अजय बोकिल
ज्योतिष पत्रकारिता तो होती है, लेकिन पत्रकारिता में न तो ज्योतिष और न ही कोई मुहूर्त होता है। अगर होता भी है तो 24 घंटे होता है। इस लिहाज से पत्रकार को ‘मुहूर्त’ जैसे विषय पर लिखने से बचना चाहिए। लेकिन अयोध्या में बनने वाले भव्य राम मंदिर के शिलान्यास मुहूर्त को लेकर जो ( अनावश्यक) विवाद छिड़ा है, उस पर एक आम नागरिक के रूप में टिप्पणी जरूरी है। क्योंकि इतिहास मुहूर्त के बजाए परिणामों और उपलब्धियों से आकार लेता है। और फिर जिसे हम स्वयं सृष्टि का स्वामी मानते हों, उसकी प्रतिष्ठापना अथवा उसके आलय को मुहूर्त की कसौटी पर कसने का मानवीय आग्रह शास्त्र विधान कम वक्त की बर्बादी ज्यादा लगता है। ‘मुहूर्त’ एक हिंदू कालगणना पद्धति है, लेकिन उसका शुभ अथवा अशुभ होना हमारी आस्था का परिणाम है। जो विवाद पैदा किया जा रहा है, वह मुहूर्त शास्त्र पर सार्थक बहस कम और मुहूर्त के राजनीतिक फलित से ज्यादा प्रेरित लगता है।
उपलब्ध जानकारी के मुताबिक अयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 5 अगस्त 2020 को दोपहर 12 बजकर 15 मिनट 32 सेकंड पर मंदिर की नींव में चांदी की ईंटें रखकर रखेंगे। इसे ‘अभिजीत मुहूर्त’ कहा जा रहा है। पंचाग के अनुसार अभिजीत मुहूर्त बोले तो प्रतिदिन मध्याह्न से 24 मिनट पहले शुरू होकर मध्याह्न के 24 मिनट बाद समाप्त हो जाने वाला समय। इस हिसाब से अभिजीत मुहूर्त ठीक दोपहर 12:24 पर समाप्त होगा। ज्योतिषियों के अनुसार हर स्थान का अभिजीत मुहूर्त अलग-अलग होता है। चूंकि यह आकाश मंडल में मध्य में अवस्थित माना जाता है, इसलिए स्वयं सिद्ध है, फलदायी है।
लेकिन कुछ धर्माचार्यों और ज्योतिष विद्वानों को इस पर आपत्ति है। ज्योतिष और द्वारिका पीठ के वयोवृद्ध शंकराचार्य जगदगुरू स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का कहना है कि 5 अगस्त को दक्षिणायन भाद्रपद मास कृष्ण पक्ष की द्वितीया तिथि है। शास्त्रों में भाद्रपद मास में गृह एवं मंदिरारंभ कार्य निषिद्ध है। साथ ही यह कृष्णपक्ष में हो रहा है। इस बारे में काशी विद्वत परिषद के संयोजक डाॅ. रामनारायण द्विवेदी का कहना है कि चूंकि मंदिर स्वयं भगवान श्रीराम का है और उसका शिलान्यास भी देश के ‘राजा’ (प्रधानमंत्री) कर रहे हैं, इसलिए मुहूर्त ज्यादा मायने नहीं रखता। बताया जाता है कि मंदिर के भूमि पूजन की अहम जिम्मेदारी काशी विद्वत परिषद, वृंदावन को दी गई है।
शंकराचार्य की आपत्ति की अनुगूंज कांग्रेस के राज्यसभा सांसद दिग्विजय सिंह के ट्वीट में भी जान पड़ी। उन्होंने कहा कि सभी प्रमाणित शंकराचार्यों को आमंत्रित कर शुभ मुहूर्त में ही राम मंदिर शिलान्यास करवाना उचित होगा। ये धार्मिक विषय है, केन्द्र सरकार राजनीति को इससे दूर रखे। इसके पूर्व राकांपा नेता शरद पवार और पूर्व भाजपाई शत्रुघ्न सिन्हा ने भी कोरोना काल में राम मंदिर शिलान्यास के औचित्य पर सवाल उठाए थे। शिलान्यास का मुद्दा गरमाते देख राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के अध्यक्ष कमल नयन दास ने सफाई दी कि मंदिर का शिलान्यास तो 1989 में दलित कारसेवक कामेश्वर चौपाल ने ही कर दिया है। प्रधानमंत्री को अब केवल आधारशिला रखकर निर्माण कार्य का शुभारंभ करना है। इस पर शंकराचार्य ने सवाल किया कि शिलान्यास अगर पहले ही हो चुका है तो अब क्या होने जा रहा है ? जगदगुरू ने यह आरोप भी जड़ा कि अयोध्या में राम मंदिर के बजाए संघ कार्यालय का निर्माण किया जा रहा है। इस पर अयोध्या के संत समाज ने स्वरूपानंद को चुनौती दे डाली कि वे अपना शास्त्रार्थ ज्ञान 5 अगस्त को आकर सिद्ध करें।
इसमें दो राय नहीं कि सनातन हिंदू धर्म के सर्वोच्च अधिष्ठाता के नाते चारों पीठों के शंकराचार्यों को इस आयोजन का भागीदार होना चाहिए। लेकिन बीते तीन दशकों में राजनीतिक प्रतिबद्धताओ और सत्ताकांक्षाओं ने हिंदू धर्माचार्यों को कई खेमो में बांट दिया है। इन खेमों को ‘भगवान राम’ भी एक नहीं कर पा रहे हैं। स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती की पीड़ा है कि धर्म दंड उनके हाथ में होने के बाद भी राम मंहदिर अनुष्ठान से उन्हें दूर रखा जा रहा है। इसका कारण उनके राजनीतिक झुकाव के साथ-साथ राम के रूप में हिंदुओं की सनातनी आकांक्षाओं का उन सीमाओं से बहुत आगे निकल जाना है, जिन हदों में शंकराचार्य आज भी खुद को समेटे हुए हैं।
एक आम राम भक्त की नजर में यह बेतमलब है कि कौन संत या राजनेता शिलान्यास समारोह का साक्षी बनता है या नहीं, किसे न्यौता जाता है या नहीं, कौन सा मुहूर्त ‘अभिजीत’ है या कौन सा मुहूर्त ‘अरिजीत’ है। राम भक्त का ध्यान तो भव्य मंदिर निर्माण और उसमें राजा राम की दिव्य प्रतिष्ठापना पर है, जिसकी तमन्ना इस देश का जनमानस सदियों से पाले हुए हैं और जो धार्मिक राजनीतिक और न्यायिक संघर्ष के बाद आज इस मुकाम तक पहुंची है।
रहा सवाल मुहूर्त के महात्म्य का तो इसके औचित्य पर सवालिया निशान होने के बावजूद हिंदू धर्म में इसका महत्व आदिकाल से बना हुआ है। हिंदू सभ्यता चार हजार सालों में अपने उत्थान, पतन और पुनरूत्थान की घुमेरदार घाटियों से गुजरी है और गुजर रही है। लेकिन बहुसंख्य हिंदू अवचेतन में मुहूर्त की महत्ता और काल का भय, कई मायनों में हमारे कालजयी होने के बाद भी कायम है। भाषा की दृष्टि से देखें तो ‘मुहूर्त’ संस्कृत शब्द है, जो दो शब्दों ‘मुहु’ और ‘ऋत’ की संधि से बना है। मुहु से तात्पर्य क्षण/घड़ी तथा ऋत से अर्थ क्रम से है। अर्थात कालक्रम। यही हिंदू कालमापन की पद्धति है जो वैदिक काल से चली आ रही है। इसका अपना एक शास्त्र है। ब्राह्मण ग्रंथों में उल्लेख है कि ‘मुहूर्त’ का अर्थ दिन का तेरहवां हिस्सा है। आज के हिसाब से 48 मिनट। हर मुहूर्त 30 कालों में बंटा रहता है। अोशो रजनीश के अनुसार मुहूर्त अनूठा शब्द है। समय के दो क्षणों के बीच में जो समयातीत जरा-सी झलक है, वही मुहूर्त है। मुहूर्त समय के बाहर की झलक है। जैसे क्षणभर को बादल हटे, तुम्हें चांद दिखाई पड़ा, फिर बादल इकट्ठे हो गए। तुम्हारे विचार हट गए और तुम स्वयं को दिखाई पड़े, भीतर की रोशनी अनुभव हुई।
हमारे यहां मुहूर्त से मुराद किसी भी कार्य के शुभारंभ से है। यह मान्यता कि अच्छेि मन और कामना से शुरू किया गया कोई भी काम सफल होता है। लेकिन राम मंदिर शिलान्यास के मामले में मुहूर्तों का ऐसा घालमेल है कि क्या सही और क्या नहीं, समझना मुश्किल है। आलोचना से बचने के लिए अब शिलान्यास को ‘आधारशिला संस्थापन’ कहा जा रहा है। चूंकि इस राम मंदिर की आभा में जनभावना के साथ राजनीतिक मनोकामना भी निहित है, इसलिए इसका शिलान्यास प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हाथों ही होना था। क्योंकि यह मंदिर ‘राजा’ और ‘योद्धार राम’ का है। मंदिर भाजपा के सियासी एजेंडे का भी अहम हिस्सा रहा है। इसीलिए कोरोना संकट के बाद भी राम मंदिर को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है।
कोई भी कार्य शुभ मुहूर्त देखकर हो, इसमें कोई बुराई नहीं है। राम मंदिर निर्माण से इस देश की ऐहिक समस्याएं हल हों न हों, लेकिन आस्थावानों को आत्मिक संतुष्टि जरूर मिलेगी। वास्तव में मुहूर्त तो कर्म की पहली पायदान है, वो समय के कम्प्यूटर स्क्रीन पर भावना के माउस से किया गया ऐसा क्लिक है, जिससे अरमानो का पूरा संसार एकाएक खुल जाता है।
अब ‘शुभ मुहूर्त’ का व्यावहारिक औचित्य क्या है, इस पर सोचें तो राम मंदिर के पहले शिलान्यास के बाद भी कई व्यवधान आए, कई आहुतियां हुईं तो क्या वह मुहूर्त वास्तव में ‘शुभ’ था? बहुतों का मानना है कि राम मंदिर शिलान्यास के स्वाभाविक हकदार तो ‘राम रथ यात्री’ वो बुजुर्ग लालकृष्ण आडवाणी हैं, जिन्होने ‘राम’ को हिंदू जनमानस में नए स्वरूप में पुनर्प्रतिष्ठित किया। लेकिन इस आयोजन में वो दर्शक भी होंगे या नहीं स्पष्ट नहीं है। यानी जिस शुभ मुहूर्त में उन्होंने ‘राम रथ यात्रा’ निकाली, उसका वैयक्तिक अंत इस ‘त्रासद’ रूप में होगा, यह तो आडवाणी ने भी नहीं सोचा होगा।
‘हिंदू’ को अगर हम एक सभ्यता मानें तो विश्व में सभ्यताओं ने अपने झंडे दूरदृष्टि, दृढ़ संकल्प, कर्मशीलता, वैज्ञानिक सोच और जुझारूपन से गाड़े हैं। सदियों पहले हमने भी अपनी सांस्कृतिक ध्वजा दुनिया में लहराई थी, लेकिन उसका पतन इसलिए हुआ, क्योंकि हम खुद ‘राम भरोसे’हो गए। हकीकत में राम उसी के साथ होते हैं, जो राम के सहारे नहीं जीता। राम मंदिर शिलान्यास की तारीख 5 अगस्त की महिमा यह भी है कि इसने देश का ‘पूर्ण एकीकरण’ किया। लेकिन राम तो लंका पर अपनी सैनिक विजय को राजनीतिक-भौगोलिक विजय में नहीं बदलते। राम’सांस्कृतिक विजय के प्रतीक हैं।
इसलिए मंदिर शिलान्यास के मुहूर्त को लेकर लट्ठमलट्ठा का कोई औचित्य नहीं हैं। इस मंदिर के माध्यलम से परस्पर विश्वास और शांति का नया महल खड़ा हो सके तो बहुत अच्छा। और फिर राम तो कई रूपो में हैं। संत कबीर ने कहा है-‘एक राम दशरथ का बेटा,एक राम घट-घट में बैठा। एक राम का सकल पसारा, एक राम है सबसे न्यारा।‘ इस ‘न्यारे राम’ में ही वो भारत बसता है, जिसके बाशिंदे मुहूर्त से ज्यादा मानवता के मर्म में यकीन रखते हैं। इसी में उन्हें ‘राम’ दिखता है।