दिनेश निगम ‘त्यागी’
\कांग्रेस छोड़कर भाजपा में गए बालेंदु शुक्ला, प्रेमचंद गुड्डू तथा चौधरी राकेश सिंह जैसे नेता लंबे समय तक भाजपा में रहे। बावजूद इसके उनका भाजपा के साथ तालमेल नहीं बैठ सका। संजय पाठक को अपवाद के तौर पर छोड़ दें तो मानवेंद्र सिंह भंवर राजा एवं गिरीश गौतम जैसे वरिष्ठ नेता एक बार भी मंत्री नहीं बन पाए। संगठन में भी जगह नहीं मिली। यह जानते हुए ज्योतिरादित्य के साथ कांग्रेस छोड़कर आए पूर्व विधायक कैसे सोच सकते हैं कि भाजपा में जाने के साथ उन्हें हाथोंहाथ लिया जाएगा। पार्टी के साथ उनका कांग्रेस जैसा तालमेल बैठ जाएगा। अब उन्हें समझ आ रहा है कि यह इतना आसान नहीं है। मुख्यमंत्री और मंत्री तो बागियों को हाथोंहाथ ले सकते हैं लेकिन जयभान सिंह पवैया, गौरीशंकर शेजवार, भंवर सिंह शेखावत, दीपक जोशी, पारुल साहू सहित वे तमाम नेता नहीं, जिनका राजनीतिक भविष्य दांव पर लग गया है। भाजपा के राष्टÑीय संगठन महामंत्री भोपाल के दो दिनी दौरे पर आए तो उन्हें इस असंतोष का अहसास हो गया। इसीलिए उन्होंने सामंजस्य व तालमेल पर जोर दिया। बागियों को आशंका है कि यदि तालमेल न बन सका तो जीतना आसान नहीं है।
कांग्रेस ने भी किया ‘गद्दारों’ पर भरोसा….
उप चुनाव में कांग्रेस ज्योतिरादित्य सिंधिया सहित विधायकों की पार्टी से गद्दारी को मुख्य मुद्दा बनाने की तैयारी में है। कमलनाथ, दिग्विजय सिंह सहित तमाम नेता बयानों के जरिए यह मैसेज जनता में लगातार पहुंचा रहे हैं। ऐसे में कांग्रेस द्वारा घोषित 15 प्रत्याशियों की सूची में भाजपा और बसपा से आए कई नेताओं को टिकट देना जचा नहीं। सवाल यह है कि कांग्रेस पार्टी से बगावत करने वालों को गद्दार कह रही है और दूसरी पार्टी से गद्दारी कर कांग्रेस में आए नेताओं को टिकट दे रही है। क्या ऐसा कर कांग्रेस खुद अपने मुद्दे की हवा नहीं निकाल रही। इसमें कोई शक नहीं कि घोषित प्रत्याशी कमजोर नहीं है लेकिन ये सभी कांग्रेसी भी नहीं हैं। ‘कहीं का र्इंट कहीं का रोड़ा, भानुमती का कुनबा जोड़ा’ की तर्ज पर भाजपा, बसपा और कांग्रेस के नेताओं को मिलाकर सूची जारी की गई है। सत्यप्रकाश सखवार सहित चार प्रत्याशी बसपा से आए हैं। कन्हैयालाल अग्रवाल, सुरेश राजे और प्रेमचंद गुड्डू भाजपा छोड़कर आए हैं। कुछ कांग्रेस में भले हैं लेकिन वे ज्योतिरादित्य सिंधिया से जुड़े रहे हैं। फूल सिंह बरैया बसपा के सर्वेसर्वा रहे हैं और अपनी पार्टी बनाकर भी चुनाव लड़ चुके हैं। माफ करना, कांग्रेस को भी गद्दार ही पसंद आए।
कांग्रेस ने अप्रत्याशित निर्णय से चौंकाया….
इसे कमलनाथ जैसे वरिष्ठ नेता को मिले फ्री हैंड का नतीजा माने या पार्टी की कार्यशैली में बदलाव की शुरुआत, चुनाव कार्यक्रम की घोषणा से पहले प्रत्याशियों का एलान कांग्रेस का अप्रत्याशित और चौंकाने वाला निर्णय है। कांग्रेस के कार्य की यह शैली कभी नहीं रही। हर दल प्रत्याशी घोषित करता जाता था और कांग्रेस में टिकटों को लेकर उठापटक चलती रहती थी। नामांकन दाखिल करने की अंतिम तारीख तक कांग्रेस प्रत्याशी घोषित होते थे। दरअसल, प्रदेश की 27 विधानसभा सीटों के उप चुनाव कांग्रेस-भाजपा के लिए जीवन-मरण वाले हैं। भाजपा ने कांग्रेस के बागियों की मदद से प्रदेश की सत्ता छीनी है। यह सत्ता भाजपा के पास सलामत रहेगी या कांग्रेस फिर वापसी करेगी, यह उप चुनावों के नतीजे तय करेंगे। संभवत: बगावत से मार खाए कमलनाथ ने समय से काफी पहले 15 सीटों के प्रत्याशियों का एलान कर भाजपा पर मनोवैज्ञानिक बढ़त बनाने की कोशिश की है। वह भी ऐसे समय जब भाजपा के दिग्गज शिवराज सिंह चौहान, नरेंद्र सिंह तोमर एवं ज्योतिरादित्य सिंधिया प्रचार अभियान के तहत दौरे पर हैं। सूची देखकर लगता है कि कांग्रेस के प्रत्याशी कमजोर नहीं हैं। मुकाबला रोचक होगा।
पीसी के साथ सरकार की नाइंसाफी….
राजनेताओं का सरकारी बंगलों के प्रति लगाव नई बात नहीं। हाल में इसके शिकार पूर्व मंत्री पीसी शर्मा भी हुए। पहले उन्हें बंगला खाली करने का नोटिस मिला। फिर सरकार अमला बंगला खाली करने पहुंचा। उन्होंने दस दिन का समय मांगा, वह भी नहीं मिला। मजबूरन पीसी शर्मा को अपना सामान समेट कर जाना पड़ा। इसे पीसी के प्रति भाजपा सरकार की नाइंसाफी माना जा रहा है। शर्मा को चार इमली में बंगला आवंटित था, वह उनके खुद के विधानसभा क्षेत्र में आता है। इस नाते सरकारी बंगले पर पहला अधिकार क्षेत्र के विधायक का है। पीसी ने उदाहरण दिया कि हमारी पंद्रह माह सरकार रही। भोपाल से विधायक एवं पूर्व मंत्री विश्वास सारंग अपने बंगले में रहे। विधायक कृष्णा गौर अपने ससुर पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय बाबूलाल गौर के नाम आवंटित बंगले में रह रही हैं। इनसे बंगला नहीं खाली कराया गया। भूपेंद्र सिंह, नरोत्तम मिश्रा सहित कई पूर्व मंत्रियों से भी कांग्रेस सरकार ने बंगले खाली नहीं कराए। ऐसे में भाजपा सरकार ने पीसी शर्मा से जिस तरह बंगला खाली कराया, इससे उसकी नीयत पर सवाल उठ रहे हैं। पूर्व मंत्री सज्जन सिंह वर्मा बंगला खाली कराने के मामले को हाईकोर्ट ले गए हैं।
इसे कहते हैं ‘समय होत बलवान’….
‘बलवान आदमी नहीं, समय होता है।’ यही वजह है कि दर्जनों टिकट दिलाने की ताकत रखने वाले पूर्व प्रदेश कांगे्रस अध्यक्ष अरुण यादव एक अदद विधानसभा के टिकट के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। वे कांग्रेस विधायक के इस्तीफे से रिक्त खंडवा जिले की मांधाता सीट से उप चुनाव लड़ना चाहते हैं, लेकिन पार्टी का टिकट ले पाने की स्थिति में नहीं हैं। वे कई बार कह चुके हैं कि हमने चार साल संघर्ष किया। सड़कों पर पुलिस के डंडे खाए। संगठन को मजबूत किया। जब बारी सत्ता की आई तो दूसरे आकर बैठ गए। हालांकि उनके इस कथन को कांग्रेस हाईकमान ने कोई खास तवज्जो नहीं दी। अरुण के पिता स्वर्गीय सुभाष यादव कांग्रेस के बड़े नेता रहे हैं। अरुण खुद सांसद, केंद्रीय मंत्री, प्रदेश अध्यक्ष एवं कांग्रेस वर्किग कमेटी के सदस्य रहे हैं। उनकी गिनती राहुल गांधी कैम्प के नेताओं में होती है। बावजूद इसके आज वे एक अदद टिकट के लिए मोहताज हैं। इसकी एक वजह यह है कि वे लगातार दो बार लोकसभा का चुनाव हार चुके हैं। दूसरा, अरुण के छोटे भाई सचिन यादव विधायक हैं। तीसरा, मांधाता से पूर्व मुख्यमंत्री भगवंतराव मंडलोई के पोते अमिताभ मंडलोई टिकट मांग रहे हैं।