दिलीप गुप्ते
इस बार मेरे सामने संगीतकार सचिन देव बर्मन पर लिखी गई प्रामाणिक पुस्तक है. पुस्तक में लेखक द्वय अनिरुद्ध भट्टाचार्य और बालाजी विट्टल ने पुस्तक में संगीतकार के सिर्फ फ़िल्मी पक्ष पर ही प्रकाश नहीं। डाला, बल्कि उनके शास्त्रीय और लोक संगीत के योगदान पर भी प्रकाश डाला है. इसे २०११ का फिल्म विधा पर सर्वश्रेष्ठ पुस्तक का पुरस्कार भी मिला है. इसकी प्रस्तावना पंडित हरिप्रसाद चौरसिया ने लिखी है, जो एसडी बर्मन के ऑर्केस्ट्रा में थे.
पुस्तक कुमार शचींद्र चंद्र देबबर्मन कर्ता से शुरू होती है और बर्मन दा तक पहुँचती है, जिसमें संगीतकार के बचपन के बारे में बताया गया है. वे पहले महायुद्ध की विभीषिका में भी सुरों की खोज में भटकते रहते थे. उनके इस पागलपन के कारण उन्हें डाँटा जाता था. वे त्रिपुरा राजघराने के पहले स्नातक थे. उन्होंने बादल खां और भीष्मदेव चटर्जी के अलावा केश्टो बाबू यानी कृष्ण चंद्र दे से भी संगीत सीखा. वे गायन के कार्यक्रम देने लगे. उनकी इच्छा थी कि वे न्यू थियेटर्स की किसी फिल्म में संगीत दें.
लेकिन आरसी बोराल और पंकज मल्लिक के होते यह संभव नहीं था. उन्हें एचएमवी ने ऑडीशन में रिजेक्ट कर दिया. एचएमवी ने इसके पहले कुंदन लाल सहगल और जूथिका राय को भी रिजेक्ट किया था. हिंदुस्तान म्यूज़िकल प्रॉडक्ट्स ने बर्मन से अनुबंध कर लिया. अपने पिता की मृत्यु के बाद बर्मन कभी त्रिपुरा नहीं गए और न ही वहाँ से आर्थिक मदद ली. कलकत्ता में ही उन्होंने मुफ़्त में मिले कमरे में संगीत साधना शुरू की. लेकिन रियाज़ के कारण कमरा छोड़ना पड़ा. फ़िल्मों में अपनी अशुद्ध हिंदी और पूर्वी बंगाली लहजे के कारण फ़िल्मों में नहीं गा पाए. बांग्ला फिल्म “साधना” में राजघराने के इस सदस्य को भिखारी की भूमिका मिली, लेकिन गाने को नहीं मिला.
१९४३ में वे फ़िल्मिस्तान के शशधर मुखर्जी के बुलाने पर बंबई यानी मुंबई पहुँचे . उन्हें बर्मन की जगह वर्मन कहा जाने लगा. फिल्म “मशाल” के टाइटल में उन्हें कुमार सचिन देव वर्मन लिखा गया. इस फिल्म में किशोर कुमार ने गीता दत्त की अनुपस्थिति में महिला स्वर में एक गीत गाया. बाद की कुछ फ़िल्मे वर्मन को नाम नहीं दिला सकीं. उन्हें तलाश थी एक हिट फिल्म की. उसका ज्यादा इंतज़ार नहीं करना पड़ा . नए गीतकार साहिर लुधियानवी के साथ उन्होंने “बाज़ी” से नई पारी खेली. क्लब सॉंग “तदबीर से अपनी तक़दीर बना ले” ने हिंदी फ़िल्मों में क्लब सॉंग को नया रास्ता दिखाया. इस गीत में “हे हे हे” नया प्रयोग था.
बर्मन भी अपने बंगालीपन से छुटकारा पा गए. “बाज़ी” में हर प्रांत की धुन थी. बर्मन पूर्वी बंगाल में ज्यादा लोकप्रिय हो रहे थे. जिन्ना ने वहाँ बंगाली भाषा पर रोक लगा रखी थी. बर्मन को बंबई में स्थापित होने में देर नहीं लगी. फिल्म ‘टैक्सी ड्राइवर’ ने उन्हें साल के बेस्ट संगीतकार का पुरस्कार दिलवाया. इसे मिले वोटों की संख्या दूसरे और तीसरे नंबर के संगीतकारों के संयुक्त वोटों से भी ज्यादा थी. बाद में इस क्लेयर पुरस्कार का नाम फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार कर दिया गया. तब इस श्रेणी में गीत की धुन को पुरस्कार दिया जाता था. गीत था”जाएँ तो जाएँ कहाँ”. इसकी धुन रवीन्द्र नाथ के गीत “हे खोनिकेर अतिथि” से मिलती जुलती है.
लेकिन फ़िल्मी गीत निराशा का है, जबकि बंगाली गीत दुखी मन की पुकार वाला नहीं था. बंगाली धुनों को अपनी तरह से पेश करना बर्मन की कल्पनाशीलता बताता है. उन्होंने रवींद्र संगीत की कई धुनों को कई बार अपने ढाँचे में ढाला. वे दृश्य की लंबाई और जिस पात्र पर गीत फ़िल्माया जाएगा उस हिसाब से धुन बनाते थे. वे पहले सिने संगीतकार थे जिन्हें संगीत नाटक अकादमी सम्मान मिला. लेखकों ने अवॉर्ड की धाँधलियों पर साफ़ साफ़ लिखा है कि कैसे वे तय किये जाते हैं. उन्होंने फिल्म ‘गाइड’ के संगीत को अवॉर्ड न दिये जाने के पीछे की साज़िश का वर्णन किया है. उन्होंने मराठी लेखिका अनिता पाध्ये की विजय आनंद पर लिखी किताब ‘एक होता गोल्डी’ के हवाले से लिखा कि अवॉर्ड देने वाली संस्था ने कैसे गोल्डी से अवॉर्ड के लिये रूपये माँगे थे.
जब ‘गाइड’ को किसी भी कैटेगरी में नामित नहीं किया गया तो विजय आनंद ने फ़ोन पर यह बात फैलाई. तब जा कर अवॉर्ड देने वालों ने इस फिल्म को सात अवॉर्ड देने की घोषणा की. संगीत को फिर भी नहीं लिया गया. इस पर विजय आनंद ने कहा कि ‘गाइड’ संगीत अवॉर्ड की क़ैद से कहीं ऊपर है. इसके बाद फिल्म संगीत की दुनिया में दो गुट बन गए. स्थानीय और बाहरी. या यूँ कहिये कि नॉन बंगाली विरूद्ध बंगाली संगीतकार. सलिल चौधुरी को वैसे भी बंगाल भाता था इसलिये उन पर ज्यादा असर नहीं हुआ. बर्मन पिता-पुत्र के पक्ष में बंगाली निर्माता और आनंद बंधु थे, इसलिये उन्हें नहीं हटाया जा सकता था. शिकार बने हेमंत कुमार. नफ़रत यहाँ तक बढ़ी कि दिल्ली में बिहार सूखा पीड़ितों की सहायता के लिये हुए कार्यक्रम में बर्मन पिता पुत्र को नहीं लिया गया. और तो और विवादास्पद रूप से अवॉर्ड पाने वाली हल्के दर्जे की गायिका को विशेष रूप से सम्मानित किया गया.
इस षड्यंत्र में सचिन देव के सहायक, उनके ऑर्केस्ट्रा में काम करने वाले और उनके चरण छूने वाले लोग भी थे. रेडियो पर पैसे दे कर अपने गाने बजवाने का चलन गति पकड़ने लगा. बाद में ‘आराधना’ के साथ भी यही हुआ. लेकिन इन बातों से सचिन देव की रचनात्मकता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. तेरे मेरे सपने, शर्मीली, अभिमान, ये गुलिस्ताँ हमारा ने बर्मन का क्लास बता दिया. लोकधुनों और शास्त्रीय संगीत पर आधारित रचनाओं पर फ़िल्मी संगीत देने पर कुछ लोगों ने आपत्ति उठाई थी, लेकिन उनमें अपनी छाप छोड़ने के कारण यह विवाद वहीं समाप्त हो गया. बर्मन जानते थे कि यदि वे कोई धुन सीधे सीधे उठाएँगे तो वह चोरी कहलाएगी.
इसलिये वे बंगाली धुनों को हिंदी जामा पहनाया करते थे. वे शॉट के हिसाब से धुन बनाया करते थे. लेखक द्वय ने फिल्म ‘इंसान जाग उठा’ के गीत “जानूँ जानूँ रे” की धुन अभिनेत्रियों के विशाल मशीन की दूरी माप कर धुन बनाने के लिये दो चप्पलों को दो किनारे बाँध कर एक सिरे से दूसरे सिरे पर पहुँचने के समय के हिसाब से चूड़ियों की खनक का इस्तेमाल किया था.
अब बर्मन स्कूल ऑफ़ म्यूज़िक नहीं रहा. वैसे तो बेटे राहुल ने उनकी परंपरा आगे बढ़ाई , लेकिन वे ही नहीं रहे. मिठास के मामले में कल्याणजी आनंदजी बाद में नहीं चले. लोकधुनों के जानकार रवींद्र जैन को शहरी संगीत के सामने अपने क़दम पीछे लेने पड़े. बर्मन घराने की परंपरा आगे बढ़ाने वाला कोई नज़र नहीं आता. सचिन देव बर्मन के साथ त्रासदी यह रही कि इतनी इज़्ज़त पाने के बावजूद वे न तो महाराष्ट्र के माने गए और न ही बंगाल के.