लवीन राव ओव्हाल
यह बुरा दौर है, बहुत बुरा। सुबह से लेकर रात तक सिर्फ एक ही बात, एक ही जरूरत और अब तो जवाब भी एक ही – ठीक है, कोशिश करता हूं, आप चिंता मत करो, कुछ ना कुछ करते हैं। क्या होगा, कैसे होगा, कब होगा जैसे सवाल मन में उठते भी है तो उन्हें खामोश करना होगा। क्योंकि हमें अब गिलहरी बनना है। जी हां, वहीं गिलहरी जो जंगल में आग लगने पर अपने अपने छोटे-छोटे हाथों से आग बुझाने में जुट गई थी। या फिर उस गिलहरी की तरह जो लंका पर चढ़ाई के लिए बन रहे रामसेतू में छोटे-छोटे कंकर-पत्थर डाल रही थी। हमने बचपन में किताबों-कहानियों में ये किस्सा जरूरत सुना होगा। कितना सही और कितना गलत, यह तो नहीं मालूम लेकिन सोच सही है। जब जंगल की आग बुझी या बुराई पर अच्छाई कि जीत हुई तो गिलहरी का नाम आग बुझाने और सेतू बनाने वालों में गिना गया।
माना कि आज परिस्थितियों ने हमें नि:शब्द, हताश, निराश, लाचार और असहाय बना दिया है। न अस्पताल में बिस्तर मिल रहे हैं और न इंजेक्शन। परिजन, मित्र, परिचित फोन करके सहायता के लिए कहते है और हम निरुत्तर हो जाते हैं। चाह कर भी मदद न कर पाने से कुंठाग्रस्त हो रहे हैं। मदद की हर कोशिश और संभव प्रयास कम पड़ रहे हैं। हालांकि गर्व है कि जब शहर के रहनुमा आलीशान कोठी में बैठकर हल ढूंढने में लगे हैं, हमारे शहर इंदौर की पूरी पत्रकार बिरादरी एक-दूसरे सहित अन्य लोगों की मदद कर अपना फर्ज निभा रही हैं। बिना किसी स्वार्थ के, कोई इंजेक्शन की व्यवस्था में लगा तो कोई अस्पताल में खाली बिस्तर ढूंढ रहा है। वह भी अनजान लोगों के लिए। ताकि किसी भी तरह जरूरतमंद को इलाज मिल जाए।
लेकिन अब सिवाय निराशा के कुछ हाथ नहीं लग रहा। फोन की घंटी बजते ही घबराहट होने लगती है। संकोच होता है, क्या जवाब दें। अब तो परिचित डॉक्टर भी अब निरुत्तर होने लगे हैं। फिर भी, प्रयास जारी रहेंगे। आपके, मेरे हम सब के। जरूर निकलेंगे बाहर, इस विकट काल से। हर जगह बिस्तर, ऑक्सीजन, इंजेक्शन, हर जगह ‘ना’ सुनकर भी हमें नकारात्मक नहीं होना है। कोशिश जारी रखना है, क्योंकि हमें वो गिलहरी है जिसके प्रयास कितने भी छोटे हो, लेकिन सकारात्मक हो। क्यों ना इस संकट की इस घड़ी में हम सब बड़ा-छोटा, अपना-पराया, दोस्त-दुश्मन, अमीर-गरीब, नेता-अफसर, शासन-प्रशासन, पक्ष-विपक्ष, यह सब भुलकर सोचें। सिस्टम अपना काम कर रहा है, लेकिन हम भी अपना फर्ज निभाएं।
जुट जाए एक साथ, मानवनता पर आए इस संकट से निपटने में। याद रहें हम इंदौरी है और मदद का हाथ बढ़ाना तो हमारे डीएनए में है। तो क्या हुआ कि आज हमें हर जगह ना सुनने को मिल रही है, हमारी कोशिशें तो जारी रहेगी। खुद नहीं कर सकते तो किसी ओर से मदद मांगेंगे। लेकिन संक्रमण की चैन तो को तोड़ने के लिए मदद की चैन तो बनाकर रहेंगे। ताकि जब संकट का यह दौर गुजरेगा तो इन बुरे पलों को याद करते हुए हम कुछ अच्छा भी महसूस करें। तो मदद का हाथ थामे रखिए, गिलहरी बनिए, इंसानियत को जीताइएं लेकिन सुरक्षित रहते हुए। यही निवेदन।