पिछले पैतीस साल की पत्रकारीय यात्रा में मेरे दिल-ओ-दिमाग में जिन कुछ शख्सियतों की गहरी छाप रही है उनमें से कमलेश्वर जी प्रमुख हैं। आज उनका जन्मदिन है।
कमलेश्वर जी को जो पढ़ा, जो सुना, जो देखा वह सब चलचित्र की भाँति आज दिनभर चलता रहेगा। इसी महीने की सत्ताईस तारीख को उनकी पुण्यतिथि आएगी। यह तारीख मेरे लिए इस वजह से भी महत्वपूर्ण है कि भास्कर में सोमवार को छपने वाले उनके नियमित स्तंभ के लेख की फैक्स कापी मिलने के एक घंटे बाद ही उनके निधन की खबर आई थी। तब मैं दैनिक भास्कर के संपादकीय पृष्ठ का प्रभारी था।
कमलेश्वर जी की जिंदगी का वह आखिरी लेख किस विषय पर था यह तो मुझे याद नहीं लेकिन इस स्तंभ ने मेरा उनसे लेखकीय रिश्ता अवश्य पक्का कर दिया था।
कमलेश्वरजी जैसे व्यस्त लेखक से बिना नागा लिखवाते रहना साधारण काम नहीं था पर यह मैंने दो-ढाई साल किया, इसके पीछे भी वही थे। उन्होंने ने कह रखा था कि मुझे हर हफ्ते एक दिन पहले याद दिलाओगे और हाँ टापिक भी सुझाओगे।
कमलेश्वर जैसे महान संपादक का यह बडप्पन तो था ही, मुझ पर स्नेह भी था। जब मैं पत्रकारिता में नहीं था तब से कमलेश्वरजी का प्रशंसक था। उन दिनों वे सारिका के संपादक हुआ करते थे।
उनके संपादकत्व में सारिका के जब्तशुदा कहानी विशेषांक ने तो दुनिया भर में सनसनीखेज धूम मचा दी थी। उसी अंक में अब्बास साहब की ‘सरदार जी’ मंटों की ‘जिंदा गोश्त’, इश्मत चुगताई की ‘लिहाफ’ पढ़ी थी। संभवतः प्रेमचंद की सोज-ए-वतन भी उसी अंक में छपी थी।
एक गंभीर साहित्य की पत्रिका कैसे चर्चित व पठनीय बनाई जा सकती है यह कौशल कमलेश्वर जी में ही था, जिसे बाद में ‘गंगा’ जैसी पत्रिका निकाल कर सिद्ध किया। सस्ते कागज़ में छपने वाली ‘गंगा’ भले ही अल्पकालिक साबित हुई पर जब तक छपी उसके जोड़ की कोई पत्रिका आज तक पढ़ने को नहीं मिली।
कमलेश्वरजी ने पत्रकारिता के कारपोरेटीकरण को उन्हीं दिनों ताड़ लिया था.. गटर गंगा..नामक स्तंभ के जरिये सेठाश्रयी पत्रकारिता की खबर लेने लगे थे। यह बात अलग है कि वही आगे चलकर भास्कर के जयपुर संपादक बने।
बहरहाल लेखन के हर आयाम चाहे फिल्म लेखन हो टीवी पत्रकारिता, रिपोर्ताज, कहानी व उपन्यास हर विधाओं पर उन्होंने सफलता के झंडे गाड़े। संपादक के तौर पर उनकी नजर जौहरी सी थी। दुष्यन्तजी की राष्ट्रीय ख्याति के पीछे तो वे थे ही रमेश रंजक जैसे अग्निधर्मा गीतकार को सामने लाए।
सन् 88 में मैं देशबंन्धु में था। बाबू जी(श्रीमायाराम सुरजन) जो कि म.प्र. हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष थे, की इच्छा थी कि रीवा में सम्मेलन की ओर से कोई बड़ा राष्ट्रीय स्तर का साहित्यिक आयोजन हो। मुझे उस आयोजन का संयोजक बना दिया।
84 में ग्रामीण पत्रकारिता को ही ध्येय बनाकर देशबन्धु में आया था। मुझ पर बाबूजी की सरपरस्ती ऐसी बनी कि देहाती पत्रकारिता करते हुए भी मेरे हौसले हमेशा राष्ट्रीय रहे।
अस्सी के दशक मे देशबन्धु के अलावा देश भर की पत्र पत्रिकाओं में भी नियमित और खूब छपता था। साहित्य, रंगमंच, लोकसंस्कृति में रुचि थी।
रीवा के ऐतिहासिक व्येन्कट भवन के तीन दिन के समारोह के मुख्य आकर्षण कमलेश्वर जी थे। उनका आतिथ्य करने का सौभाग्य मिला और तीन दिनों तक भरपूर सानिध्य भी। उनके साथ उनकी धर्म पत्नी गायत्री जी भी थीं।
देशबंन्धु के लिए एक लंबा इन्टरव्यू भी किया था जिसमें उन्होंने बताया था कि इलाहाबाद के मुफलिसी दौर में…आंधी.. के इस मशहूर लेखक, पटकथाकार को रद्दी बेंचकर ब्रेड जुगाडने पड़ते थे।
एक शाम प्रसिद्ध प्रापात चचाई के गेस्ट हाउस में बीती ..मैने बताया पं नेहरू, लोहिया भी यहाँ आकर बुद्धि विलास कर गये और विद्यानिवास, महादेवी, रामकुमार वर्मा भी।
कमलेश्वरजी के साथ भाऊसमर्थ, ड़ा.धनंजय वर्मा व अब्दुल बिस्मिल्लाह भी थे गायत्री जी भी। अभी मुझे दो दिन पहले ही वो फटा अलबम मिला जो घर बदलने के चक्कर में कहीं खो गया था। तीस साल पुरानी स्मृतियां ताजा हो गईं।
मेरा बेटे ने पीएससी की तैयारी के सिलसिले में किताबों के बारे में राय ली तो मैंने कहा देश का इतिहास जानना है तो …’कितने पाकिस्तान’.. जरूर पढ़ना।
इस उपन्यास के जरिये कमलेश्वरजी ने भारत को समझने की जो इतिहास दृष्टि दी है भविष्य में इतना समर्थवान साहित्यकार शायद ही कोई जन्म ले।