राजेश बादल
महाराष्ट्र के गृह मंत्री पर एक आला पुलिस अधिकारी का आरोप बेहद गंभीर है। यह सघन जाँच की माँग करता है ।मंत्री को मातहत अफ़सर बिना किसी आधार के क्यों कटघरे में खड़ा करेगा ? इस प्रश्न का उत्तर इस देश को चाहिए। लेकिन जिस तरह से राजनीतिक ड्रामा हुआ है,उससे दो बातें साफ़ हैं।एक तो यह कि मंत्री से उसकी अनबन है और वह उनकी छबि धूमिल करना चाहता है ।दूसरा यह कि इन दिनों ब्यूरोक्रेसी सियासी खेमों में बँट गई है।हो सकता है कि उसका राजनीतिक इस्तेमाल किया जा रहा हो।इसी आधार पर इस मामले में निष्पक्ष बारीक अन्वेषण की ज़रूरत है । भारतीय पुलिस सेवा का एक वरिष्ठतम अफसर वसूली का मेल भेजकर खुलासा करता है तो यह साधारण घटना नहीं है।एक निर्वाचित जन प्रतिनिधि पर सौ करोड़ रुपए हर महीने एकत्रित करने का इल्ज़ाम हल्के फुल्के ढंग से नहीं लिया जा सकता।इससे यह भी संकेत मिलता है कि नीचे की मशीनरी हक़ से दो ढाई सौ करोड़ की अवैध वसूली कर सकती है ।उसमें से सौ करोड़ रुपए वह मंत्री को दे।बाक़ी आपस में बाँट ले-जैसा कि हम लोग हिंदुस्तान के तमाम विभागों में देखते आए हैं।सवाल यह है कि स्वतंत्रता के 70 साल बाद भी हम गोरी हुकूमत का यह जुआ क्यों उतार कर नहीं फेंक सके ? इसका उत्तर जानने के लिए हमें भारतीय समाज की मानसिकता को बारीक़ी से पढ़ना होगा।इन दिनों रिश्वत, ठेकों में कमीशन और जबरन उगाही व्यवस्था का स्थाई चरित्र बन गई है।पैसा देने और लेने वाले को महसूस ही नहीं होता कि वह कोई अनुचित और अनैतिक काम कर रहा है।जब समाज ही काली कमाई का कारोबार जायज़ मान ले तो अगली पीढ़ियां उसे ग़लत कैसे मानेंगीं ?
दरअसल सैकड़ों साल की ग़ुलामी के कारण ग़रीबी और अभाव में जीना इस मुल्क़ की विवशता बन गई थी ।अंग्रेज़ों ने इसका फ़ायदा उठाया और समूचा तंत्र भ्रष्ट बना दिया। किसी काम को करने या कराने पर बख़्शीश अथवा घूस अनिवार्य औपचारिकता बन गई।हम चंद रुपयों में बिकने लगे।दूसरी तरफ यह मानसिकता भी थी कि गोरे तो हिन्दुस्तान का पैसा लूट लूट कर परदेस ले जा रहे हैं। हम ठगे से देख रहे हैं।इसलिए उस पैसे में सेंध लगाने में एक औसत भारतीय ने कुछ भी ग़लत नहीं समझा।भले ही वह क्रांतिकारियों का खुलकर साथ नहीं दे पा रहा था, मगर बरतानवी हुक़ूमत के पैसों में चोरी अथवा घूस लेने में उसने संभवतः पवित्र देशभक्ति का भाव भी देखा होगा ।इस तरह दोनों पक्ष अपनी अपनी जगह प्रसन्न थे।लेकिन तब भी एक वर्ग था ,जो रिश्वत पसंद नहीं करता था। कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद घनघोर आर्थिक दबाव में ज़िंदगी जीते रहे। मगर एक दौर ऐसा भी आया था ,जब ज़िले के आला शिक्षाधिकारी होने के नाते जहाँ भी जाते, नज़राने के तौर पर सिक्के ,कपड़े ,बेशक़ीमती तोहफ़े ,आभूषण और अनाज मिलता ।प्रेमचंद को अटपटा लगा।उन्होंने सख़्ती से इसे रोका।इसी तरह कोर्ट -कचहरियों में रिश्वत बाक़ायदा प्रचलन में थी।उपन्यासकार वृंदावनलाल वर्मा ने वक़ालत शुरू की तो सहायता के लिए 9 रूपए के वेतन पर मुंशी रख लिया।एक महीने बाद उन्होंने मुंशी को तनख़्वाह देने के लिए बुलाया तो उसने उलटे 27 रूपए उनके हाथ में ईमानदारी से रख दिए। पूछने पर बताया कि महीने भर की घूस है और उसने अपना हिस्सा काट लिया है।वर्माजी अगले दिन इस्तीफ़ा देकर घर बैठ गए।उन दिनों वे घोर आर्थिक संकट में थे।इसके बाद उन्होंने वन विभाग में नौकरी की।दो घंटे में काम निपटा लेते।बाक़ी समय में उपन्यास लिखते।एक दिन बड़े बाबू ने टोका। कहा कि आप भ्रष्टाचारी हैं।छह घंटे बचाकर घर का काम करते हैं।सरकारी स्याही ,कलम और काग़ज़ का इस्तेमाल करते हैं।बात सही थी। वर्मा जी ने एक महीने आठ घंटे खड़े होकर काम किया और प्रायश्चित किया।क्या आज हम यह कल्पना भी कर सकते हैं ?
जैसे ही भारत को आज़ाद हवा में साँस लेने का अवसर मिला तो इस कुप्रथा ने गहराई से जड़ें जमा लीं।आज कोई भी सरकारी महक़मा पैसों के अनैतिक आदान प्रदान से मुक्त नहीं है।राशन कार्ड से लेकर सम्पत्ति कर निर्धारण या नक़्शा मंज़ूर कराने का काम बिना लिए दिए नहीं होता।रेलों में बर्थ, ठेकों में कमीशन, विधायक-सांसद निधि में हिस्सा लेने से जन प्रतिनिधि नहीं चूकते।यहाँ तक कि निर्वाचन क्षेत्र की आवाज़ उठाने और सवाल पूछने तक के लिए जब पैसा लिया गया हो तो अनुमान लगाया जा सकता है कि स्थिति कितनी बिगड़ चुकी है।क्या राज्यों की सीमाओं पर ट्रकों से अवैध वसूली किसी से छिपी है।एक ट्रक की रसीद कटती है।चार यूँ ही निकाले जाते हैं।शराब की फैक्ट्रियों के दरवाज़े पर एक ट्रक की एंट्री होती है और चार ट्रक ग़ैर क़ानूनी तौर पर निकलते हैं ।इसी शराब से अवैध कमाई का बड़ा हिस्सा सियासी चंदे में जाता है।पैंतालीस साल पहले मैं एक ज़िले में पत्रकार था।वहाँ मनचाहे थाने के लिए पुलिस अधिकारी पुलिस अधीक्षक को तय रक़म देता था।यह एक तरह से थानों की नीलामी जैसी थी।मैंने एक दिन एसपी से पूछा तो दबंगी से उन्होंने कहा कि यह ब्रिटिश काल से चला आ रहा है।उसके बाद एक प्रदेश की राजधानी में काम करते हुए मैंने पाया कि ज़िलों की भी एक तरह से नीलामी होने लगी है।मलाईदार ज़िलों का कलेक्टर या एसपी बनने के लिए धन वर्षा होती है। जिस विभाग में ज़्यादा धन होता है उनका मंत्री बनने के लिए होड़ होती है।
जब समूचे सिस्टम में सड़ांध फ़ैल चुकी हो तो मुंबई की घटना का ज़िक्र ही क्या।कौन सा राज्य है जहाँ डीजीपी हर महीने गृह मंत्री तक निश्चित रक़म नहीं पहुँचाता ।जो आईपीएस ऐसा नहीं करता तो मंत्री सीधे मातहतों से मासिक वसूली करता है।अब यह नई बात नहीं रही।असल ध्यान तो इस पर होना चाहिए कि इसे क़ाबू में कैसे करें ।ऐसा न हो कि आने वाली नस्लें ईमानदारी शब्द का अर्थ शब्द कोष में खोजें।