राहत इंदौरी : उर्दू के मशहूर शायर की इन शायरियों पर मरते है लोग, पढ़े चुनिंदा शेर

Ayushi
Updated on:

उर्दू के मशहूर शायर राहत इंदौरी का आज इंदौर के अरविंदो अस्पताल में निधन हो गया है। बीते दिन उन्हें कोरोना पॉजिटिव पाया गया था। इसकी जानकारी उन्होंने खुद ट्विटर के माध्यम से दी थी। उन्होंने अपने जीवन के आखरी पल अरविंदो हॉस्पिटल में बिताए। आपको बता दे, राहत इंदौरी एक ऐसे शायर जो न केवल भारत में मशहूर थे, बल्कि उनकी शायरी विदेश में भी काफी पसंद की जाती थी। लंबे अरसे से श्रोताओं के दिल पर राज करने वाले राहत साहब की शायरी में हिंदुस्तानी तहज़ीब का नारा बुलंद है।

उनका जन्म 1 जनवरी 1950 को इंदौर, मध्य प्रदेश में हुआ था। उनके पिता का नाम रफ्तुल्लाह कुरैशी थे। आज हम आपको उनकी कुछ चुनिंदा शायरियां बताने जा रहे हैं। जो काफी यदा मशहूर थी। राहत इंदौरी की शायरी का अंदाज़ बहुत ही दिलकश होता है। वे अपनी लोकप्रियता के लिये कोई ऐसा सरल रास्ता नहीं चुनते जो शायरी की इज़्ज़त को कम करता हो। राहत मुशायरों के ऐसे हरफनमौला हैं जिन्हें आप किसी भी क्रम पर खिला लें, वे बाज़ी मार ही लेते हैं। उनका माईक पर होना ज़िन्दगी का होना होता है।

तूफ़ानों से आँख मिलाओ, सैलाबों पर वार करो
मल्लाहों का चक्कर छोड़ो, तैर के दरिया पार करो

ऐसी सर्दी है कि सूरज भी दुहाई मांगे
जो हो परदेस में वो किससे रज़ाई मांगे

…फकीरी पे तरस आता है

अपने हाकिम की फकीरी पे तरस आता है
जो गरीबों से पसीने की कमाई मांगे

जुबां तो खोल, नजर तो मिला, जवाब तो दे
मैं कितनी बार लुटा हूँ, हिसाब तो दे

फूलों की दुकानें खोलो, खुशबू का व्यापार करो
इश्क़ खता है तो, ये खता एक बार नहीं, सौ बार करो

बहुत हसीन है दुनिया

आँख में पानी रखो होंटों पे चिंगारी रखो
ज़िंदा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो

उस आदमी को बस इक धुन सवार रहती है
बहुत हसीन है दुनिया इसे ख़राब करूं

बहुत ग़ुरूर है दरिया को अपने होने पर
जो मेरी प्यास से उलझे तो धज्जियां उड़ जाएं

मैं बच भी जाता तो…

किसने दस्तक दी, दिल पे, ये कौन है
आप तो अन्दर हैं, बाहर कौन है

ये हादसा तो किसी दिन गुजरने वाला था
मैं बच भी जाता तो एक रोज मरने वाला था

मेरा नसीब, मेरे हाथ कट गए वरना
मैं तेरी माँग में सिन्दूर भरने वाला था

अंदर का ज़हर चूम लिया

अंदर का ज़हर चूम लिया धुल के आ गए
कितने शरीफ़ लोग थे सब खुल के आ गए

कॉलेज के सब बच्चे चुप हैं काग़ज़ की इक नाव लिए
चारों तरफ़ दरिया की सूरत फैली हुई बेकारी है

कहीं अकेले में मिल कर झिंझोड़ दूँगा उसे
जहाँ जहाँ से वो टूटा है जोड़ दूँगा उसे

मोड़ होता है जवानी का सँभलने के लिए

रोज़ तारों को नुमाइश में ख़लल पड़ता है
चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता है

हम से पहले भी मुसाफ़िर कई गुज़रे होंगे
कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते

मोड़ होता है जवानी का सँभलने के लिए
और सब लोग यहीं आ के फिसलते क्यूं हैं

एक चिंगारी नज़र आई थी

नींद से मेरा ताल्लुक़ ही नहीं बरसों से
ख़्वाब आ आ के मेरी छत पे टहलते क्यूं हैं

एक चिंगारी नज़र आई थी बस्ती में उसे
वो अलग हट गया आँधी को इशारा कर के

इन रातों से अपना रिश्ता जाने कैसा रिश्ता है
नींदें कमरों में जागी हैं ख़्वाब छतों पर बिखरे हैं