अनिल त्रिवेदी
साठ से सत्तर के दशक में देश की लोकसभा में पहुंचे, भारत की आजादी तथा समाजवादी आन्दोलन के नेता डा.राममनोहर लोहिया ने लोक सभा में सवाल उठाया था, भारत का गरीब साढ़े तीन आने रोज पर जिन्दा है।बड़ा हल्ला मचा था तत्कालीन सरकार ने तत्काल आंकड़ों का जोड़ बाकी गुणाभाग करके डा.लोहिया और देश को लोकसभा में जानकारी देते हुए बताया की यह सत्य नहीं है।भारत का गरीब साढ़े तीन आने नहीं, चौदह आने रोज पर जिन्दा है।इस बहस और सरकार के जवाब को साठ साल हो गये। डा.लोहिया ने जब यह सवाल उठाया था तब भारत का लोकतंत्र वयस्क भी नहीं हुआ था।आजादी पाये देश को सोलह सत्रह साल ही हुए थे।आजाद भारत में सरकारें और आगेवान आबादी गरीबों को सम्पन्न बनाने में भले ही अभी तक सफल नहीं हुई हो पर आजाद भारत में अपनी आर्थिक सम्पन्नता का ढोल पीटते रहने में लगातार व्यस्त रहती है।सम्पन्न और गरीब की जिन्दगी के स्तर में अतिशयोक्ति न भी करें, तो भी भारत में आकाश पाताल का भेद तो है ही!इस भेद के अनुपात और मात्रा को समझना और दोनो तरह के लोगों को सुख दुख में सहभागी बनाना यह आज के भारत में खुली चुनोती है।
आज हम सब महामारी के मकड़जाल में उलझ गये है। भारत के लोगों को लम्बे समय के लाकडाऊन के चलते सरकारी मदद ही जीवन जीने का तात्कालिक और आपतकालीन सहारा है।क्योंकि कारपोरेट बाजार तो भारत की गरीब आबादी को कोई राहत या राशन की मदद करता दिख नहीं रहा है ।उनकी दृष्टि तो एक अरब पैंतीस करोड़ उपभोक्ताओं से व्यापार करने की है और व्यापार में राहत ?व्यापार में राहत नहीं थोड़ी बहुत दान दक्षिणा का रिवाज़ होता है।विश्वव्यापार के इस काल खण्ड़ में तो यह रिवाज भी नहीं है।तो गरीब आबादी के पास न तो काम करने का कोई अवसर है और न ही रोजी रोटी की लगातार उपलब्धता ।इसीलिये सरकार ने गरीबी रेखा से नीचे की आबादी के लिये राहत पैकेज की घोषणा स्वयं राष्ट्र के नाम विशेष संदेश के द्वारा अभी हाल में ही की।आंकड़े तो आंकड़े ही होते हैं।आंकड़ो से सरकार और बाजार की रफ्तार भले ही चलती हो पर जिन्दगी की जरूरतें पूरी नहीं हो पाती।
हम गरीब हो या सम्पन्न मूलत:हम है तो मनुष्य, हर मनुष्य को सामान्यकाल मे भी और आपातकाल मे भी दोनों समय कम से कम जीने लायक भोजन तो आवश्यक है। फिर भी हमारी जीवन शैली और जीवन दृष्टि यह तय करती है कि सम्पन्नता विपन्नता की अहमियत हमारे दिल दिमाग में किस रूप में रची बसी है।आज आर्थिक विषमता अपने चरम पर है।कुछ लोगों की ही सम्पन्नता भारत की आज़ादी और संविधान का लक्ष्य नहीं हैं।हर भारतीय नागरिक को गरिमामय रुप से जीवन जीने का मूलभूत अधिकार ऐसे ही अपने आप जमीन पर नहीं उतरता। यह हम सबने अच्छे से समझना चाहिये।अभी पिछले माह ही देश के चुने हुए मुखिया ने देश के नाम संदेश में देश के विपन्नों याने गरीबी रेखा से नीचे के नागरिको को महामारी के दौर मे आपातकालीन राहत देने की घोषणा करते हुए बताया की देश के अस्सी करोड़ लोगों को नवम्बर माह तक याने अगले पांच माह तक प्रति माह पांच किलो गेहूं या चावल और एक किलो चना ,बिना कीमत लिये दिया जावेगा।
एक किलो गेहूं का दाम बीस रुपये और एक किलो चने का दाम पचास रूपया माने तो इसका अर्थ यह है कि देश के गरीबी रेखा से नीचे के लोगों को एक सौ पचास रूपये प्रतिमाह की राहत राशन सामग्री जीवन निर्वाह हेतु मिलेगी। यह भारत के गरीबों का जीवन कौशल है कि वे इस राहत सामग्री में जी पा रहे है ।शायद कुपोषण भूख,बेरोजगारी और लाचारी ही उनकी विपन्न जिन्दगी का दूसरा नाम है।एक माह में प्राय: तीस दिन होते है । पांच रुपये रोज याने सुबह और शाम की भूख भारत के विपन्नों को ढाई रूपये की भोजन सामग्री में शांत करना होगी।पांच किलो गेहूं या चावल को रुपये के बजाय वजन या मात्रा से समझे तो पांच माह तक भारत के गरीबी रेखा से नीचे के नागरिको के सामने सौ ग्राम से भी कम गेहूं या चावल सुबह और इतना ही शाम को भी खाकर ,पांच माह तक जीवन निर्वाह करना महामारी काल में करते रहने की चुनौती है। भारत के गरीब नागरिक के सामने अल्प भोजन सामग्री में जीवन निर्वाह कर महामारी से मुकाबले लायक ईम्युनिटी को भी अपने अंदर बनाये रखने की भी बड़ी चुनौती हैं।
आंकड़ो का मायाजाल बहुत भयावह होता है।जैसे यह डेढ़ सौ रूपये की राहत सामग्री के आंकड़ो की घोषणा में कहा गया अस्सी करोड़ विपन्न लोगों को जुलाई से नवम्बर याने पांच माह तक राशन देने पर एक सौ बीस अरब रुपये प्रतिमाह के हिसाब से छ:सौ अरब रूपये की राशि खर्च होगी।इस तरह एक सौ पचास रूपया जो ऊंट के मुंह में जीरे जैसी राशि है ।जब वह प्रधानमंत्री की घोषणा में छ:सौ अरब की विशाल राशि के रूप में दिखाई देती है।तो सबको लगता हैं कितनी बड़ी राहत की घोषणा हैं।इसी राहत की छ:सौ अरब की राशि को हम जब अस्सी करोड़ भारत के गरीब नागरिको के जीवन में आयी महामारी के कठिन समय में जब गरीब भारतीयों के पास महज जिन्दा रहने के लिये पहुंचेगी।तो छ:सौ अरब का विशाल अंक डेढ़ सौ रूपये प्रतिमाह से सिकुड़ कर पांच रूपये रोज याने ढाई रूपये सुबह और ढाई रूपये शाम प्रतिव्यक्ति जीवन निर्वाह की क्षुद्रतम राशि का स्वरूप धारण कर लेगा।
आज और कल जो बीत गया उसमें हम कोई मूलभूत अंतर देख पा रहे हैं या नहीं ?यही भारत के लोकतंत्र काअपने सम्पन्न विपन्न नागरिकों और लोकतांत्रिक राजनीति से सीधा सवाल है कि सोलह सत्रह साल के लोकतंत्र में एक अकेला सांसद डा.लोहिया देश की सरकार से जब सवाल करता था कि देश में गरीब लोगों की जिन्दगी में बेहतरी कैसे आवे?तो उसको लेकर बुनियादी और लम्बी बहस चलती थी।आज तिहत्तर साल के लम्बे लोकतांत्रिक अनुभव के बाद हम, हमारे सारे संस्थान ,सामाजिक राजनैतिक और गैर राजनैतिक ताकतें गरीबी व कुपोषण के सवाल पर बुरी तरह सन्नाटे में है।
बेहतर व ताकतवर देश बनाने के संवैधानिक दायित्व निभानेवाले प्रधानमंत्री अपने संबोधन में सन् साठ का वही आंकड़ा बता रहे है ,जो डा.लोहिया ने सरकार को आईना बताते हुए देश की संसद मे साठ साल पहले बताया था।सन साठ के चौदह आने और दो हजार बीस के पांच रूपये रोज में गरीब आदमी का दोनों समय का केवल खाना दो सौ ग्राम राशन से खा पाना यह बताता है कि हम सन साठ से आगे नहीं बढ़े बहुत पीछे पंहूंच रहे हैं।गरीबों को जीवनावश्यक राशन या खाना देने या गरीबों को भोजन जुटाने के कौशल में आत्मनिर्भर बनाने के मामले मे पिछड़ गये है।तबके प्रधानमंत्री साढे तीन आना सुन चौंकेऔर झल्लाये भी थे और आजके प्रधानमंत्री जी देश को पांच रूपये की राशि में दो सौ ग्राम अनाज में दोनों समय खाकर गरीबों को जीवन में राहत देने की बात बड़ी उपलब्धि की तरह राष्ट्र के नाम संदेश में दे चुके हैं।
आज गरीबो के भोजन और कुपोषण का यह आंकड़ा बहस और राजनैतिक चर्चा तो छोड़िये निजी चर्चा में ही नहीं है।प्रधानमंत्री की घोषणा की छ:सौअरब की अतिविशाल लगने वाली आकर्षक राशि गरीबी रेखा के नीचे वाले आदमी के हाथों में पहुंच एक दिन दोनों समय का भोजन खा पाने के लिये एकाएक कितनी अधिक नाकाफी या क्षुद्रतम हो जाती हैं।आबादी केअनुपात और भूख की मात्रा को समझे बिना केवल आंकड़े ही भूख मिटाते तो शायद गरीबों को भूख ही नहीं लगती।हम सबके जीवन को गहराई से प्रभावित करनेवाले इस ज्वलन्त विषय पर हम सबका भौंचक मौन ओर अचर्चा हमारे लोकतांत्रिक,सामाजिक और राजनैतिक जीवन के कुपोषण व असंवेदनशीलता का परिचायक तो नहीं है?