अखिल राज
हमसे पूछो के गजल मांगती है कितना लहू,
सब समझते हैं ये धंधा बड़े आराम का है।
ये राहत इंदौरी का एक मकबूल शेर है। इसमें वे बड़ी बेबाकी और साफगोई से एतराफ करते हैं कि गजल उनके लिए अदब का हिस्सा नहीं बल्कि एक धंधा है। मुशायरों की दुनिया के किसी शायर में इतनी हिम्मत नहीं कि वो खुले तौर पर कुबूल कर सकें कि असल में वो गजल से अदब की खिदमत नहीं बल्कि उससे रोजी कमाने का काम ले रहे हैं। राहत इंदौरी में हिम्मत भी थी और ईमानदारी भी इसलिए वो ये शेर कह सके।
मुशायरों के पूरे इतिहास में अब तक कोई ऐसा शायर नहीं आया जिसने दुनियाभर में इतने पढ़े हों। हिंदुस्तान के दूर-दराज इलाकों से लेकर उन्होंने हर उस देश में मुशायरा पढ़ा, जहां उर्दू बोली या समझी जाती है। शायरी के इस आलमी कारोबार में मसरूफ राहत इंदौरी की सबसे बड़ी खूबी ये भी थी कि वे लोगों की खिदमत के लिए हमेशा तैयार रहते थे। मुशायरों से खूब कमाते थे और खूब खिदमत करते थे। शहर में ऐसे कई लोग हैं जिनकी उन्होंने माली इमदाद के साथ जहनी तरबीयत में भी खूब इमदाद की। इस सिलसिले में मुझे मरहूम लतीफ बरम का एक वाकया याद आ रहा है।
लतीफ बड़े अजीबोगरीब शख्सियत के मालिक थे। 21 बरस की उम्र तक वो अलिफ भी नहीं पहचानते थे यानी अनपढ़ थे। अहमदाबाद की एक कपड़ा मिल में काम करते थे। वहां हड़ताल हुई। मशहूर शायर और कामरेड मखदूम उस हड़ताल में शामिल हुए। पुलिस ने उनको जेल में डाल दिया। तब मखदूम साहब को जेल में पता चला कि इस हड़ताल में बढ़चढ़कर हिस्सा लेने वाला ये लतीफ बिल्कुल अनपढ़ है। उन्होंने जेल में ही लतीफ को उर्दू पढ़ाई और इल्म हासिल करने के फायदे बताए। कुछ महीने बाद उन सबको छोड़ दिया गया। लतीफ की दिनों बाद शादी हो गई। चंद बरस काम करने के बाद वे अपनी बीवी को लेकर इंदौर चले आए। वे बड़वाली चौकी में एक झोपड़ीनुमा मकान लेकर रहने लगे। उन्हें पढऩे का नशा हो चुका था। लिहाजा बड़वाली चौकी पर एक किताब की दुकान पर उनकी बैठक हो गई। वे सुबह घर से नाश्ता करके निकलते और दुकान पर जाकर बैठ जाते। वहां अखबार भी आते थे और उर्दू के रिसाले भी। दिनभर पढ़ते रहते। बीवी घर पर बच्चों को कुरान शरीफ पढ़ा देती और खाने का इंतजाम हो जाया करता।
बरसों तक लतीफ का यही सिलसिला चला और राहत इंदौरी समेत कई लोगों के इल्म में ये बात गई कि लतीफ न सिर्फ किताबें पढऩे के शौकीन हैं, बल्कि उन्हें कई विषयों का जबर्दस्त इल्म है। लतीफ के इल्म का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब कोई उर्दू का छात्र किसी विषय पर रिसर्च या पीएचडी करता और उसे कहीं मैटर नहीं मिलता तो राहत इंदौरी और प्रो. अजीज इंदौरी उसे लतीफ के पास जाने को कहते। लतीफ बड़ी आसानी से बता देते कि इस विषय से संबंधित मैटर उन्हें किस किताब में मिलेगा। शहर में राहत इंदौरी और कहानीकार खालिद आबिदी के घर पर एक बड़ी लायब्रेरी थी। इन दोनों ने लतीफ के लिए अपनी लायब्रेरी के दरवाजे खोल रखे थे। राहत साहब जब कभी मुशायरों से लौटते और अगर वहां से कोई अच्छी किताब लाते, तो वे खुद लतीफ को किताब देने बड़वाली चौकी पहुंच जाते। लतीफ ने अपनी 50 बरस की उम्र सिर्फ पढऩे में गुजार दी थी। एक दिन राहत साहब और प्रो. अजीज इंदौरी ने उन्हें राजी कर सेंट उमर स्कूल में बच्चों को उर्दू पढ़ाने की नौकरी पर रखवा दिया।
राहत साहब, लतीफ का खास ख्याल रखते थे। राहत साहब के अलावा लतीफ के चंद ही दोस्त थे, जिनकी मदद को वे इंकार नहीं करते थे। अपने आखिरी वक्त में लतीफ को रानीपुरा के एक नर्सिंग होम में भर्ती किया गया था। मैं उन्हें वहां देखने गया, तो उनकी हालत ज्यादा खराब थी। मुझे वहां ये भी पता चला कि लतीफ के पास पैसे भी नहीं हैं। ऐसे में उन्हें अस्पताल भी छोडऩा पड़ सकता था। मैं बहुत परेशान था कि किससे मदद के लिए बोला जाए। उन दिनों किसी बात से इख्तिलाभ होने के कारण मेरी कई महीनों से राहत साहब से बात बंद थी। इसके बावजूद मैंने उन्हें फोन लगा दिया। इत्तेफाक से राहत साहब ने हो फोन उठाया। मैंने उन्हें बताया कि लतीफ की तबीयत बहुत खराब है और वे अस्पताल में भर्ती हैं। उनके पास पैसे भी नहीं हैं। इतना सुनते ही राहत साहब ने कहा कि अच्छा हुआ तुमने फोन कर लिया। मैं आज ही इंदौर आया हूं और कल फिर मुशायरों के लिए रवाना हो जाऊंगा। मैं आज ही लतीफ को देख आऊंगा।
बाद में मुझे पता चला कि राहत साहब उसी शाम लतीफ को देखने नर्सिंग होम गए और उन्हें पांच हजार रुपए भी देकर आए। आज राहत साहब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी ऐसी कई खिदमतों के लिए भी उन्हें ये शहर हमेशा याद करता रहेगा।