राज-काज: माननीयों का यह रवैया कितना जायज….

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 दिनेश निगम ‘त्यागी’
माननीयों अर्थात विधायकों, मंत्रियों का रवैया कई बार गंभीर मसलों पर कितना आपत्तिजनक और घातक होता है, इसका उदाहरण है कोरोना गाइडलाइन के पालन के संदर्भ में सार्वजनिक हुए कुछ बयान। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार अपील कह रहे हैं कि कोरोना जैसी महामारी को हराना है इसलिए तय की गई गाइडलाइन का पालन करें। कोरोना के फिर जोर पकड़ने पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपील की है कि मास्क लगाएं, दो गज की दूरी बनाकर रखें और जरूरी होने पर ही घर से बाहर निकलें।

इस बीच शिवराज मंत्रिमंडल की ही सदस्य ऊषा ठाकुर ने कह दिया कि उन्हें मास्क लगाने की जरूरत नहीं है क्योंकि वे रोज हनुमान चालीसा का पाठ करती हैं, कोरोना मेरे पास नहीं आएगा। बसपा विधायक रामबाई बोल गई कि मैं जुर्माना भर दूंगी लेकिन मास्क नहीं पहनूंगी। इसी तरह के बयान कुछ अन्य विधायकों के भी सामने आए हैं। सवाल यह है कि माननीयों के इन बयानों से इन्हें चाहने वाले क्या आचरण करेंगे? ऐसा कर ये अपने समर्थकों को मौत के मुंह में धकेलने का काम नहीं कर रहे हैं? क्या कोरोना जैसी महामारी से निबटने में इनकी कोई जवाबदारी नहीं? सवाल संबंधित पार्टी के नेतृत्व पर भी है, जिसने ऐसा बोलने वालों से जवाब तक तलब करने की जरूरत नहीं समझी।

वीडी ने फिर मनवाया अपना लोहा….
पहले राज्य मंत्रिमंडल के सदस्यों का चयन, फिर प्रदेश कार्यकारिणी का गठन और अब विधानसभा अध्यक्ष का चुनाव, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वीडी शर्मा पार्टी के अंदर लगातार अपनी ताकत का लोहा मनवा रहे हैं। वीडी के कारण मंत्रिमंडल में धुरंधरों को छोड़कर अपेक्षाकृत नए विधायकों को जगह मिली। उनके कारण ही मंत्री बनने से वंचित दिग्गजों को संगठन में भी स्थान नहीं मिला। अब जब बड़े नेता विधानसभा अध्यक्ष के लिए विंध्य से राजेंद्र शुक्ला एवं केदारनाथ शुक्ला की पैरवी कर रहे थे, तब वीडी की बदौलत गिरीश गौतम विधानसभा की आसंदी पर बैठ गए।

साफ है, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान हैं लेकिन संगठन में निर्णय वीडी शर्मा की मर्जी से हो रहे हैं। लंबे समय बाद पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष मुख्यमंत्री की मर्जी से चलता नहीं दिखाई पड़ता। वीडी ने एक और एलान किया है कि निकाय चुनावों में नेता पुत्रों को टिकट नहीं दिए जाएंगे। अर्थात यहां भी पत्ता साफ। भाजपा में इसे बदलाव के दौर और नई पीढ़ी को आगे लाने के अभियान के तौर पर देखा जा रहा है। स्थिति यह है कि निकाय चुनाव के लिए टिकट के दावेदारों की नजरें सिर्फ वीडी पर हैं। सभी उनके ही चक्कर लगाते दिख रहे हैं। शेष नेताओं के बंगलों में सन्नाटा है।

 परंपरा तोड़ने का असली दोषी कौन?….
विधानसभा के उपाध्यक्ष पद को लेकर संशय की स्थिति है। यह पद भाजपा और कांग्रेस के बीच टकराव का कारण बन गया है। भाजपा का आरोप है कि कांग्रेस सत्ता में आई तो उसने उपाध्यक्ष का पद विपक्ष को न देकर वर्षाें से चली आ रही परंपरा तोड़ी है, इसलिए भाजपा भी अब उपाध्यक्ष अपना ही बनाएगी। जबकि कांग्रेस का तर्क है कि भाजपा ने विधानसभा अध्यक्ष का चुनाव सर्वसम्मति से नहीं होने दिया और अपना उम्मीदवार उतार दिया। इसलिए परंपरा तोड़ने की दोषी भाजपा है। ऐसे में परंपरा तोड़ने का दोषी किसे ठहराया जाए, यह निष्कर्ष निकालना कठिन है।

भाजपा का लगभग हर नेता कह रहा है कि उपाध्यक्ष भी हमारा ही होगा। बावजूद इसके विधानसभा उपाध्यक्ष का चुनाव टाला जा रहा है। भाजपा चाहती तो अध्यक्ष के तत्काल बाद उपाध्यक्ष का चुनाव भी करा लेती, जैसा कांग्रेस ने सत्ता में रहते किया था। चुनाव टालने से कयास लग रहे हैं कि स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपराओं के तहत बैर-भाव भुला कर भाजपा एक बार फिर उपाध्यक्ष का पद विपक्ष अर्थात कांग्रेस को तो नहीं सौंप देगी? इस कयास की वजह मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान एवं नेता प्रतिपक्ष कमलनाथ के बीच की कैमिस्ट्री भी है। दोनों शिष्टाचार के तहत एक दूसरे के बंगले जाकर मुलाकात करते रहते हैं। हालांकि आखिर में फैसला तो भाजपा नेतृत्व को ही करना है।

 कांग्रेस के अंदर फिर घिरे कमलनाथ….
ज्योतिरादित्य सिंधिया और लगभग दो दर्जन विधायकों के पार्टी छोड़ने के बाद लगा था, कांग्रेस की अंदरूनी कलह खत्म हो जाएगी। पार्टी में कमलनाथ को कोई चुनौती नहीं होगी। यह संभावना गलत साबित होने में ज्यादा समय नहीं लगा। कांग्रेस के दोनों प्रमुख पदों पर कब्जे के कारण कमलनाथ के खिलाफ विरोध के स्वर पहले से उभर रहे थे। किसी और को नेता प्रतिपक्ष अथवा प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाने की चर्चा तेज थीं।

ऐसी चर्चााओं पर विराम भी लग गया, पर महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे की पूजा करने वाले बाबूलाल चौरसिया को कांग्रेस में शामिल करने से पार्टी के अंदर दबा ज्वालामुखी फूट पड़ा। अरुण यादव ने सबसे पहले कमलनाथ के खिलाफ मोर्चा खोला। इसमें मीनाक्षी नटराजन, लक्ष्मण सिंह, मानक अग्रवाल सहित लगभग एक दर्जन नेता कूद पड़े। सभी ने गोडसे भक्त को पार्टी में लेने के लिए कमलनाथ की आलोचना शुरू कर दी। मानक अग्रवाल ने यहां तक कह दिया कि कमलनाथ को स्पष्ट करना चाहिए कि वे गोडसे की विचारधारा के साथ हैं या महात्मा गांधी की। साफ है, कमलनाथ की पार्टी में धमक अब भी कमजोर है। उनके खिलाफ आक्रोश खदबदा रहा है। प्रदेश में कांग्रेस की दुर्गति और सत्ता जाने का जवाबदार उन्हें ही माना जा रहा है।

एक और पारी खेलने दिग्विजय के बढ़ते कदम….
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह सधे कदमों से एक और पारी खेलने की ओर आगे बढ़ते दिख रहे हैं। भोपाल से लोकसभा चुनाव हारने के बाद उन्होंने कहा था कि वे आगे भी भोपाल में सक्रिय रहकर जनता की सेवा करेंगे। दिग्विजय भोपाल में उसी तरह सक्रिय भी हैं, जैसे एक जनप्रतिनिधि को होना चाहिए। भोपाल के साथ वे प्रदेश के दौरे भी कर रहे हैं लेकिन पहली बार उनके कदम प्रदेश में एक और पारी खेलने की ओर आगे बढ़ते दिख रहे हैं।

उन्होंने ऐलान किया है कि तीन केंद्रीय कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदेश भर में किसान महापंचायतें आयोजित की जाएंगी। इनमें वे हिस्सा लेंगे और किसानों को कानूनों की हकीकत बताएंगे। ऐलान के साथ उन्होंने तीन महापंचायतों के कार्यक्रम भी जारी कर दिए। प्रदेश कांग्रेस पहले से किसान आंदोलन के समर्थन में प्रदर्शन करती आ रही है। पहली बार दिग्विजय सिंह ने अपनी ओर से यह ऐलान किया। जब कांग्रेस में कमलनाथ के खिलाफ विरोध के स्वर तेजी से उभर रहे हैं, ऐसे में दिग्विजय सिंह का यह एलान कई तरह की अटकलों को जन्म दे रहा है। कहा जा रहा है कि दिग्विजय भी प्रदेश का नेतृत्व संभालने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। ऐसे में प्रदेश में कांग्रेस की राजनीति किस करवट बैठती है, देखने लायक होगा।