राम, कृष्ण, मुक्ति संघर्ष और स्वतंत्रता

Akanksha
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jayram shukla

जयराम शुक्ल

ऋतुराज वसंत शौर्य, उत्सव और उत्सर्ग के लिए जाना जाता है तो पावस(वर्षा ऋतु) की हरीतिमा में पवित्रता, मुक्ति, विजय और क्रांति के सूत्र जुड़े है। सावन और भादौं की संक्रांति में अँग्रेज़ी महीना अगस्त आता है। यह महीना अपने देश के लिए युगांतरकारी है। विगत वर्ष 5 अगस्त के दिन धरती के स्वर्ग जम्मू-कश्मीर को अनुच्छेद 370 और 35 के बंधन से मुक्ति मिली तो इस वर्ष के 5 अगस्त को अयोध्या में चिरप्रतीक्षित रामलला मंदिर के शिलान्यास के साथ हमारे स्वाभिमान की प्राणप्रतिष्ठा की गई। 9 अगस्त ‘अगस्त क्रांति’ दिवस के रूप में मनाया जाता है( 1942 में इसी दिन अँग्रेजों भारत छोड़ो का उद्घोष हुआ था) इस वर्ष 11-12अगस्त को जन्माष्टमी पड़ रही है और 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस है ही। क्या कभी आपने विचार किया है कि इन तिथियों/दिनांकों का आपस में कितना गहरा प्रतीकात्मक रिश्ता हो सकता है..? आइए इसी विषय पर विमर्श करते हैं।

जन्माष्टमी से तीन दिनों बाद हम स्वतंत्रता दिवस मनाएंगे। आमतौर पर ये दोनों तिथियां आगे-पीछे ही आती हैं। एक पराधीनता से मुक्ति का पर्व दूसरा एक ऐसे महाविभूति का जन्मदिवस जिसने बाह्य और आंतरिक दोनों की गुलामी से मुक्ति का मार्ग दिखाया।

खोजें तो दोनों तिथियों के अंतरसंबंध के सूत्र निकल आएंगे। कृष्ण आदि स्वतंत्रता सेनानी थे। स्वाधीनता और स्वतंत्रता क्या है कृष्ण के जरिए अच्छे से समझा जा सकता। राम और कृष्ण में यही बुनियादी फर्क है। राम लक्ष्यधारी थे और कृष्ण चक्रधारी। चक्र के निशाने पर दसों दिशाएं रहती हैं एक साथ। बाण का एक सुनिश्चित लक्ष्य रहता है। इसलिए दोनों के आयुध भी अलग अलग ।

एक का धनुष बाण दूजे का सुदर्शन चक्र। दोनों महाविभूति युगों से इसलिए देश के प्राण में बसे हुए हैं क्योंकि इनकी प्रासंगिकता सोते-जागते प्रतिक्षण है। यदि हम गुलाम हुए हैं, चाहे मुगलों के या अँग्रेज़ों के, तो यह सुनिश्चित मानिए कि हमने इनको समझने में चूक की होगी। मंदिरों में बिराजकर शंख, घडी़-घंट बजाने भर से ही इतिश्री नहीं हो जाती। इन महानविभूतियों के पराक्रम,आचरण और आदेश, उपदेश को समझना होगा।

राम का लक्ष्य साम्राज्यवाद और आतंकवाद के खिलाफ था। साम्राजयवादी रावण के आतंकी जहां तहां थे। संघर्ष भी ऋषिसंस्कृति और आसुरीसंस्कृति के बीच था। रावण अपनी दौलत और ताकत के दम पर अखिल विश्व में आसुरी संस्कृति का विस्तार कर रहा था। एक तरफ रावण तो दूसरी तरफ वशिष्ठ, विश्वामित्र, अगस्त्य। द्वंद विध्वंसकों और सर्जकों के बीच था। ये हमारे ऋषि-मुनि उस समय के वैग्यानिक थे। पौरुष न हो तो विग्यान धरा रह जाता है। इन विग्यानियों ने राम को सुपात्र समझा और शस्त्र व शास्त्र की दीक्षा दी। ताड़का, सुबाहु के साथ आतंकवाद के खिलाफ वे अपना अभियान सुदूर दक्षिण दंडकारण्य ले गए। खरदूषण, त्रिसरा जैसे आतंकियों का खात्मा किया।

आतंकवाद की नाभिनाल पर प्रहार करना है तो पहले उसके आजू बाजू काटने होंगे। राम ने यह काम किया और साम्राज्यवाद की प्रतीक सोने की लंका को धूल धूसरित करते हुए रावण का कुल समेत नाश किया। राम ने सर्वसुविधायुक्त अयोध्या इसलिए छोड़ी और जंगल गए क्योंकि जिनके लिए यह काम करना है वो भी इसमें शामिल हों।

बिना जनजागरण के, अंतिम छोर पर खड़े विपन्न आदमी को सशक्त किए बगैर कोई लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता। राम ने पहले निषाद, वनवासी, वानर,भालु सभी उपेक्षित और वंचित समुदाय को जागृत किया, उन्हें सशक्त बनाया फिर आत्मविश्वास भरा तब कहीं उनकी सेना को ले जाकर रावण व उसके साम्राज्य का अंत किया।

आप देखेंगे कि रामादल में वनवासी, वानर, भालू के अलावा कोई थे तो वे ऋषि मुनि थे वह भी मार्गदर्शक की भूमिका में। वे चाहते तो भरत की भी सेना आ सकती थी और जनक की भी। इंद्र तो दशरथ का ऋणी भी था कहते तो वह भी अपनी चतुरंगिणी देवसेना भेज सकता था। पर राम ने इसकी जरूरत नहीं समझी।

हम जिसके लिए लड़ रहे हों वह इसमें शामिल न हो, लड़ाई का महत्व न समझे तो लडा़ई का कोई अर्थ नहीं। सरकारों की बड़ी से बड़ी योजनाएं क्यों फेल हो जाती हैं क्यों ? इसलिए कि जिनके लिए बनती हैं उन्हें न उनका महत्व मालुम न ही कोई भागीदारी।

गांधी क्यों राम को अंत समय तक भजते रहे। इसलिए कि वे अच्छे से यह जानते थे कि सफलता का मूलमन्त्र रामचरित से ही निकलता है। बैरिस्टरी छोड़ी, सूटबूट को फेका फिर आमजीवन में रचबस पाए। उन्होंने राम का अनुशरण किया। राम ने राजपाट, वेषभूषा सब त्यागकर स्वयं को वनवासियों में समाहित कर लिया था। गाँधीजी दुनिया भर में इसलिए पूज्य और महान हैं क्योंकि उन्होंने रामचरित को स्वयं में उतारने की कोशिश की।

सुशासन राम का आदर्श, राम का आचरण ही ला सकता है। यह ढोल मजीरा लेकर राम राम जपने से नहीं आएगा। गाँधीजी कहते थे मेरा जीवन, मेरा आचरण ही मेरा उपदेश है। कवियों-मीमांसकों ने राम के उपदेश नहीं राम के चरित को ही लोक के सामने रखा।

बात जन्माष्टमी और स्वतंत्रता दिवस से शुरू हुई थी। कृष्ण एक मात्र ऐसे मुक्तिदाता हैंं जो आंतरिक व बाह्य गुलामी से स्वतंत्र कराते हैं। हम लोग स्वाधीनता और स्वतंत्रता को प्रायः एक अर्थ में लेते हैंं। दोनों के मायने अलग अलग हैं। अँग्रेजी में भी अलग अलग है।

स्वाधीनता जैसे कि शब्द से स्पष्ट है स्व के आधीन। जब किसी पर निर्भरता न रह जाए। और स्वतंत्रता, यह तो कृष्ण का ही पर्यायवाची है। जन्म के साथ ही बेडी- हथकड़ी कट गई। कोई बंधन नहीं। बिल्कुल मुक्त।

स्वाधीनता और स्वतंत्रता कृष्ण कथा के माध्यम से समझिए। जन्म के बाद वे ब्रज पहुँचते हैं। कृष्ण कृषि के देवता हैं। शाब्दिक व्युत्पत्ति भी ऐसी ही है। बाल्यकाल में भी सयानापन। कृष्ण देखते हैं ब्रज के लोग विविध प्रकार के कर्मकांडों से बिंधे हैं। पानी के लिए इंद्र की पूजा। दूध दही और उपज की चौथ कंस के जागीरदारों को। कृष्ण ने यह बंद करा दिया।

पूजा करना ही है तो गोबर्धन को पूजिए। वहां से मवेशियों को चारा मिलता है। वह औषधियां देकर निरोगी रखता है। ब्रज का वह आश्रयदाता है। नाराज इंद्र ने भारी बारिश की। कृष्ण ने गोबर्धन उठा लिया। सभी वहीं रक्षित हुए। इंद्र हारा, ब्रजवासी जीते क्योंकि गोबर्धन पर विश्वास उनके साथ था।

आप प्रकृति को अपने साथ लेकर चलेंगे तो वह आपको विपदा से बचाएगी, स्वाधीन बनाएगी। गोबरधन गाय और उसके उत्पादों का भी प्रतीक है। कृष्ण ने ब्रज को कंस की पराधीनता से मुक्त कराया। कृष्ण ने ब्रज को बताया कि स्वतंत्रता क्या होती है।

गाय-बछडों को खूंटे से स्वतंत्र करिए और ब्रज वनिताओं को चूल्हाचक्की से। सभी खुली हवा में साँस लें। स्त्रीसशक्तीकरण का काम कृष्ण ने किया। नर नारी सब बराबर। द्रौपदी जैसे चरित्र की प्राणप्रतिष्ठा की इसी चरित्र को राष्ट्रधर्म की संसथापना का हेतु बनाया। महाभारत गृहयुद्ध होते हुए भी मुक्ति का संग्राम था। वहाँ सत्य और धर्म गुलाम था। दुर्योधन की कौरवी सेना से सत्त व धर्म को स्वतंत्र करवाया। भाई, सहोदर, पितामह गुरू तमाम नात रिश्तेदार भले ही रक्त-संबंध से जुड़े हों वे राष्ट्रधर्म ऊपर नहीं हो सकते है। कृष्ण ने अखिल विश्व को यह संदेश दिया।

जरासंघ के कैदखाने से राजाओं को छुडा़या, तो नरकासुर के अंतःपुर से नारियों को। वे वहीं गए जहाँ देखा कि यहां गुलामी है, पराधीनता है।

क्या हो रहा है और क्या होना चाहिए.. सभी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की रीति-नीति इसी की परिधि में परिक्रमा करती है। व्यासजी का महाभारत बताता है कि यह हो रहा है, वाल्मीकि जी की रामायण कहती है कि ऐसा होना चाहिए। इन दोनों महान ग्रंथों के भीतर ही भारतवर्ष के कुशलक्षेम के सिद्धांत और सूत्र हैं। आयातित विचार नए किस्म की पराधीनता लाते हैं। अथाह रत्नाकर सदृश हमारे वैदिक वांग्मय में रत्न ही रत्न हैं। पहले उन्हें खोजें, पहचाने और चीन्हें।

राम और कृष्ण का चरित्र इस सांसारिक दुनिया में स्वाधीनता, स्वतंत्रता और सुराज के लिए प्रतिक्षण संघर्ष की प्रेरणा देता है। राम-कृष्ण को मंदिरों में पूजें, आरती उतारे, इससे ज्यादा बड़ी पूजा यह कि इनके चरित को, उससे निकली प्रेरणा और सीख को व्यवहारिक जीवन में उतारें।