संघ ने किया शुद्धिकरण, बता दिया कि राजनीति में कचरा नहीं चलेगा, इंदौर से हुई शुरुआत

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सुरेंद्र बंसल

आर एस एस ने इंदौर की चिंता की और जो नाम आगे बढ़ाएं तीनों ही अपने मायने में बेहतर और विशिष्ट रहे। फिर चाहे डॉ निशांत खरे हो, पुष्यमित्र भार्गव या सचिन शर्मा हो। ये तीनों अपनी अपनी जगह पर अपने व्यक्तित्व और कृतित्व के लिहाज से विशिष्टता लिए हुए हैं। ऐसे नाम आना राजनीतिक शुचिता की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है। जब इतने बेहतर नाम की पैनल संघ ने आगे बढ़ाई थी तो उसे कौन चुनौती दे रहा था और क्यों दे रहा था? इन नामों के टक्कर में कोई ऐसे नाम क्यों नहीं आ रहे थे जो इनको विलोपित कर सके।

चयनित प्रत्याशी पुष्यमित्र भार्गव का बायो डाटा देखकर उन्हें कौन चुनौती दे सकता था, सीधे शब्दों में पढ़ाई-लिखाई, समझदारी, सोच-विचार,संस्कार के साथ सांस्कृतिक आचार जिसमें निहित हो उसे कौन नजरंदाज कर सकता था लेकिन यह सब हुआ, क्यों हुआ इस पर भी विचार जरूरी है। कल जो इंदौर से स्थानीय भाजपा नेता भोपाल बुलाए गए थे उनमें अधिसंख्य वर्षों से जमे हुए ,बनते हुए और वरिष्ठ हो गए नेता थे । इनमें वे सभी थे जो राजनीति में सक्रिय कार्य करते हुए स्थापित हुए हैं। ऐसे वरिष्ठतम नेताओं को भोपाल बुलाना और फिर उन्हें तन मन से चुने हुए प्रत्याशी के लिए काम करने का व्हिप सुनने का क्या अर्थ है यह भी समझना जरूरी है।

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दरअसल इन नेताओं को यह लगने लगा था की सक्रिय कार्यकर्ता अब अनदेखे किए जायेंगे, छतरी से उतरे नवलोग क्रियाशील और मैदानी कर्ताओं के अवसरों को समाप्त कर देंगे । महापौर जैसे महत्वपूर्ण पद पर जब महत्वपूर्ण लोग आने लगेंगे तो आम कार्यकर्ता बिसार दिए जाएंगे। इसी मुद्दे पर तगड़ी लाबिंग और प्रचार दो दिनों तक चला। बीजेपी अंतर्विरोध से घिरी नजर आई और सब यह मन बनाकर भोपाल गए कि हम सब एक नाम पर सहमत होकर संगठन पर अपना दवाब और प्रभाव बनायेगें। लेकिन संघ की नीतियों और सोच पर कौन हावी हो सकता है जबकि इन्हीं नेताओं को संघ का हरदम साथ मिला हो।

लेकिन आम कर्ताओं को यह खतरा तो हो ही गया है कि उन्हें भीड़ वाली नेता गिरी, दादागिरी वाली नेतागिरी, दलाली वाली नेतागिरी, धंधे और धांधली वाली नेतागिरी आगे नहीं ले जा सकती। पुष्यमित्र का चयन आम कर्ताओं को अपनी कार्यशैली बदल देने का संकेत भी है और चेतावनी भी। राजनीति में शुचिता की कैसे स्थापना हो यह विचार सभी सक्रिय और पद के लालायित नेताओं को करना जरूरी हो गया है। पुष्यमित्र की जीत कैसे हो यह भी जिम्मेदारी लबादा ओढ़कर स्थानीय नेता लौटे हैं। सबको उम्मीद थी जैसे सांसद का चयन कर लिया गया था उसी तरह महापौर के लिए भी उनमें से ही किसी को चयनित करना पार्टी की मजबूरी बन जायेगी , दरअसल पार्टी ही मजबूर थी संघ की बात मानने को।

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हालांकि इसके लिए संघ को एक नाम खोना पड़ा पर दो और नाम साथ जुड़ गए । ऐसा होने से इन्हें खारिज करना मुश्किल हो गया। कोई शिक्षा से, संस्कार से, विचार से, लगन से, नीति से इन नामों पर पासंग में भी नहीं आ सका सिवाय जमीनियत पहचान के। इस एक ही बूते पर सब एकत्र हो गए लेकिन नहीं चल पाई किसी भी भीड़ नेतृत्व की जो संघ से भिड़ सके। सब चाहते थे पढ़ाई, लिखाई, आचार विचार, संस्कार और क्षमता को नजर अंदाज कर झंडे, डंडे, पिछलगाई, जिंदाबादी आवाज़ों के दमखम पर शहर का पहला नागरिक बनने का टिकट दे दिया जाए।

संघ ने शुद्धिकरण कर दिया और जता दिया राजनीति में अब कचरा नहीं चलेगा और इस स्वच्छता की शुरुआत स्वच्छ शहर इंदौर से कर दी गई। अब आपको अपना वजूद शिक्षा, संस्कार और नई सोच से स्थापित करना होगा तब अवसरों की योग्यता पर नामांकित हो सकोगे। पुष्यमित्र के लिए चुनाव में जीत पाना मुश्किल नहीं है लेकिन पहचान को बनाना बहुत मुश्किल है इसके लिए उन्हें इन्ही नेताओं और कार्यकर्ताओं की जरूरत होगी। गली ,मोहल्ले के अधिसंख्य मतदाता इन्हीं की सुनते हैं और उसी अनुसार चलते हैं। संघ को पूरे चुनाव में सक्रिय रहना ही पड़ेगा नहीं तो समतल मार्ग में रातोंरात खाईयां बनते देर नहीं लगेगी। यही भोपाल के व्हिप का शब्दार्थ है।