निर्मल उपाध्याय
इस कोरोना त्रासदी ने जैसे स्वाभाविक, और वैधानिक दृष्टि से संवेदनाओं पर अपने युग ने नए दृष्य और नए संस्कार, विचार उकेर दिए हैं ।घर में कोई कोरोना से मर जाए तो जितना रंज़ होगा उससे ज्यादा ख़ुद को बचाने की चेष्ठा होगी, स्वाभाविक ही जब ख़ुद की ज़िन्दगी प्रमाणिक संकट में हो तो उस संकट के कारण उस कोरोना मृतक से कहाँ तक संवेदना को जोड़ पाएगें ,यह तो अभी से जैसे दिखाई देता है,मृत आत्मा का पता नहीं देह को पर्याप्त दूरी से या तो कोई पहुँच हो तो घर से थोड़ी दूर वरना अस्पताल से ही बिदाई दी जाती है।बाकी तो सब ठीक है,दिक्कत 62 पार वालोँ की है,दिक्कत इसलिए ज़यादा है क्योंकि इस उम्र के बाद एक तो उम्र की ढलान की स्वाभाविक चिंताएँ और, एकान्त की मजबूरी में जीने वालों को “” कोरोना संकट मृतक”” हो जाने पर कैसे “दी जना””
होती रहेगी यह तो पता नहीं मगर कोरोना के अभिशाप से मरने वाले लोगों को अब अपने अंत के बाद अपनो की संवेदनाओं की गिरावट के बारे में ज्यादा विचार करने के बजाय शून्यवत अस्तित्व में कोरोना जीकर मर जाना चाहिए।लक्षण ऐसे हैं,मौसम ऐसे हैं, परिवेश ऐसे हैं कि संस्कारों की पूर्ति के लिए किराए के रोने वाले बुलाना जरूरी हो जाऐं तो बड़ी बात नहीं। ये किराए के रोने वाले सरकारी अस्पतालों के आस पास उपलब्ध होंगे दल के रूप में, आप जितना, जब तक,जितने दिनों तक चाहेंगे आ कर रो जाया करेंगे।ऐसा नहीं हैं कि रिश्तेदार, मित्र,परिजन आदि विलाप नहीं करेंगे,मगर जब मृतक से अपने स्वयं की ज़िन्दगी को ख़तरा हो तो, न तो समाज चाहेगा न परिजन, कि शवों के पास रोने धोने की परंपरा पूर्वानुसार हो।
संवेदनाओं में औपचारिकताएँ ही रह जाना, स्वाभाविक हो जाएगा,चूंकि यह संवेदना का संकट पूरे समाज के लिए एक सा होगा तो संस्कारों और चलन में अंतर तो होना ही है और और वह सहज स्वीकार्य भी होना है।हो सकता है मौत की संवेदनाएँ दो परिस्थितियों में विभक्त होकर द्रष्टव्य हो,एक संक्रामक रोग से मरने वाले, दूसरे अन्य बीमारियों से मरने वाले,अन्य बीमारियों से मृत्यु पुण्य आत्माओं की स्वीकार होकर बिछोह की पीड़ा देने लायक स्वीकार की जाए और संक्रमण से मृत्यु के लिए संवेदना के पृथक आयाम संस्थित हो जाऐं, वैसे भी मौत के बाद इन दिनों संवेदनाओं में पहले जैसी हलचल, नैराश्य,शोक आदि अच्छे सफेद कपड़ों में और थोड़ी उदास भावभंगिमा तक सीमित होते जा रहे हैं फिर संक्रमण से जीवन के ख़तरों ने मृतकों को जीवितों का हत्यारा स्वीकार कराने में कोई कसर नहीं छोड़ी है बल्कि प्रयत्न से ज्यादा लगता है लोगों ने परिणाम का प्रमाणिक भय ऐसे स्वीकार कर लिया है जैसे पूर्व निर्धारित मान्यता हो।यह चर्चा इस लिए प्रासंगिक और सत्य लग रही है क्योंकि नियति ही जैसे मजबूर कर रही है और नियति तो नियति है जिसके दायरे,सीमाओं में जीना ही है।
हमारी परंपरा मे रुदालियों के अस्तित्व और अस्मिता को अलग अलग क्षेत्रों में, खूब देखा जाता रहा है,और प्रचलन को स्वीकार भी किया जाता है।आज इन किराए के रोने वालों का अस्तित्व मृत्यु के अतिरिक्त अन्य प्रसंगों में भी बहुत ज्यादा और परिवर्तित हुआ दिखाई दे रहा है।इस परिवर्तित परिवेश में पूरे रास आने वाले अभिनय में,लगभग मौलिकता के साथ रोने की परंपरा दिखाई देती है।विशेष रूप से राजनीति में किराए के रोने वालों का अच्छा खासा व्यापार है।चुनाव में टिकट न मिले, चुनाव जीत जाएँ तो सरकार न बने,सरकार बन जाए तो मंत्री ना बन सकें, सब कुछ हो जाए तो किसी और के किराए के रोने वालों के भाग्य से सरकार गिर जाए,सब में किराए के रोने वालों की बहुत आवश्यकता दिखाई देती है,बस बदले समय के साथ ये किराए के रोने वाले आक्रोश जुलूस, हाई कमान के विरोध,आदि में स्थित के अनुरूप रूदालित्व की परिष्कृत प्रक्रिया का पालन करते हैं।, मीडिया, समाचार माध्यमों में ये किराए के रोने वाले एक नई जमात,नए लक्ष्य,और नई बिरादरी लेकर निपुण दिखाई देते हैं । इस संवर्ग में मृत्यु के अर्थ पूरे बदले हुए होते हैं, एक ही दिन में अपने प्रिय की कई मौतें स्वीकार करना होता है।
अपने प्रिय के किसी भी दुष्कृत्य की संभावित आलोचना को भी मृत्यु जैसा ही समझ कर अपने मीडिया/माध्यम में अपने ही नए ईज़ाद किए नए नए चीख पुकार के अभिनय में तत्काल रोना शुरू करना होता है।इस क्षेत्र के रोने वाले फरिश्तों जैसे होते हैं जिनका रोना भी लोग अपने अपने फायदे, नुकसान के हिसाब से तय करते हैं।अपने ही घर में अपने लिए रोने का भी लोग समुचित और सुनियोजित प्रबन्ध करने लगे हैं।वास्तव में इन किराए के रोने वालों को केवल मृत्यु से जोड़कर देखने का संकुचित समय निकल गया।अब अंधा,स्वार्थी, अनुगमन,किराए के रोने जैसा हो गया है।इसमें किराया, भाड़ा भी खूब है आँसुओं के बजाय नौटंकी, रुदालियों, रुदालों,की वाँछनीय कला हो गई है।वैसे भी लोग हँसते हुए भी बहुत अच्छे से रो लेते हैं या खूब रोते हुए भी अच्छे से हँस लेते हैं। जब आँसुओं का मोल ख़ुदगर्ज़ियाँ करती हैं तो आँसू पानी नहीं रह जाते,आँसू चेतना, संवेदना, और चिंतना पर बर्फ़ की तरह जम जाते हैं, और ठंडक की ऐसी छुअन चेहरे को देते रहते हैं कि चेहरे पर महज़ सिहरन का भाव प्रकट हो जो कृत्रिम उदासी या खिचाव का प्रदर्शन करने की क़ूबत रखता हो।
अनुमान है यह जमी हुई बर्फ शायद एकान्त में पिघलती हो जब अभिनय,और हर अनुबंध को उतारकर कभी निजता में जीने का मन होता हो अपने आपमें स्वाभिमान तलाश करने का मन होता हो।कहना यह है कि जब आँसू ही अभिनय हो जाऐं, फरेब हो जाऐं तो ज़िन्दगी किस मुकाम पर होगी,ईमान किस गवाक्ष में होगा और रिश्ते किस मरघट को तीर्थ कहेंगे पता नहीं।सचमुच बड़ा कठिन है आँसू और मुस्कान के अभिनय और उनके ठौर को पहचानना। यह युग लगता है,आँसुओं की विभिन्न लीलाओं और प्रस्तुतियों के वैशेष्य के लिए अवश्य जाना जाएगा।कोरोना से जीत गए तो भी पता नहीं मौत के ऐसे कितने वायरस इन कलयुगी दानवों ने छुपा रखे हैं,पता नहीं,और कब वे मानवीय मूल्यों को औकात दिखाने के लिए प्रकट कर दिए जाएँ यह भी पता नहीं।दुनिया को कोरोना से तहस नहस होते इन कलयुगी दानवों ने खूब अच्छे से देख लिया है,डर यह है की शक्ति प्रदर्शन के लिए ये वायरस कारगर मानकर रंज़िशों के नाम पर आम चलन न बन जाऐं।यह आशंका इसलिए सशक्त दिखती है क्योंकि मानवीय आस्थाओं के लिए दुनिया की सामर्थ्य,दृष्टि कहीं भी प्रतिबद्ध दिखने के बजाय इन्सानियत को तबाह करने के लिए ज्यादा कटिबद्ध दिखाई देती है।ऐसे वायरस से मरने वालों को रोग लगने के साथ ही मौत के बाद की अपनी औकात, हैसियत के संबंध में किसी भ्रम न जीकर सच्चाई को शिरोधार्य कर लेना ही बेहतर लगता है।।
निर्मल उपाध्याय