राजनीति और समाजसेवा को लोग मिलाकर देख रहे है इसलिए परिवार और समाज में समस्या का जन्म हो रहा है सामाजिकता टूट रही है वैमनस्यता बढ़ रही है । विश्वास का हास्व हो रहा है। और सामाजिक बन्धन ढीले पड़ रहे है। जो आत्मघाती कदम है या उसी साख को काटने जैसे है जिस पर बैठे है।
राजनीति का उद्देश्य देश और सत्ता या पॉवर का केंद्र बनना है। उसे पाने का मार्ग या शिक्षा राजनीति है। जिससे हर सम्भव तरीके से , उसे अर्जित किया जा सके। जीत कर काबिज हुआ जा सके ,भाव होता है। उसमे जिस सीढ़ी से चढ़े उसे गिरा देना बेह्तर माना जाता है। ताकि आपके समक्ष कोई दूसरा न रहे। सम्भावना न रहे। आपका शासन चलता रहे और धन और वैभव अर्जित करते रहे। हुकूमत बरकरार रहे। इसके लिए यह सब ठीक भी है।
जबकि समाज सेवा पाने के लिए नही होती। इसका मूल देना होता है। इसमें लोगो को आगे बढ़ने के लिए अवसर देने, त्याग की भावना महत्वपूर्ण है । इसमें एक चाहत काम करती है कि किसी के काम आ जाऊ और उसकी कठिनाइयों को कम कर, उसके हृदय में जगह मिले। यह दीवानगी का उत्सर्ग का भाव है। स्वयं दूसरो से आगे निकलने का जगह दूसरो को आगे बढाने के लिए प्रयास का भाव है। इसका सम्बन्ध अंतरात्मा से है। उसका केवल शुद्ध विवेक से है। मेरी मान्यता है जो समाज सेवा करे उसमे वैमनस्यता नही हो सकती है। अगर वैमनस्यता आये तो समझ सेवा में चूक हो रही है।
सामाजिक संगठनो को सत्ता की तरह मानकर समव्यवहार करने वाले मन में ही अहंकार बैर और अन्य विकृति के दर्शन होंगे। जब आप किसी से लेने नही, देने निकले है। तो फिर आपको किसी से क्या फर्क पड़ता है। जितनी आपकी समर्थ और मन है। दे दे। पर सेवा में देने के बाद, उसका हिसाब रखना दूसरी अशांति का बीज है। उससे बचे। प्रकृति का नियम है। सभी कुछ न कुछ अपने हिस्से का देते है। इसलिए सभी जिन्दा भी है। और पूरक भी है। परस्पर निर्भरता ही प्रकृतिक पर्यावरण है। जीवन आनन्द है। परिवार और समाज की जड़ है।
आज का दिन शुभ हो