रविवारीय गपशप- “रीड बिटवीन दी लाइन”

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अंग्रेज़ी में एक कहावत है , “रीड बिटवीन दी लाइन” , याने वो पढ़ो जो नहीं लिखा गया है और जो लिखे में ही कहीं छिपा है | बहुधा शायरो और कवियों की रचनाओं में ही कई निहितार्थ छुपे होते है जो उन अर्थो से अलग होते है जो सामान्यतः हम कविता पढ़ कर जान पाते है | उदाहरण के बतौर मशहूर शायर अहमद फराज़ साहब की वो प्रसिद्ध ग़ज़ल जो मेंहदी हसन ने बड़ी खूबसूरती से गायी है “रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ । आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ” का ध्यान करें |

शुरुआती दौर में जब मैं राजनाँदगाँव के डोंगरगढ़ तहसील में एस डी एम था तब लक्ष्मी कांत द्विवेदी ज़िले में डिप्टी कलेक्टर के पद पर कार्यरत थे , भाभी जी यानी द्विवेदी कालेज में व्याख्याता थीं और कुछ संयोग ऐसा था की जब तक भाभी जी का ट्रांसफ़र उस ज़िले में हो पता जहां द्विवेदी जी होते थे तब तक द्विवेदी जी ही अगले किसी ज़िले में ट्रांसफ़र हो जाते |

द्विवेदी जी के घर जब कभी जाते तो वे खाना बड़े प्रेम से खिलाते और उसके बाद हाथ से घोंट कर काफ़ी पिलाते , और इसी दौरान ये ग़ज़ल टेप रिकार्ड पर लगा कर सुनाते ; रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ | मैंने मज़ाक़ में एक दिन कहा की यार ये ग़ज़ल क्या इसी लिए तुम्हें पसंद है की भाभी जब भी आती हैं तभी आप के जाने का समय हो जाता है ? वे पहले तो हँसे फिर बोले भाई ये ग़ज़ल उस दौर की है जब पाकिस्तान में जम्हूरियत यानी लोकतंत्र कामयाब नहीं हो पा रहा था और बार बार फौजी शासन लग जाता था | तब ये रंजिश ही सही उसी जम्हूरियत के लिए लिखा गया है ना कि मेहबूबा के लिए | है ना दिलचस्प अब आप फिर से पुरी ग़ज़ल सुनेगें तो एक अलग ही आनंद आयेगा |

इसी तरह बहुत पुरानी एक बात मुझे याद आ रही है | ये उस वक्त की बात है कि जब छायावाद के अन्तिम स्तंभ श्री रामेश्वर शुक्ल अंचल जिन्दा थे ,उनके बेटे स्वर्गीय दिलीप शुक्ल जी कटनी कॉलेज में प्रोफेसर थे और मुझपे बड़ा स्नेह् रखते थे | अंचल जी उनके पास कटनी आए हुए थे | ये बात मुझे पता लगी तो मै उनसे मिलने पहुँच गया | बड़े सहज ढंग से उन्होंने मुझे अपने पास बैठा कर मेरे बारे में पूछताछ की ..क्या पढ़ रहे हो , क्या करोगे ,आदि आदि | मैं तब स्नातक का विद्यार्थी ही था | बातचीत के बाद मैंने उनसे अपनी डायरी में लिखी उनकी कविता पर उनके आटोग्राफ देने का निवेदन किया | उन्होंने डायरी अपने हाथ में ली , उसमें मैंने उनकी कविता लिख रखी थी , मैंने निवेदन किया कि उस पर ही हस्ताक्षर कर दें |

अपनी ही उस कविता को पढ़ कर मुस्कुराते हुए उन्होंने पूछा इसका मतलब समझे ? पंक्ति थी “पर फरिश्तों और परियों को दिए अच्छा किया , पंख क्यों कतरे विहंगो के भरे मधुमास में “ मुझे जो समझ आया मैंने बताया ..नौजवानी में जैसे अर्थ समझे जा सकते है वैसे ही मेरे दिमाग में थे | हँसते हुए कहने लगे अरे भाई ये मैंने इमरजेंसी के दौरान लिखी थी , उन दिनों रुख़साना सुल्ताना (अभिनेत्री अमृता सिंग की माँ ) और जो युवा नेता संजय गाँधी के निकट थे उनके लिए फरिश्ते और परियों के उपमान दिए है और जो नवजवान उस दौरान जेलों में बंद कर दिए गए उन्हें विहंग कहा है | मै बस चकित उन्हें देखता और सोचता ही रह गया कि हमारे समझ से परे भी कविता के अर्थ होते है | हाँ पर वो कविता तो रह ही गयी उसे आपके लिए मै पुनरुद्धरित कर रहा हूँ |

धुंध डूबी खोह / रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’

रात का पहरा लगा हो जिस तरह आकाश में
हैं बँधी वैसी हदें दिन के प्रगल्भ प्रकाश में

खून उतरेगा न आँखों में सितारों की कभी
बँध गए है इस तरह वे चाँदनी के पाश में

ज़िंदगी बेथाह सपनों की रंगीली पांत थीं
धुंध-डूबी खोह जैसी धँस गई संत्रास में

लग रही थी जो उदधि की रत्न-लहरों की बनी
है वही अब तो समाई स्तब्धता के ग्रास में

इस तरह खामोश दोहराते तुम्हें कब तक रहें
तुम ठहरते हो न जब पल भर किसी विश्वास में

वेग मुझमें था भले ही शैल-तटिनी का मगर
घूँट बन कर छन गया निर्मम समय की प्यास में

गूँजते ही रह गए ताउम्र जिस झंकार में
आज मुरझाने लगी वह रागिनी उपहास में

डूब मेरे ही अतल में जाय मेरी आत्मजा
जी सकेगी कब तलक अभिव्यक्ति के उपवास में

पर फ़रिश्तों और परियों को दिये, अच्छा किया
पंख क्यों कतरे विहंगों के भरे मधुमास में!

लेखक – आनंद शर्मा