देख री देख सखी
ऋतुराज आगम सखी…
सकल वन फूले आनंद छायो…!!
नितिनमोहन शर्मा। ऋतुराज बसंत ऐसे कैसे आये? पहचान ही नही पाये। शाल दुशाले में लिपटे हुए आये हो। कोहरे ओर कुंहासे में दुबके हुए। न नील गगन न दिनकर। न मलयाचल बयार। न शिशिर बिदा हुआ। न हेमंत जाने को तैयार हैं। सरसों की पीली चटख अभी चटकी भी नही है और न गेँहू की बालियों में यौवन आया है। पर तुम आ गए। बगेर किसी अहसास के। बगेर किसी इशारे के। अ गए और पसर भी गए। देर सबेर छा भी जाओगे। बसंत बहार बनकर। तो अभिनंदन आपका ऋतुराज। सु- स्वागतम..!!
अरे…ऋतुराज आप आ गए। कोई खबर ही नही आगमन की। न कोई इशारा। यू दबे पांव चले आये। किसी को खबर ही नही। ऋतुराज खबर होती भी कैसे? अभी तो शाल दुशाले बदन से दूर ही कहा हुए। न वो बयार चली जो मदनोत्सव का अहसास कराती हैं। न कोयल कुकी। न मोरन के शोर हुए। न खग जागा। न आम्रकुंजो पर बोर आये। पलाश भी अभी दहका नही और न सरसो की पीली पीताम्बरी चटक चमकी। आप आते हो न ऋतुराज तो कलियां भी चटक कर फूल बन जाती है। हरसिंगार भी श्रंगारित हो जाता है आपकी अगवानी में। मौसम में एक नई से मस्ती छा जाती है। मन आँगन में एक अलग सी तरन्नुम महसूस होने लगती है। पर इस बार तो ऐसा कुछ भी नही और आप चले आये।
कुहासे में लिपटे हुए आयो हो ऋतुराज। कोहरे में दुबककर आये हो। शिशिर-हेमंत को इस बार बिदा करने की बजाय संग संग बाराती बनाकर, सजाकर ले आये। अब कैसे पता चले तुम आये हो? तुम तो हिम ऋतु की सवारी कर, सर्द हवाओं का सेहरा माथे पर बांधे चले आये। यू अकस्मात तुम आते नही न। तुम्हारे आने के पहले मलय पर्वत से आने वाली मलयाचल बयारों के भी कही अते पते नही। न पश्चिम से कोई बयार चली। अभी तो उत्तर पूर्व के पहाड़ों से बर्फ़ीली हवाओ का जोर हैं। शाल दुशाले, रजाई गोदड़िया अभी भी संदूक से बाहर है। बदन ढके टुपे हैं। कैसे करे दिल से खुलकर आपका स्वागत? पर आप तो ऋतुराज हो। देर सबेर अपनी नियामत से हमको रूबरू करवाओगे। देह को अहसास दिलावोगे। मन मयूर को उल्लसित करोगे।
ऋतुराज बसंत आपका मालवांचल में स्वागत-वंदन-अभिनंदन। भागती दौड़ती तिजारती दुनिया मे बहुत कम है जिन्हें तुम महसूस हुये होंगे। सब बहुत जल्दी में है ऋतुराज। तुम पूरी रंगत से भी आते तो भी कौन सा तुम्हारे लिए पलक पाँवडे बिछ जाते? सब कुछ पा लेने की होड़ में कौन रुककर देखता कि आम के पेड़ों पर बोर के गुच्छे आने लग गए हैं। टेसू के फूल केसरिया बाना पहनने को आतुर हो चले हैं। खेतो में पीली पीली सरसों की धानी चुनरिया बिछ गई है। इतने शोर में कौन सुनता कोयल की कुहुक? अलसुबह होने वाली खग और मोर की कुक अब किसे सुनाई देती है? ये सब तो आपके आगमन का सन्देश देने वाले दूत है लेकिन आजकल मुखिया की पूछ परख नही तो दूत की क्या बिसात? दूत तो अपना काम कर रहे है। वे पड़े लिखे नही, पर इतना समझते है कि तुम आ रहे हो। बस हम ही उनके काम पर कान नही धर रहे हैं। कानो में अब प्रकृति का कलरव गान कहा? जमानेभर का क्लेष भरा पड़ा है तो कोयल कहा और कब कुहकी..?? इसकी खबर कैसे और किसे लगे?
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ऋतुराज बसंत। आपके आने से पहले बसंत बहार आती हैं। नवमाधुरी सी छा जाती है। छा गई है इस बार भी। ठाकुरजी के आंगन में। आपकी किसी ने अगवानी की हो या न की हो लेकिन पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान श्री गोवर्धनधर ने तो आपका स्वागत किया है। रंग गुलाल के संग। चोवा, चंदन, अबीर के संग। अपने मस्तक पर आम्र मंजरी धारण कर। समूचे वल्लभकुल परिवार ने बसंत का पूजन किया। जल से परिपुरत कलश में पीली सरसों को बसंत स्वरूप स्थापित किया हैं।
होरी के रसिया कुंवर कन्हैया के लिये तो आप रंगों का ऐसा संसार लेकर आते हो कि एक दो नही, पूरे 40 दिन तक प्रभु के आंगन में रंग गुलाल अबीर के गुबार उड़ते हैं। चंग, ढप, झालर, झाँझ, किन्नरी, पखावज के स्वर लहरियों के संग राग बसंत के स्वर गूंजेंगे। इसकी शुरुआत हो चुकी है ऋतुराज। आपको तो पता ही है कि कल के सबसे ठंडे दिन में, कोहरे-कुहांसे में, सर्द हवाओ में, भगवान भुवन भास्कर की गैर मौजूदगी में आपका कहा भव्य स्वागत हुआ? आपने देखा न कल कि आपके कद्रदान कम नही। इसलिए अफ़सोस नही करना कि आया और किसी ने पूछा तक नही। बस तो है ऋतुराज। आप आये है तो इत्मीनान से विराजिए। आपका प्रिय साथी फागुण भी आने वाला है। आपसे फिर बात करने आऊंगा। जब आप महसूस होयँगे। तन को। मन को। देह को ।