जयराम शुक्ल
जिस किसी ने आँकडों की परिकल्पना की और सांख्यिकीशास्त्र रचा, वह निश्चित ही महान ही रहा होगा। उसने व्यवस्था तंत्र को बड़ी सहूलियत बख्श दी। आँकड़े न होते तो हमारे नीति नियंता दुनिया की सारी समस्याओं का हल कहाँ खोजते फिरते ?
आँकड़े क्या हैंं! अंक के जरिए खड़े खड़े किसी की औकात को आँकना।
आँकडे साँप की तरह अपने पीछे कोई निशान नहीं छोड़ जाते लेकिन ये ब्रह्मा के वाक्य की तरह सास्वत् होते हैं।
ये व्यवस्था को चुल्लू भर पानी में डूबने से बचा लेते हैं। जरूरत पडने पर खाल बचाने के लिए ढाल और चेहरा बचाने के लिए नकाब में भी बदल सकते हैं।
बर्फीले कश्मीर में आतंक की धमनभट्ठी में 49 हजार लोग स्वाहा होने के बाद अब आँकड़ों में दर्ज हैं, सरग-नरक से परे, कहीं त्रिशंकु की भाँति विश्वामित्र लोक में लटके हुए।
आँकड़े सहज, सुलभ हैं लेकिन उन आदमियों के सपने, संवेदनाएं नहीं! जो अब आँकड़े बनकर हमारी- आपकी बही में दर्ज हैं ।
पिछले महीने बिहार में और उससे पहले यूपी के गोरखपुर में हजार पार की संख्या में नन्हें-मुन्ने बिना इलाज के मर गए।
अस्पतालों ने इन्हें आँकडों में बदलकर माँ-बाप को लौटा दिया। मंत्री जी के पास संवेदना नहीं आँकडों का लेखा है।
उनके अधिकारियों के पास मौत की अंकगणित है। बहीखाते में हर साल के अगस्त में हुई मौतों का हिसाब है जो ये बताता है कि इस साल का आँकड़ा कोई असमान्य नहीं।
ये रूटीन की मौतें हैं क्योंकि डाक्टरों का एकाउंट यही कहता है।
अपने देश में मौते रूटीन की बात होती हैं। चाहे सरहद में हो, सड़क पर या गटर में गिरकर।
मरने के बाद आँकडे़ में बदलकर यहां आदमी मोक्ष को प्राप्त होता है क्योंकि वह अपने पीछे आँकड़ों के अलावा कोई शेषकथा नहीं छोड़ जाता।
मौतों के इन आँकडों की साफगोई से ऊपरवाले संतुष्ट हैं और ऊनके ऊपरवाले भी। पर ये नहीं भूलना चाहिए कि इन ऊपरवालों के ऊपर भी एक अंतिम और अनंत ऊपरवाला है।
वह तो सब जानता है। वह आँकडों की झांसेबाजी में नहीं फँसता। ऊपरवाले पर विश्वास की ताकत का नाम ही भारतवासी है।
ऊपरवालों से भरोसा उठता है तो वही सबसे ऊँचे बैठा ऊपरवाले का आसरा उसे बचाता है। इसलिए अभी तक बचा भी है।
हमारा तंत्र आँकडों के मकड़जाल में बिंधा हुआ है। जब हम कहते हैं कि मँहगाई बढ़ रही है, गिरस्ती का ढोना मुश्किल पड़ रहा है। तो जवाब में वे आँकडे बाँच देते हैं कि-झूठ-है ये सब।
देखो ग्रोथरेट अपने रिकॉर्ड तोड़ स्तरपर है। सेनसेक्स हवा में टँगा है। शेयर मार्केट बूम कर रहा है। मँहगाई पूर्ववर्तियों के मुकाबले निम्नस्तर पर है।
अब दो रुपए की सब्जी चालीस रुपये में खरीदो, भात की जगह माड़ पीकर जियो या कि खेत की मेड़ पर सल्फास गटक लो या पेड में लटक जाओ। सिस्टम की सेहत पर कोई फरक नहीं पड़ने वाला क्योंकि उसके पास आँकडे हैं।
और इन आँकडों को झूठा करने के लिए आपको भी आँकडे चाहिए। आप खुद इस देश में सिर्फ और सिर्फ आँकडे़ की एक गिनती हो।
इस सिस्टम में आँकडों का स्टारवाँर चलता है। जीतता वही है जिसके पास आँकडों की मिसाईल होती है।
ये लोकतंत्र आँकडों में उलझा है। कभी जमाना था कि लोहिया जैसा आदमी पार्लियामेंट में एक अकेला चना रहकर भी भाड़ फोड़ लेता था।
अब विपक्ष से बात करिएगा तो जवाब मिलेगा..वो तो सब ठीक है पर सदन के आँकडे अपने पक्ष में नहीं है। चुनाव में वह आँकडों की दुहाई के साथ ही आपके सामने आएगा।
सच पूछिये तो इस गणतंत्र में आदमी मकड़जाल में फंसे उस पतंगे ज्यादा कुछ नहीं जिसने उसे अपना घर मानने की भूल की है।
उसे इन आँकडों के चक्रव्यूह से निकालने कोई द्रोणाचार्य नहीं आएगा। खुदी को इतना बुलंद करना होगा कि खुदा उसकी रज़ा पूछने खुद आए।