अब नही गूंजते फिजाओं में संझा बाई के सुमधुर गीत, संझा कब आई-कब बिदा की बेला आई, अब किसे खबर

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नितिनमोहन शर्मा। संझा…तू वाकई थारा घर जा। यहां अब किसे समय की तुम कब आई? क्यो आई? और अब जा भी रही? कोई रोक नही रहा तुमको? रोकेगा कैसे? जब तुम्हारी अगवानी ही नही की..आने का अभिनंदन किया होता तो बिदाई की बेला याद रहती ?

तुम कब आई? किसी को खबर ही नही। फुर्सत ही नही की तुम्हारे आगमन की रुनक झुनक सुन सके। जमानेभर का शोर है कानो में सिवाय तुम्हारे गीतों के। गूंजे होंगे फिजाओं में तुम्हारी अठखेलियाँ के गीत। सखी सहेलियों संग मंगल गान। हुई होगी मीठे मधुर गीतों संग हंसी ठिठोली। गीतों में गूंथे ससुराल के खट्टे मीठे अनुभव लयबद्ध गूंजे होंगे किसे पता??

संझा बाई का लाड़ा जी लुगड़ो लाया जाड़ा जी गुंजा होगा किसी ने तो गुनगुनाया होगा? कही से सामुहिक स्वर फूटे होंगे…पर कान किसने धरे..?? कान में तो अब हैंड फ्री ठूंसा हुआ है..ओर दिमाग में “तेनु काला चश्मा जचदा है-जँचदा है तेनु गोरे मुखडे पे”..!! छोटी सी गाड़ी लुढ़कती जाये.. लुढ़कती जाय…जिमे बैठी संझा बाई-संझा बाई….!! ये गीत फर्राटे मारते वाहनों की भीड़ में अब कोई नही सुनने वाला। सबको जल्दी है। एक जनम में, सात जनम के बंदोबस्त की। …चाँद गयो गुजरात… हिरनी का बड़ा बड़ा दांत…थारा छोरा छोरी डरपेगा कि डरपेगा….!! इस गीत से अब किसे सरोकार?? वर्चुअल दुनिया मे सब समझदार हो गए। बच्चे भी अब एकाकीपन चाहते है। डरते नही।

…सोलह दिन का ये श्रंगारीत उत्सव, अब किसी को भी सजाता सँवारता नही। संझा अब तुम्हारी सखियां भी लगता है गुम हो गई है। तुम जिनसे मिलने ससुराल से दौड़ी दौड़ी चली आई…वे तो सब सखी सहेलियां मशरूफ है अपना कैरियर गढ़ने में। उनके पास फेसबुक इंस्टाग्राम ट्विटर वाट्सएप के लिए समय है…आपके लिए नही। उन्हें अब आभासी दुनिया लुभाती है…सांस्कृतिक विरासत नही। ये सब बेहद ” हाइजेनिक” भी हो गई है। वे मिट्टी से ही परहेज़ करती है। फिर गोबर में कैसे हाथ सान लेंगी? तुम्हारा सौंदर्य तो गोबर की गुथन से ही तो निखरता है न? लेकिन ये तो सौंदर्य प्रसाधन वाली पीढ़ी है। इन्होंने तो स्वयम की सुंदरता, पराए हाथों सौप रखी है..महंगे पार्लर के जरिये। ये तुम्हे कहा से श्रंगारित करेंगी? सौंदर्य प्रसाधनों के जरिये कृतिम सुंदरता ओढ़ने वाली ये नवयोवनाये मिटी गोबर से तुम्हारी छवि नही उकेर सकती।

…ओर फिर गोबर कहा से लाएंगी ये? गोवंश कहा है शहर में? वो तो शहर से बेदखल कर दिया गया है। दूर जंगलों में या फिर गोशाला के नाम पर बने सरकारी कोंदवाडे में। गोबर तो ढूंढे नही मिलता अब। न वो फूल पत्तियां…जिनसे तुम्हारा श्रंगार होता है। फूल चुनने की परंपरा ही खत्म हो गई। इष्ट के लिए भी अब तो नगद खरीदी का दौर है। कोई फूल चुनकर माला नही गूंथता अब। ऐसे में तुम्हे गोबर मिट्टी से कैसे आकार देते? और कहा पर देते? अब तो वो दरों दीवार भी नही बची, जहा पर गोबर का लिपन कर ” संझा कोट” बनाया जा सके। दीवारें अब चुने खड़िया की कहा रही। प्लास्टिक पेंट के साथ वे भी आधुनिक हो गई है। पराई हो गई है। अब उन्हें भी अपने ऊपर गोबर की कलाकृति नही भाती। वे चिकनी चुपड़ी बनी रहना चाहती है आजीवन।

…लेकिन संझा। तुम निराश मत होना। उदास मत होना। न हताश। ज्यादा दूर नही जाना है तुम्हे। जहा तुम्हारी कोई पूछ परख नही, उसी के बगल के गांव में-पीपल की छांव में। देखो..सुनो ध्यान से। तुम्हारे गीत गूंज रहे है। मंगलगान गाये जा रहे है। तुम्हारी अगवानी की जा रही है। स्वागत वंदन अभिनंदन किया जा रहा है। तुम्हारे लिए आंगन लीपे गए है। गेरू खड़िया के मांडने मांडे गए है। गोबर मिट्टी से आपको श्रंगारित किया गया है। नवयोवनाये उल्लासित है। नववधुए उत्साह से है। तरुणियों के सामूहिक स्वर तुम्हारे गीत गॉ रहे है। शाम ढलते ही गोबर लाओ , दीवार लीपो , कोट -कंगूरे , पालकी , पलना , सीढ़ी , चांद-सूरज, फूल-पत्ते, घोड़ा – बारात ,गनपति..सब उकेर दिए गए। गुलबास, कनेर, गुड़हल के फूलों से सजाए भी।

तो संझा। ये शहर निष्ठुर हो गए है। यहां लोक उत्सव का स्पंदन नही होता। “नेतागिरी” के लिए एक दिन, एक दीवार पर तुम्हे सजा सँवारकर राजनीति तो की जा रही है लेकिन अब यहां तुम्हारे आने जाने से किसी को फर्क भले ही नही पड़ता। यहाँ तुम्हारे “सोलह दिन” भले ही बिसरा दिए गए है। फिर भी कुछ बच्चियों में कागज की बनी आकृतियों से ही सही, तुम्हे पूजा है। छोटी बस्ती में। तंग इलाके में तुम थी मौजूद। बड़े शहर। बड़ी कालोनी मोहल्लों। ऊंची अट्टालिकाओं में तुम्हारा उत्सव भले ही “आउट डेटेड” हो गया हो। लेकिन गांव अभी जिंदा है।

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ओर जब तक गांव जिंदा है।तब तक भारत जिंदा है। भारत की आत्मा जिंदा है। तुम्हारा उत्सव जिंदा है।
इसलिए तुम आते रहना..
हम कितने ही उलाहने दे..
कि… संझा तू थारे घर जा…!!
तू तो आती री जे….!!