संजीव आचार्य, वरिष्ठ पत्रकार
2007 में सोनिया गांधी ने पहले राहुल को महासचिव बनाया। इसके साथ ही उन्हें यूथ कांग्रेस और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की कमान सौंपी गई। कमान संभालने के बाद राहुल ने युवाओं को पार्टी से जोड़ने के लिए बड़ा अभियान चलाया। उनका आंतरिक लोकतंत्र के लिए युवा संगठनों में चुनाव कराने का फैसला धनबली क्षत्रपों ने धराशायी कर दिया। निराश राहुल ने मूल संगठन में जाने का मन बना लिया।
2013 राहुल गांधी के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण साल रहा। 21 जनवरी को जयपुर में कांग्रेस पार्टी ने अपना चिंतन शिविर रखा था। राहुल को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया गया। इस नई जिम्मेदारी के साथ उनका एक नया रूप देश के सामने आया। चिंतन शिविर के समापन सत्र को संबोधित करते वक्त वे बात-बात में भावुक हो रहे थे।
जब राहुल ने बोलना शुरू किया तब वहां मौजूद लोगों के साथ मां सोनिया भी रो पड़ीं। राहुल बोले – पिछली रात मेरी मां मेरे पास आईं और रोने लगी। मां क्यों रोई? क्योंकि वो जानती हैं कि #सत्ता_जहर है। लेकिन इसका एक ही तोड़ है कि सत्ता का इस्तेमाल लोगों की भलाई के लिए करें। इसलिए मैं देश और पार्टी के लिए अपनी पूरी ताकत से लड़ूंगा। ए के एंटोनी से राहुल गांधी को उपाध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव रखवाया गया था, पूरी पार्टी ने तालियों की गड़गड़ाहट के साथ युवराज के राजतिलक का स्वागत किया था।
अध्यक्ष पद की ताजपोशी एक रस्म अदायगी भर थी। क्योंकि न तो पार्टी में किसी को आपत्ति थी, न कोई चुनौती। दस साल की सत्ता से मलाई चाटकर अघाये बैठे घाघ नेता तो चाहते ही थे कि युवराज सड़कों पर उतर कर संघर्ष करे, नरेंद्र मोदी की आंधी चलेगी, ये सब जानते थे। लिहाजा बजाय आंधी को रोकने के, ये तमाम नेता हाइबरनेशन में चले गए। जानबूझकर रणजीत सिंह सुरजेवाला, अजय माकन, प्रियंका चतुर्वेदी, मनीष तिवारी, अभिषेक मनु सिंघवी जैसे प्रवक्ताओं के भरोसे टीवी चैनलों की बहसों में पार्टी की धुलाई होते रहने दी। अहमद पटेल, गुलाम नबी आजाद, पी चिदंबरम, कमलनाथ, आनंद शर्मा, कपिल सिब्बल, सब ने कम्बल ओढ़ लिया।
यह सब मैंने डेढ़ दशक के काँग्रेस पार्टी के शीर्ष पर हुए घटनाक्रम की एक झलक रखी है। मकसद ये बताना है कि राहुल गांधी को न अनुभव था न ही उन्होंने राजनीति का कखग सीखा था। वो निःसन्देह एक साफ दिल के, ईमानदार और देश के लिए समर्पण का भाव रखने वाले भावुक युवा हैं। लेकिन क्या इन गुणों के साथ भारत देश की धर्म, जाति और अन्य तमाम पेचीदगियों से भरी राजनीति में नेता बना जा सकता है?
क्या नरेंद्र मोदी और उनके आगमन के साथ दाखिल हुई हिंदूवादी राष्ट्रवाद की भावनाओं में बहा देने में सक्षम नयी राजनीति का मुकाबला किया जा सकता है? क्या ऑक्सफोर्ड और हॉर्वर्ड विवि से पढ़े लिखे मैनेजरों की टीम, जिन्हें हिंदुस्तान के गांव,गरीब और उनकी नब्ज को पकड़ने वाले मुद्दों की कोई जानकारी नहीं है, वो राहुल को सही सलाह दे सकते हैं? क्या घाघ और चाटुकार चौकड़ी के पुराने खिलाड़ी उनको चलने देंगे? ऊपर से अति महत्वाकांक्षी बहन के कंधों पर रखकर बंदूक चला रहे पार्टी के ये खिलाड़ी भाई के नेतृत्व को खोखला करने में जुटे हुए हों?
राहुल खुद भी अपनी योग्यता को लंबे अवसर काल के बावजूद साबित नहीं कर सके। इतने मौके थाली में सजाकर नेता बनने के लिए हिंदुस्तान में किसी को नहीं मिले। उनके भाषण, विचार और शैली, तीनों में ढेर सारे नुक्स हैं। मुकाबिल हैं मोदी। जो इस सदी के सबसे ज्यादा मंजे हुए साम, दाम,दण्ड, भेद के महारथी हैं। राजनीति कोई घर का धंधा नहीं है जो तमाम कमियों के बावजूद सेठजी के उत्तराधिकारी को स्वामी मान ले। बेहतर है, राहुल अब खुद पार्टी की कमान फिर से सम्हालने का विचार छोड़ दें। प्रियंका के लिए भी रॉबर्ट वाड्रा का द्रुत आर्थिक विकास का इतिहास सबसे बड़ा रोड़ा बन गया है।
यह स्थापित आम धारणा बन चुकी है कि देश को मोदी जैसा नेता चाहिए राहुल जैसा “पप्पू “नहीं। जो इस धारणा को तोड़ पायेगा, वही परिवर्तन ला सकेगा। निकट भविष्य में इसके आसार नजर नहीं आ रहे ।