अजय बोकिल
अयोध्या में भव्य राम मंदिर केशिलान्यास के मौके पर मंदिर की बुनियाद में कोई काल मंजूषा ( टाइम कैप्सूल ) नहीं डालने की खबर अगर सही है तो यह स्वयं काल का सम्मान है। उसकी अनंतता का स्वीकार है। क्योंकि समय को ‘गाइड’ नहीं किया जा सकता। हिंदू अवधारणा में काल एक चक्र की तरह है। राम मंदिर का निर्माण अगर सचमुच एक महान और युगांतरकारी कार्य है तो इतिहास बगैर किसी ‘टाइम कैप्सूल’ अथवा महानता की किसी ‘लांग टर्म एफडी’ के इसे स्वीकार करेगा। न सिर्फ स्वीकारेगा बल्कि भावी पीढि़यों को इसकी जानकारी और क्रेडिट भी मय ब्याज के देगा। यहां सवाल उठता है कि निर्माणाधीन राम मंदिर के नीचे ‘टाइम कैप्सूल’ रखने की बात आई कहां से? क्यों आई? और फिर ठंडे बस्ते में क्यों डाल दी गई ? क्या इसको लेकर आंतरिक मतभेद थे? क्या काल मंजूषा दफनाने का विचार देश की स्वतंत्रता की रजत जयंती पर तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा लाल किले में गाड़ी गई ‘टाइम कैप्सूल’ से प्रेरित था या फिर यह अविश्वास कि भविष्य राम मंदिर निर्माण का श्रेय उन्हें शायद न दे, जिन्होंने इसे सुनियोजित तरीके से एक धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक आंदोलन की तरह पकाया। तमाम विवादों और संघर्षों के बाद भी राम को हिंदुत्व के अधिष्ठाता और प्राचीन हिंदू गौरव के अर्वाचीन उद्घोष के रूप में चित्रित किया। ऐसे में काल उन्हें इस उपलब्धि का श्रेय देता ही कि मंदिर हिंदू संगठनो, विहिप आदि ने ही बनवाया है। उनकी हिंदू आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने वाला ‘राजा’ यानी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसका शिलान्यास किया। भले ही इस निर्माण से सामाजिक लामबंदी की नई रेखाएं खिंचने का पूरा अंदेशा हो।
पहले जान लें कि टाइम कैप्सूल की अवधारणा है क्या ? क्या यह सचमुच इतिहास का प्रामाणिक संरक्षक और वाहक है? दरसअल ‘टाइम कैप्सूल’ विशेष प्रकार की धातु से बना पात्र है। इसमें वैक्यूम होता है, इसलिए इसमें रखी सामग्री सदियों तक सुरक्षित रह सकती है। इस काल पात्र में वांछित सामग्री, चित्र आदि रख कर उसे जमीन में गहरे गाड़ दिया जाता है ताकि किसी भावी उत्खनन में भविष्य की मानव पीढि़यों को यह जानकारी मिल सके कि पहले क्या, क्यों और कब हुआ था। राम मंदिर टाइम कैप्सूल के बारे में बताया गया था कि इसमें ताम्र पत्र पर श्रीराम मंदिर का इतिहास, मंदिर का नक्शा व अन्य जानकारी होगी। यह जानकारी किस भाषा में होगी, यह साफ नहीं था। यह जरूर कहा गया था कि कैप्सूल मंदिर की नींव में 200 फीट नीचे गाड़ा जाएगा ताकि राम मंदिर निर्माण के कालक्रम और निर्माणकर्ता को लेकर कोई भ्रम भावी पीढि़यों को न रहे। टाइम कैप्सूल की सूचना पहले श्री रामजन्म भूमि तीर्थ ट्रस्ट के सदस्य और राम मंदिर का आरंभिक शिलान्यासकर्ता कामेश्वर चौपाल के हवाले से आई थी। इसकी पुष्टि एक भाजपा सांसद लल्लू सिंह ने भी की। कामेश्वर दलित हैं और रामभक्त हैं। सो माना गया कि सूचना सही ही होगी। वैसे भी आजकल हर काम के अंजाम तक पहुंचने से पहले ही उसका श्रेय लेने की होड़ मची रहती है तो फिर राम मंदिर में ऐसा न हो तो ही आश्चर्य। लेकिन दो ही दिन बाद इस खबर का न्यास के महासचिव चंपत राय ने इस खबर को यह कहकर खारिज कर दिया कि ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा। खबर ‘मनगढ़ंत’ है।
दरअसल अपने इतिहास को संजोने और उसे अमर कर देने की दिली इच्छा सबसे ज्यादा राजनेताओं के मन में होती है। यह जानते हुए भी कि इतिहास न तो किसी की बपौती होता है और न ही किसी का बंधक। फिर भी ऐसे प्रयास जारी रहते हैं। 1973 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने लाल किले में स्वतंत्र भारत के 25 वर्षों का इतिहासमय प्रमाणों के एक काल मंजूषा में संजोकर 32 फीट नीचे गाड़ दिया था। इसमें निश्चित रूप से क्या था, यह आजतक रहस्य है। लेकिन लोगों को शक था कि वह किसी परिवार अथवा पार्टी की स्तुति से सराबोर था। दुर्भाग्य उस ‘काल मंजूषा’ का कि जनता ने श्रीमती गांधी को सत्ता से बेदखल कर दिया और बाद में पीएम बने मोरारजी देसाई ने काल मंजूषा ही उखड़वा दी। इस घटना को भी अब 47 साल गुजर चुके हैं। इस दौरान काल के प्रवाह में कितने ही राजपुरूष बह चुके हैं। राजनीतिक-सामाजिक धाराएं नए तटों से टकरा रही हैं। हमारे देश में एक और टाइम कैप्सूल 2010 में आईआईटी कानपुर में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील ने गाड़ा था। जिसमें आईआईटी कानपुर के 50 सालों की जानकारी थी। तीसरा टाइम कैप्सूल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गांधी नगर में महात्मा मंदिर में डाला था।
वैसे टाइम कैप्सूल गाड़ना नई बात नहीं है। यह काल को अपने हिसाब आरक्षित कर लेने का पुराना इंसानी शगल है। दुनिया में सर्वाधिक 32 काल पात्र संयुक्त राज्य अमेरिका में डाले गए हैं। लेकिन वो कभी राजनीतिक मुद्दा शायद ही बने हों। इन टाइम कैप्सूलों का उद्देश्य मुख्यत: देश, संस्था, संगठन अथवा तंत्र का इतिहास भावी पीढि़यों के लिए सुरक्षित करना होता है। ऐसे ही दो टाइम कैप्सूल अंतरिक्ष में ‘प्रोब वोयेजर’ 1 और 2 के रूप में सहेजे गए हैं, जिनमे मानव सभ्यता की तमाम जानकारियां संरक्षित हैं। जॉर्जिया में एक टाइम कैप्सूल 1940 में इस मकसद से गाड़ा गया था कि अगर मानव सभ्यता कायम रही तो इसे सन 8113 में निकाल लिया जाएगा। मकसद ये जानकारी देना है कि सदियों पहले मानव सभ्यता कैसी थी और बाद में उसका क्या हुआ?
अब तक का सबसे पुराना काल पात्र 1742 का है, जो बोस्टन अमेरिका में मिला था। कुछ काल पात्र समयबद्ध होते हैं। यानी जिनके बारे में सूचित कर दिया जाता है कि उन्हें एक निश्चित अवधि के बाद खोला जाए। अब दुनिया में इतने टाइम कैप्सूल गाड़े जा चुके हैं कि इनका डाटा बेस तैयार करने के लिए 1990 में इंटरनेशनल टाइम कैप्सूल सोसाइटी का गठन किया गया है। इस सोसाइटी का अनुमान है कि भारत सहित पूरी दुनिया में लोगों ने 10 से 15 हजार तक टाइम कैप्सूल गाड़ दिए हैं और यह सिलसिला जारी है। अब तो वर्चुअल और डिजीटल टाइम कैप्सूल भी बनाए जा रहे हैं।
यहां बुनियादी सवाल यह है कि राम मंदिर हो या आजाद भारत की पच्चीसी, समकालीन इतिहास को काल पात्र में बंद कर दबा देना क्या वास्तव में ‘इतिहास’ शब्द के साथ न्याय है ? ऐसे प्रायोजित इतिहास का ऐतिहासिक मोल क्या है? क्या ये हमे मानव सभ्यता और संस्कृति के विकास को समझने में सचमुच कोई मदद करते हैं या केवल भ्रमित कर सकते हैं? इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ता ऐसा नहीं मानते। क्योंकि कोई भी काल मंजूषा बनवाकर अपनी तारीफ के पुल एक पात्र में गिफ्ट पैक की तरह जमीन में गड़वा सकता है, ताकि आने वाली नस्लें उसके ‘महान अवदान’ के बारे में जान सकें। लेकिन मानव सभ्यता के साथ फ्राॅड और मूर्खता की हद तक भोली मान्यता है। कारण कि भावी पीढि़यां हमारी भाषा, लिपि, प्रतीकों और भावों को उसी रूप में समझ जाएंगी, जैसा हम चाहते हैं, इसकी कोई गारंटी नहीं है। तीन हजार साल पुरानी सिंधु लिपि को ही हम अभी तक नहीं पढ़ पाए हैं। और अगर काल मंजूषा की सामग्री भावी पीढ़ी पढ़ भी ले तो ‘आत्म प्रशंसा’ को वह इतिहास क्योंकर मानेगी ?
भावी इतिहास में राम मंदिर का स्थान और महत्व इस बात से तय होगा कि वह आने वाली नस्लों को कितना और कैसे प्रेरित करती है, करती है भी या नहीं। न कि इस बात से कि इसे किसने और किस मकसद से बनवाया था। हम भारतीयों का काल बोध वैसे भी अलग तरह का है। हमारे पूर्वज तिथि और सन के चक्कर में ज्यादा नहीं पड़े। मानकर कि जो काल की कसौटी पर खरा उतरेगा, वही शाश्वत है। शायद इसीलिए हिंदू धर्म हजारों सालों से भौतिक रचनाओं के बजाए आस्था की अनंत काल मंजूषाओं में धड़कते हुए जिंदा है। हमारे लिए काल से तात्पर्य स्वयं ईश्वर की अभिव्यक्ति है। वह ईश्वर की ऊर्जा है। बीते हजारों साल में कई मंदिर बने, किसने बनाए, कब बनाए, ज्यादातर का ठीक-ठीक कालक्रम हमे मालूम नहीं है। लेकिन वो सभी मंदिर इतिहास के साक्षी हैं और इतिहास भी उन मंदिरों की ध्वजा के साथ आगे बढ़ रहा है। राम मंदिर में भी टाइम कैप्सूल गाड़ने का कोई औचित्य नहीं है। इसके निर्माण ( अथवा पुनर्निमाण ) का श्रेय भावी पीढि़यां जिसे देना होगा, देंगी। न देना होगा, न देंगी। श्रेय को छीना नहीं जा सकता। न तो उसे किसी व्यक्ति, संगठन अथवा समाज के लिए आरक्षित किया जा सकता है और न ही उसे पेन ड्राइव में सहेजा जा सकता है कि जब चाहा खोल लिया। यदि आपने काल की इच्छा के अनुरूप सही और न्यायसंगत कार्य किया है तो उसे कोई दबा नहीं सकता। जब कोई दबा नहीं सकता तो इतिहास को काल मंजूषा में कैद किया ही क्यों किया जाना चाहिए?