कठ पुतली का खेल?

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शशिकान्त गुप्ते का व्यंग्य

कठ पुतलियों के खेल की शुरुआत राजस्थान से हुई है।काठ की पुतलियों को डोर से बांध कर नचाया जाता है।
पूर्व में शहरों के गलियों में मोहल्लों में स्कूलों में यह खेल दिखाया जाता रहा है।कठ पुतलियों का खेल जहां भी दिखाया जाता था,वहां खेल दिखाने वाले, खेल दिखाने का मंच, खटिया को खड़ी कर के बनाते थे।
दर्शनशास्त्र में तो मनुष्य प्राणी को भी कठ पुतली की उपमा दी गई है।मनुष्य रूपी कठ पुतली की डोर ऊपरवाले के हाथ में है,ऊपर वाला मतलब सर्वशक्तिमान ईश्वर के हाथों डोर होती है।
इसी संदर्भ पुराने गीत यह पंक्ति प्रासंगिक है,”सबकों नाच नचाता फिर भी नजर नहीं जो आता”
यह तो दार्शनिक सन्दर्भ की बात हुई।
राजनीति में सारे संदर्भ तहस नहस हो जाते हैं।
राजनीति में कठ पुतलियों को विपक्ष की खटिया खड़ी करने के लिए नचाया जाता है।कुछ कठ पुतलियां स्वयं ही नाचने के लिए बेताब होती हैं।यह कठ पुतलियां पहले एक समूह में इकठ्ठी हो कर,समूह के मुखियां साथ नाचने के लिए इतनी ललायित होती है कि,रिहर्सल करने के लिए किसी रोसोर्ट या पाँच सितारा होटल में जा कर बैठ जाती हैं।यह सब राज की बातें बहुत ही गोपनीय नीति के अंर्तगत होती हैं।
कठ पुतलियों का खेल अनवरत चल रहा है।
पूर्व में भी कठ पुतलियों का खेल दिखाने वाले, पैसे कमाने के लिए अर्थात रोजी रोटी के लिए खेल दिखाते हैं।
मानव रूपी कठ पुतलियां मानवीयता को त्याग कर स्वयं ही नचाने वालों के हाथों बिकती हैं, और नाचती है।
राजनीति में कठ पुतलियों को हाई कमान नचाता है।
इक्कीवी सदी के दूसरे दशक के चौथे वर्ष से यह खेल बहुत खेला जा रहा है।
राजनीतिक कठ पुतलियां ईमान धरम छोड़ बिकने को आतुर
होती है।यह कठ पुतलियां धनबल के साथ बाहुबल और कानूनी दांव पेचों से बनी डोर पर नाचती हैं।
इस खेल की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि,इस खेल को देखने वाली जनता सिर्फ खेल देखती है।सिर्फ देखने के लिए मानो जनता अभिशप्त है।खेल दिखाने वाले वरदान प्राप्त है।
यह कठ पुतलियों का खेल लोकतंत्र में जनता को प्रजा समझकर दिखाया जाता है।जनता को प्रजा समझना सामंती मानसिकता का धोतक है।
सामंती मानसिकता से ग्रस्त लोग जनता को आज भी प्रजा ही समझ रहे हैं।प्रजा को सवाल पूछने के अधिकार से वंचित किया गया है।
कठ पुतलियों को मन मर्जी नचाया जा रहा है।डमरू की आवाज के साथ साहेबान मेहरबान कदरदान नहीं कहते हैं, अब सिर्फ भाइयों और बहनों की कर्कश आवाज करते हुए,अच्छे दिन आएंगे,कहते हुए यह भी हिदायत दी जाती है,यह सिर्फ और सिर्फ जुमला है, चुनावी जुमला है।
कठ पुतलियां नचाने वालो को इस भ्रम नहीं रहना चाहिए कि,यह मानव रूपी काठ की पुतलियां हमेशा ही इनके इशारों पर नाचेंगी।इन मानव रूपी काठ की पुतलियों में कोई वैचारिक क्रांति का संचार कर देगा, तब यह कठ पुतलियां नचाने वालों को ही नाचने को मजबूर कर देगी।इतिहास गवाह है।
इस खेल की शुरुआत राजस्थान से ही हुई थी,आज वहीं खेला जा रहा है।
गोवा,मणिपुर,बिहार,मध्य प्रदेश,कर्नाटक,में खेला ही गया है। महाराष्ट्र में स्वयं की खटिया खड़ी होने का डर है, लेकिन प्रयास जारी है।राजस्थान में ऊंट किस करवट बैठेगा कह नहीं सकते हैं।
कभी कभी किस्मत से कुछ वर्षों तक कठ पुतलियों को नचाने का अवसर मिल जाता है।यह अवसर मतलब वरदान नहीं समझना चाहिए यह सिर्फ और सिर्फ अवसरवाद है।यह नहीं भूलना चाहिए कि,दुनिया आनी जानी है।जन्म है तो, मृत्यु भी शाश्वत सत्य है।

इस संदर्भ में प्रख्यात शायर ज़नाब राहत इंदौर जी की यह रचना मौजू होगी

“अगर खिलाफ है,होने दो,जान थोड़ी है
यह धुंआ है,कोई आसमान थोड़ी है
लगेगी आग तो आएंगे घर कईं जद्द में
यहाँ सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है
मैं जानता हूँ की दुश्मन भी कम नहीं लेकिन हमारी तरह हथेली पे जान थोड़ी है।
हमारे मुह से जो निकले वही सदाक़त है
हमारे मुह में तुम्हारी जुबां थोड़ी है
जो आज साहिबे-इ-मसनद हैं कल नहीं होंगे
किरायेदार हैं जाती मकसन थोड़ी है
सभी का खून है शामिल यहाँ की मिट्टी में
किसी के बाप का हिंदुस्थान थोड़ी है।”
इतिहास गवाह है।

शशिकान्त गुप्ते इंदौर