प्रणब दा नहीं रहे। वे राजनीति के स्टाइलिश आयकन थे। सिर्फ उन्हें एक बार साक्षात् आमने-सामने देखा 1982 में। वे रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर के दीक्षांत समारोह में आए थे।
मैं उन दिनों विश्वविद्यालय शिक्षण विभाग(यूटीडी) में पत्रकारिता व जनसंचार का विद्यार्थी था। हमारे विभाग में तब जेम्स मूर्ति साहब(कई सुपरहिट हिंदी फिल्मों के कैमरामैन रह चुके) की देखरेख में एक आइडियो विजुअल स्टूडियो बन चुका था।
वीसीआर कलर-टीवी जबलपुर में तब दुर्लभ हुआ करता था लेकिन हम लोग टीवी रिपोर्टिंग की प्रैक्टिस करते थे। याद नहीं तब हमारे कुलपति कांति चौधुरी थे या प्रसन्न नायक लेकिन हम लोगों को पूरा दीक्षांत समारोह वीसीआर में रिकॉर्ड कर होम बुलेटिन( सिर्फ प्रयोगशाला के लिए) बनाने का सबक सौंपा गया था।
उन दिनों.. संभवतः राजेश जायसवाल विश्वविद्यालय के छात्रसंघ अध्यक्ष थे। शहर के सर्वप्रतिष्ठित साइंस कालेज के छात्रसंघ अध्यक्ष रह चुके प्रहलाद सिंह पटेल तब यूटीडी की छात्र राजनीति में कब्जा कर चुके थे। शहर के प्रायः सभी महाविद्यालयों की छात्र राजनीति में लखन भाई(घनघोरिया) का दबदबा था।
दो पुराने छात्र नेता एक शंकर सिंह और दूसरे रामकृष्ण रावत(शरद यादव के समकालीन) ऐसे थे..जो बाप दादा की उमर में भी छात्रनेता ही बने रहे। ऐसे आयोजनों में यदि इन्हें न पूछा जाए तो रायता फैलना निश्चित था। पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष रत्नेश सालोमन तब विधायक बनकर संसदीय सचिव थे।
प्रणब मुखर्जी उन्हीं के आग्रह पर आए थे, तब सांसद थे नवदुनिया के संपादक मुंदर शर्मा। इस पूरे कार्यक्रम में प्रणब दा क्या भाषण देते हैं..इससे ज्यादा छात्रों की नजर इस पर थी कि इस आयोजन म़े छात्रों का गुट कैसा रायता फैलाता है, किसको..कैसी अलसेट देता है।
मैं छात्र राजनीति से बरी होकर पत्रकारिता की ओर उन्मुख था..हमारी टीम को प्रणब दा का भाषण और दीक्षांत समारोह कवर करना था..। दीक्षांत समारोह में..थोड़ा रायता फैला भी..शायद शंकर सिंह(जो खुद को रत्नेश से बड़ा व सीनियर लीडर मानते थे) को मंच पर बुलाने को लेकर।
मुझे याद आ रहा है कि शंकर सिंह को मंच पर बुलाया भी गया था..रत्नेश की ही शिफारिश पर। शंकर सिंह अपनी बात गीतों के माध्यम से रखते थे, सो रखी..।
हम लोगों को जो सबसे बड़ा खबर तत्व दिखा वो यह था कि प्रणब दा मंच पर ही थुधुआते हुए पाईप पी रहे थे।
उन्होंने बंगाली लहजे की हिंदी में कर्णप्रिय भाषण दिया..। लेकिन अपन लोग सुन नहीं पाए इसलिए कि..अपनी नजर छात्रनेताओं की आगे की अदावत पर नजर थी।
कार्यक्रम के बाद अपन भूपे(भूपेन्द्र गुप्ता रत्नेश के समकालीन छात्रनेता) की कैंटीन पहुँचे। भूपे के मुँह से जबलपुरिया गालियां बरस रहीं थी…स्साला वो रत्नेश मंत्री बन गया और मैं..भूप्पे..आज समोसे बेच रहा हूँ।
ये पूरी खबर हम लोगों ने बनाई.. वह भी टीवी के लिए लेकिन.. तब हमारा दायरा था..बस पत्रकारिता व जनसंचार की प्रयोगशाला.. वहीं देखा..और लैब जर्नल में छापकर पढ़ा..।
प्रणब दा मेरी पत्रकारिता के प्रथम पुरुष थे यकीनन..!
(याददाश्त के आधार पर तथ्य थोड़े दाएं-बाएं भी हो सकते हैं)