी नहीं ली थी , जाने वाले दिन ही सुबह जब मैंने कलेक्टर साहब से कहा की मुझे फलां ट्रेन में अपने परिवार को छोड़ने भोपाल तक जाना है तो उन्होंने कहा कि भाई मुझे भी किसी को लेने जाना है तो ” देख लो ” |

प्रशासनिक भाषा में इस तरह के संवादों के अलग अर्थ होते हैं , देख लो मतलब नहीं जाओ सो मैंने घर आकर अपनी श्रीमती जी से कहा कि मुझे जाने में दिक्कत है , तुम्हे जीप से छुड़वा देता हूँ और होमगार्ड के सैनिक को साथ कर देता हूँ जो स्टेशन पर ट्रेन जगह दिलाने में भी मदद कर देंगे | श्रीमती जी इस अव्यवस्था की व्यवस्था से दुखी हो बैठीं और उलाहना देने लगीं “हाँ आपको तो हमेशा अपने काम की ही पड़ी रहती है , और ये जवान क्या सीट दिला पाएंगे ये तो किसी से कुछ कह ही नहीं पाते हैं , मुझे ही छोटे छोटे बच्चों को लेकर भागदौड़ करनी पड़ेगी , दो घंटे की छुट्टी भी न मिलने वाली ये कैसी नौकरी है ? मुझे लगा कि क्या करूँ ? ” देख लो ” शब्द के लचीलेपन का फायदा लेते हुए मैंने सोचा कि इस शांति भंग कार्यक्रम को दो घंटे के छोड़ आने की कवायद से निपटाया जा सकता है , लिहाजा मैंने कहो चलो चलते हैं |

भोपाल जाने-आने में दो घंटे से ज्यादा लगते भी नहीं थे | हम भोपाल चले और जानबूझ कर मैंने अपने गाडी प्लेटफार्म नंबर पांच की तरफ ली ताकि कलेक्टर साहब को न पता चल पाये | स्टेशन पहुँच कर मैंने परिवार को तीन नंबर प्लेटफार्म पर छोड़ा और गाडी की स्थिति पता करने के लिए फुट ओवर ब्रिज से होता हुआ बाहर आया और बाहर से जाकर स्टेशन पर पूछताछ वाली खिड़की पर पहुंचा | तब आज कि तरह बड़े सजे संवारे डिस्प्ले बोर्ड नहीं थे , एक छोटी सी खिड़की थी जिसपे मौखिक स्थिति बताने की सुविधा के साथ साथ एक बोर्ड पर सूचना भी लिखी रहती थी |

उन दिनों मैं सिगरेट पीने की बुरी आदत से ग्रस्त था और पत्नी से इस सम्बन्ध में होने वाली झिक झिक के चलते उसके न रहने पर कश लगा लिया करता था |तो जनाब मै उस खिड़की पर पहुँचा और झुक कर अपनी गंतव्य ट्रैन के बारे में बोर्ड पर लिखी सूचना देखने लगा | मेरे एक हाथ में जली हुई सिगरेट थी और झुक कर मैं देख ही रहा था कि तभी किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा तुम्हारी ट्रैन आधा घंटे लेट है और मेरी भी एक घंटे लेट है | मैंने जैसे ही ऊपर देखा तो सन्न रह गया मेरे कंधे पर कलेक्टर हाथ रखे हुए थे , मैं एकदम घबरा गया पर , वो अत्यंत सहज मुद्रा में थे , मेरे कंधे को थपथपाते हुए बोले चलो चाय पीते हैं | मैं एकदम चुपचाप उनके साथ हो लिया , हमने चाय पी |

मैं क्यों आ गया इस बारे में उन्होंने एक शब्द भी मुझसे नहीं पूछा | धीरे धीरे मैं सहज हुआ , पर ये झूठ कहें या चोरी कहें , तुरंत ही पकड़ी गयी थी | उस दिन के बाद मैंने प्राण किया कि आइन्दा बिना पूछे कहीं जाने की हिमाकत न करूंगा , साथ ही अपने कलेकटर की उस समय नाराज न होकर मित्रवत व्यवहार की मैंने मन ही मन सराहना भी की और ये भी जान लिया कि झूठ बोल के बचने वाली किस्मत मेरी है नहीं |||||