डॉ सुभाष खंडेलवाल
रंग क्या है ? ये वही है, जो हमारा दिमाग आंखों से दिखलाता है। रंग कोई सा भी हो काला, सफेद, हरा, नीला, पीला सब एक से बढ़कर एक हैं। पसंद सबकी अपनी-अपनी हो सकती है। ये तरह-तरह के रंग, जिंदगी को बहुरंगी और खूबसूरत बनाने के लिए हैं। फिर इंसान में यह रंग बदरंग क्यों हो गया? रंग भेद कैसे आ गया? गोरा और काला ये दो रंग सुंदरता और असुंदरता के प्रतीक कैसे बन गए?
तीन-चार सौ वर्षों का इतिहास अंग्रेजों के नाम ही रहा। वो विजेता रहे, स्वाभाविक है जो विजेता होता है जो सफल होता है, वो ही योग्यता का मापदंड बन जाता हे । भारत में अंग्रेजों और उनके पहले कुछ गोरे मुस्लिम देशों के विजेता के रूप में आगमन के साथ ही गोरा रंग सबके दिमाग पर छा गया। वो ऐसा छाया कि गोरा सुंदर और काला असुंदर बन गया।
इतिहास और खोज बता रहे है कि हमारे यहां पांच हजार वर्षों से बाहर से लोग आ रहे हैं। पहले कहा गया कि यह आर्यों का देश है फिर कहा गया कि आर्य बाहर से आए हमारा देश द्रविड़ों का देश है। अब नई खोज ने बताया है कि मूल रूप से भारत के आदिवासी ही यहां के मूल निवासी हैं। हमारे देश का मौसम और इसकी उपजाऊ भूमि सबको आकर्षित कर बुलाती रही है। द्रविड़, आर्य, शक, हुण, अरब, गजनी, मंगोल, खिलजी, तुगलक, तुर्क, तैमूर, मुगल, पुर्तगाली और अंग्रेज आक्रमणकारी या व्यापारी के रूप में आते रहे। अंग्रेज और पुर्तगाली को छोड़कर सब भारत में ही रच बस गए। इन सबके और हमारे रंग, नस्ल, जात, मजहब, भाषा आपस में घुल मिल गये, हम सब उनका मिला जुला संगम है।
उनके रंगों का प्रभाव इस कदर पड़ा कि भारत के देवी-देवता जो सदियों से काले थे वे भी गोरे हो गए। दुर्गा काली है कृष्ण भी काले हैं दक्षिण भरत में तिरुपति बालाजी (विष्णु) उत्तर भारत में बद्रीनाथ (विष्णु) नाथद्वारा में श्रीनाथजी श्रवण बेलगोला में महावीर इन सबकी मूर्तियां काली ही हैं। इस्कॉन वाले कृष्ण की भक्ति और प्रेम में डूबे हुए हैं। वे विदेशी हैं। गोरे हैं , उन्हें कृष्ण गोरे ही लगते हैं। उनके मंदिरों में देशभर में कृष्ण की सफेद संगमरमर की मूर्तियां हैं। अमेरिका की अश्वेत बस्तियों में रहने वाले अश्वेत लोगों ने ब्लेक जीसस बनाये है इसलिए उनका सौन्दर्य बोध गोरे अमेरिकन में नही काले अमेरिकन में बना हुआ है।
दक्षिण अफ्रीका अंग्रेजों का गुलाम रहा वो पूर्णतः अश्वेत देश है। अंग्रेजों ने वहां गुलामी के साथ अभी कुछ वर्ष पूर्व तक नस्ल के आधार पर भी भेदभाव किया। लेकिन पूरा मुल्क अपने रंग पर खुश है वहां के नाटक, डांस, टीवी-फिल्म सब में नायक-नायिका, कलाकार काले ही हैं। उनका सौन्दर्य बोध आज भी कालेपन में जीवंत है। कोरिया, चीन और जापान जैसे विकसित देशों में यूरोप-अमेरिका का कोई प्रभाव नहीं है। वे अपनी कम ऊंचाई और चपटे नाक-नक्श में अपने सौंदर्य बोध के साथ मस्त हैं। अमेरिका तो गोरों कालों व अनेक संस्कृतियों का देश है। वहां के राष्ट्रपति बराक ओबामा काले हेउनकी पत्नी मिशेल भी काली हे।
हमारे यहां सर्वाधिक जनसंख्या आज भी काले, गेहुंआ, सांवलें रंग वालों की ही है, इसमें गोरा रंग जुड़ गया है। ये काले, गोरे, सांवले, गेहूंए रंगो के भी अपने अपने अंदाज है, काला डामर जितना काला भी है। इसी तरह हमारी आबादी में सर्वाधिक जनसंख्या दलित आदिवासी और पिछड़ों की ही है। ये अधिकांश काले, सांवले रंग वाले ही हैं। अगड़ी जातियां भी चाहे वे अग्रवाल, जैन, खंडेलवाल, माहेश्वरी आदि वणिक जातियां हों या ब्राह्मण, क्षत्रिय, सिंधी, पंजाबी और मुस्लिम इनमें बहुतायत काले गेंहुआ, सांवले रंग वालों की ही है। जो भी रंग परिवर्तित हुए, वे हजारों वर्षों में बाहर से आने वालों और उनके यहां पर रिश्ते बना कर रचने-बसने से हुए हैं। सौन्दर्य प्रसाधन तैयार कर उनमें भी काले से गोरा रंग करने वाली क्रीम-लोशन बनाने और बेचने वाली कम्पनियां भारतीयों की इसी मानसिकता का फायदा उठाकर फेयर एण्ड लवली जैसी सामग्री बेचकर अरबों का कारोबार कर रही हैं, जबकि त्वचा का रंग प्राकृतिक है उसपर कोई मुल्लम्मा नहीं चढ़ सकता।
मंगोल, तैमूर, तुगलक मध्य एशिया से भरत आए थे। तुर्की जो अब टर्की हो गया है, यूरोप की बॉर्डर पर है। अफगानिस्तान जिनके भारत से रिश्ते रहे , यह सभी करीब-करीब कम या अधिक ठंडे मुल्क हैं। मुगले आजम की मधुबाला में इन मुल्कों का मिला-जुला प्रभाव है। पृथ्वीराज कपूर और दिलीप कुमार में भी वही पेशावरी पठान का प्रभाव है। हमारी फिल्मों ने सौंदर्य बोध की एक अलग पहचान खड़ी की, जिसका असली भारत से कोई रिश्ता नहीं था। एक भटका हुआ सौंन्दर्य बोध इस देश के दिल दिमाग में डाल दिया गया।
दक्षिण भारत से जयललिता, जयाप्रदा, वैजयंतीमाला या हेमामालिनी के आ जाने से दक्षिण भरत बदल नहीं गया। वो काला सांवला ही है। वही उसका असली सौंदर्य है उसी तरह साधना, वहीदा रहमान, नूतन, नरगिस, माधुरी, ऐश्वर्या के आने से बाकी का मुल्क इनके जैसा नहीं हो गया। नई पीढ़ी आश्चर्य करेगी कि अंग्रेजों के जमाने में ही नहीं, अभी कुछ वर्ष पूर्व तक सुंदरता सिर्फ गोरे रंग से तय होती रही है और रंग भेद की सर्वाधिक प्रताड़ना सदियों से शोषित- पीड़ित नारी ही झेलती रही है, क्योंकि उसका शरीर, उसकी सूरत, उसका रंग ही उसकी पहचान, योग्यता का मापदंड रहा चाहे, वो घूंघट, बुर्के, परदे में कैद रही हो या न रही हो।
आज देश-दुनिया बहुत तेजी से बदल रहे हे जो हजारों वर्षों में नहीं हुआ, वह सौ-दौ सौ वर्षों में हुआ है और जो बीस-तीस वर्षों में हुआ, वह कभी भी नहीं हुआ था और अभी के इन दस वर्षों ने तो क्रांति ला दी है, रंग और सुंदरता को लेकर हमारा सौंदर्यबोध सही मार्ग पर आ रहा है। आज की नई पीढ़ी गोरे रंग से भी आगे निकल रही है। रंग भेद कम हो रहा है। वो समझ रही है कि रंग तो सभी खूबसूरत होते हैं, ये दुनिया को रंगीन और हसीन बनाने के लिए होते हैं। यही कारण है कि बुद्धि, शिक्षा, उद्योग व्यापार, विचार, व्यवहार, आवाज, कला, गीत, संगीत, नृत्य, हेल्थ, हाइट, फिगर, नाक-नक्श और अन्य ना मालूम कितनी विशिष्टताएं, योग्यताएं अलग-अलग अंदाज में सुंदरता का मापदंड बनती जा रही हैं।
अमिताभ बच्चन ने अपनी आवाज और अभिनय से सुंदरता के मापदंड ही बदल दिए। शत्रुघ्न सिंहा, नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, आमिर खान और शाहरुख खानयोग्यता का कमाल है। शबाना आजमी, रेखा, स्मिता पाटिल, काजोल, सुष्मिता सेन, प्रियंका चौपड़ा, बिपाशा बसु, दीपिका पादुकोण आदि भी अपनी योग्यता के बल पर ही आगे बढ़ी है।
समाजवादी विचारक डॉ. राममनोहर लोहिया मालवा के मांडव में रानी रूपमती के महल को जब देखने गए तो गाइड ने कहा कि रानी रूपमती अपने समय की सबसे सुंदर नारी थी। डॉ. लोहिया ने कहा सबसे मत कहो, सुंदर कहो, क्योंकि कोई भी नारी असुंदर नही होती है। सभी एक दूसरे से बढ़कर सुंदर होती है। फ़र्क़ इन्हें देखने वाली नज़रों का दिमाग़ का हैं।
*डॉ. सुभाष खण्डेलवाल