निरुक्त भार्गव
ऐसे समय जब कोरोना महादैत्य का संक्रमण और सूर्य देवता की तपिश लगातार परवान चढ़ रही है, उज्जैन का नाम रविवार को शर्मसार होने से बच गया!
जरा गौर फरमाइए: एक ऐसा निजी अस्पताल जो लगभग शहर के मध्य में स्थित है और एक पुल के नीचे छोटी-छोटी पगडंडियों में निर्मित है, वहां कोई 82 मरीज, जिनमें 62 कोरोना से पीड़ित हैं. जहाँ वृद्ध और महिलाएं उपचाररत हैं. अगर वहां अचानक आग लग जाए, तो क्या सूरत-ए-हाल होगा?
जी हाँ, रविवार दोपहर सब-कुछ इसी तरह का घटनाक्रम घटित हुआ…पाटीदार हॉस्पिटल में! हॉस्पिटल के दूसरे और तीसरे माले पर स्थित इमरजेंसी वार्ड सहित अन्य वार्ड में एकाएक आग भभक उठी! मरीज कुछ समझ पाते, इससे पहले ही उनके परिजन और अन्य लोगों में बेहद घबराहट मच गई और वे छत पर चढ़कर आस-पास की इमारतों में कूदने लग गए.
आग की गहराती लपटें, मरीजों की चीत्कार और अस्पताल में मौजूद प्राय: हर शख्स की बदहवासी जो मंजर पेश कर रही थी, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है! मगर इन सबके बीच जो जज़्बा हॉस्पिटल के स्टाफ, फायरब्रिगेड के स्टाफ, पुलिस के स्टाफ इत्यादि ने दिखाया उसको नज़रंदाज़ करना एक तरीके-से बड़ी भूल ही कहलाएगी!
इसे चमत्कार ही कहा जाएगा कि महज एक घंटे में आग की विकरालता और मौके की भयावहता को काबू कर लिया गया! इसमें शहर के अधिकांश हॉस्पिटल और नर्सिंग होम की भूमिका को भी दाद देनी होगी, जिन्होंने अविलम्ब अपनी-अपनी एम्बुलेंस के साथ-ही पेरा-मेडिकल स्टाफ को भी युद्ध के मोर्चे की तरह राहत और बचाव कार्य में लगा दिया.
मैं शर्त बद सकता हूँ कि इस तरह की स्थितियां अगर मध्य प्रदेश के किसी अन्य शहर में उत्पन्न होतीं तो माज़रा कुछ अलग होता! मैं इसलिए भी सशंकित हूँ कि अगर उज्जैन में ही कुछ ढिलाई बरती जाती, तो 10-20 मरीज अपने प्राणों से हाथ धो बैठते! कोरोना-काल में एक हॉस्पिटल के इस तरह नेस्तनाबूद हो जाने के बाद लोगों को क्या विकल्प मिलेगा?
लॉक डाउन के दौरान हुई इस घटना को लेकर लोगों के जेहन में अनेक सवाल उभर रहे हैं: जो अग्नि-काण्ड हुआ, उसका जिम्मेदार कौन? अगर भयंकर अफरा-तफरी के बीच किसी भी मरीज की जान चली जाती, तो आप किसके गिरेबान में हाथ डालते? मेडिकल क्षेत्र में क्रियाशील प्राइवेट प्लेयर्स की नकेल कसने के लिए मुक़र्रर एजेंसियां आखिर करती क्या हैं?…
मगर मेरा तो निष्कर्ष यही है कि अंत भला तो सब भला…