शिवराज-कमलनाथ ने पेश की नई ‘नजीर’

Mohit
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इस समय जब कोरोना विकराल रूप में है, सरकारी और निजी तौर पर किए जा रहे प्रयास नाकाफी साबित हो रहे हैं, मरीजों को न बेड मिल रहे, न आक्सीजन, वेंटीलेटर और जरूरी दवाएं, तब भी पक्ष-विपक्ष के कुछ नेता एक दूसरे पर हमलावर हैं। ऐसे में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान एवं प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ ने इन नेताओं के लिए एक ‘नजीर’ पेश की है। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि शिवराज ने कमलनाथ को फोन लगाया या कमलनाथ ने शिवराज को, खास यह है कि दोनों के बीच बात हुुई। मुख्यमंत्री ने कोरोना से निबटने के लिए किए जा रहे प्रयासों की जानकारी दी, सुझाव और सहयोग मांगा। कमलनाथ ने भी बड़े दिल का परिचय देते हुए शिवराज को उनके हर कदम पर साथ खड़े होने का भरोसा दिलाया। सवाल यह है कि क्या देश और विभिन्न प्रदेशों के नेता कुछ समय के लिए दलगत राजनीति से ऊपर उठकर इस नजीर से सबक लेंगें? प्रदेश में ही भाजपा और कांग्रेस के कुछ नेता सुबह से एक दूसरे के विरोध में बयान जारी कर अपनी नेतागिरी चमकाने की शुरुआत करते हैं, क्या ये यह छोड़ कोरोना महामारी से लड़ने में अपनी पूरी ऊर्जा का इस्तेमाल नहीं कर सकते? क्या शिवराज एवं कमलनाथ को इन बयानवीर नेताओं की जुबान पर भी ताला जड़ने का प्रयास नहीं करना चाहिए?

क्या मौजूदा हालात में मलैया पर एक्शन संभव….

– प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वीडी शर्मा से मुलाकात और दमोह में हार पर अपना पक्ष रखने के बाद से वरिष्ठ नेता जयंत मलैया फिर चर्चा में हैं। मलैया ने उन्हें मिले नोटिस का जवाब लिखित में दिया या मौखिक, यह स्पष्ट नहीं है लेकिन अपनी बात रखी यह तय है। निलंबित किए गए उनके बेटे सिद्धार्थ मलैया बाद में अपना स्पष्टीकरण देंगे। सवाल यह है कि ऐसे वक्त जब दमोह में हार के बाद मैसेज चला गया है कि मतदाताओं का भाजपा से मोहभंग हो रहा है। कोरोना से निबटने में सरकारी प्रयासों से वह संतुष्ट नहीं है। पूरी ताकत झोंकने के बावजूद पार्टी दमोह उप चुनाव नहीं जीत सकी। मलैया एवं उनके बेटे पर कार्रवाई का अजय विश्नोई, हिम्मत कोठारी एवं कुसुम मेहदेले जैसे वरिष्ठ नेता विरोध कर रहे हैं, ऐसे में क्या भाजपा नेतृत्व मलैया पर एक्शन लेने की हिम्मत जुटा पाएगा। भाजपा नेतृत्व यह भी जानता है कि विधानसभा चुनाव में जनता ने पार्टी को सत्ता से बाहर कर दिया था, किसी तरह जोड़तोड़ अथवा खरीद-फरोख्त के बाद वह फिर सत्ता तक पहुंची है। क्या पार्टी ऐसे में बागियों की वजह से भाजपा के समर्पित नेताओं में पल रहे असंतोष को झेलने की स्थिति में होगी? मुझे तो नहीं लगता। इसलिए मलैया और उनके बेटे पर एक्शन टल सकता है!
स्वास्थ्य मंत्री ने कराई सबसे ज्यादा किरकिरी….
– कोरोना से लड़ने में कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थक मंत्रियों की स्थिति मिली-जुली है। जैसे, सिंधिया खुद पूरे सीन से गायब हैं और बीच-बीच में पत्रों या बयानों के जरिए अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। स्वास्थ्य मंत्री प्रभुराम चौधरी सिंधिया समर्थक हैं लेकिन वे उतने सक्रिय नहीं, कुछ बयानों से अपनी किरकिरी जरूर करा चुके हैं। जैसे, उन्होंने कहा कि प्रदेश में आक्सीजन की कोई कमी नहीं है और उनके बयान के बाद आक्सीजन की कमी से दर्जनों मौतें हो गर्इं। चौधरी की तुलना में चिकित्सा शिक्षा मंत्री विश्वास सारंग हर स्तर पर ज्यादा सक्रिय नजर आते हैं। इससे चौधरी के साथ सिंधिया की भी किरकिरी हो रही है। सिंधिया समर्थक कुछ ऐसे मंत्री भी हैं, जिनके गुमशुदा होने के फोटो चस्पा किए जा रहे हैं। दूसरी तरफ सिंधिया के कुछ ऐसे समर्थक भी हैं जो कोरोना से लड़ने में लोगों की दिन-रात मदद कर रहे हैं। इनमें गोविंद सिंह राजपूत, तुलसी सिलावट एवं प्रद्युम्न सिंह तोमर जैसे मंत्रियों की गिनती की जा सकती है। सिंधिया और उनके समर्थक महामारी के इस दौर में सक्रियता से प्रदेश में अपनी अलग छवि बना सकते थे पर न जाने क्यों ऐसे समय भी इनमें से कुछ सड़क पर उतरने से कतरा गए। एक ऑटो चालक की बेटी के वायरल वीडियो ने तो सिंधिया समर्थक मंत्री महेंद्र सिसोदिया की कलई खोलकर रख दी।

सोनिया की नजर से भी उतर गए प्रदेश के नेता!….

– चर्चा थी कि प्रदेश कांग्रेस के बड़े नेताओं कमलनाथ, दिग्विजय सिंह एवं सुरेश पचौरी आदि से राहुल गांधी नाराज हैं लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी नहीं। सोनिया के ही कारण कमलनाथ अब तक प्रदेश अध्यक्ष एवं नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी पर जमे हैं और दिग्विजय सिंह को राज्यसभा का टिकट मिला। लेकिन हाल में पार्टी नेतृत्व द्वारा लिए गए कुछ निर्णयों से लगता है कि ये नेता सोनिया गांधी की नजरों से भी उतर गए हैं। पहले इन्हें पांच राज्यों के चुनाव में नहीं पूछा गया और अब कोेरोना को लेकर जिस टास्क फोर्स का गठन हुआ, उसमें भी इन्हें जगह नहीं मिली। दूसरी तरफ नेतृत्व की कार्यशैली की मुखालफत करने वाले जी-23 में शामिल गुलाम नबी आजाद जैसे नेताओं को स्थान मिल गया। अलबत्ता, विवेक तन्खा के काम की तारीफ जरूर हुई। तन्खा भी जी-23 टीम के सदस्य हैं। इतना ही नहीं, अरुण यादव, जीतू पटवारी जैसे राहुल समर्थक नेताओं की भी पूछपरख नहीं हुई। इससे भाजपा को चुटकी लेने का अवसर मिल गया। तो क्या सच में कांग्रेस आलाकमान प्रदेश के नेताओं से इतना नाराज है? हालांकि नाराजगी स्वाभाविक है, आखिर इन नेताओं की बदौलत ही तो 15 साल बाद प्रदेश की सत्ता में आई पार्टी फिर सड़क पर है।

तोमर ने फिर मनवाया चुनावी प्रबंधन का लोहा….

– इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि जिस प्रदेश में पार्टी पहले से सत्ता में होती है, वहां एंटी इन्कम्बेंसी का असर होता है। ऐसे राज्यों में पार्टी का पुन: सत्ता में आना आसान नहीं होता। असम भी ऐसा राज्य था, जहां भाजपा सत्ता में थी और एनआरसी जैसे मुद्दों की वजह से कांग्रेस सरकार में वापसी का सपना देख रही थी। ऐसी चर्चाओं के बीच केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को असम में चुनाव प्रबंधन की कमान सौंपी गई। तोमर पहले भी कई बार खुद को साबित कर चुके थे। भाजपा नेतृत्व ने पहले उन्हें हरियाणा का प्रभारी बनाया था, चुनाव बाद वहां भाजपा की सरकार है। गुजरात में वे सह प्रभारी की भूमिका में थे। उनके पास जिस क्षेत्र की जवाबदारी थी, वे पार्टी के लिए कठिन जिले थे लेकिन तोमर की रणनीति की बदौलत पार्टी ने इन क्षेत्रों में सबसे बड़ी जीत दर्ज की और गुजरात में पूर्ण बहुमत की सरकार बन सकी। मप्र में तोमर के दो बार प्रदेश अध्यक्ष रहते पार्टी की सत्ता में वापसी हुई। वे उप्र में भी प्रभारी महासचिव थे। इस दौरान पहली बार 11 नगर निगमों में पार्टी जीती और कुछ समय बाद हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी को स्पष्ट जनादेश मिला। साफ है कि तोमर अपने चुनावी व रणनीतिक कौशल का लोहा लगातार मनवा रहे हैं। वे मोदी-शाह की पसंद बने हुए हैं। तो क्या तोमर कैलाश विजयवर्गीय पर भी भारी पड़ गए। पश्चिम बंगाल में हार और असम में फिर जीत से तो यही लगता है।

दिनेश निगम ‘त्यागी’