अजय बोकिल
देश की राजनीतिक पंचतंत्र कथाओं में बिहार की सियासी कथा एक अलग मुकाम रखती है। खासकर तब, जब राज्य में विधानसभा मुहाने पर हैं। यहां सत्ता का अमृत जातिवाद के महामंथन से ही निकलता है। राज्य की चुनावी राजनीति के केन्द्र में प्रदेश के मुख्य मंत्री और चतुर राजनेता नीतीश कुमार हैं। बाकी पार्टियां या तो उनके साथ हैं या फिर खिलाफ हैं। उधर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तमाम राष्ट्रीय संकटों के बीच भी ‘बिहार’ पर फोकस करना नहीं चूक रहे हैं। उनके लिए भी बीते डेढ़ साल में हुए विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा की घटती साख को फिर से कायम करने का मौका है। वो ये दिखाना चाहेंगे कि बिहार विधानसभा चुनाव जीतना बालाकोट स्ट्राइक से ज्यादा कठिन नहीं है। लेकिन राजनीतिक हमलों और सफाइयों के लिहाज से दिलचस्प बयानबाजी राजद के युवा नेता तेजस्वी यादव की है, जो अपने ही घर को जोड़े रखने और खुद को लंबी रेस का घोड़ा सिद्ध करने की कोशिश जी जान से कर रहे हैं।
हाल में तेजस्वी ने अपने पिता लालू प्रसाद और माता राबड़ी देवी के शासन के दौरान हुई गलतियों के लिए सार्वजनिक माफी मांगी। साथ ही नीतीश कुमार से यह सवाल किया कि वे अपने 15 साल के (कु) शासन के लिए कब माफी मांगेंगे? तेजस्वी ने यह दावा भी किया कि उनका लक्ष्य अब 2035 में ‘दिल्ली विजय’ का है। इसके पहले तेजस्वी ने भाजपा पर तंज किया था कि मंहगाई पहले उसके लिए ‘डायन’ थी, अब ‘भौजाई’ हो गई है। तेजस्वी ने नीतीश पर भी तगड़ा वार करते हुए कहा था कि उनकी आत्मा बंगाल की खाड़ी में डूब गई है।
लालू के राजनीतिक वारिस तेजस्वी यादव में सियासी चतुराई और देसी जुमले गढ़ने की क्षमता कितनी है, यह धीरे-धीरे सामने आ रहा है। हालांकि तेजस्वी लालू की तरह शक्लो सूरत से एकदम खांटी बिहारी नहीं लगते, फिर भी सियासी जुमलेबाजी की उनकी ट्रेनिंग बाकायदा शुरू हो गई है। वरना ऐसे ठेठ देसी जुमलों के दम पर बिहार की सियासी हवा पलट देने की महारत कभी लालू को हासिल थी। देश में पिछड़ों की राजनीति के उभार ने लालू की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल को राज्य में सत्ता तक पहुंचाया। लालू ने भी विकास की राजनीति पर दांव खेलने के बजाए पिछड़े और अल्पसंख्यक वोटों के ध्रुवीकरण पर ज्यादा ध्यान दिया। समाज के पिछड़े वर्ग की राजनीतिक महत्वाकांक्षा का यह ज्वार नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद अब उतार पर है। उसकी आकांक्षाएं बहुआयामी हुई हैं।
बहरहाल लालू के अंदरूनी घमासान के समांतर तेजस्वी ने विधानसभा चुनाव को लेकर जिस उत्साह के साथ ताल ठोंकना शुरू किया है, वह लालू शैली का ही परिचायक है। लालू चारा घोटाले में जेल में हैं और बीमार भी रहते हैं। उनकी एकमात्र तमन्ना अपनी लालटेन को फिर से पटना में जलते देखना है। मानों इसी तमन्ना को सियासी स्वर देते हुए राष्ट्रीय जनता दल के स्थापना दिवस पर तेजस्वी यादव ने अपने पिता लालू और माता राबड़ी देवी के कार्यकाल में हुई ‘गलतियों’ के लिए माफी मांगी। इसी दौर को भाजपा ‘जंगल राज’ कहती आई है। यही वो समय था, जब मप्र सहित कई दूसरे राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने जातीय तुष्टीकरण को ही चुनाव जीतने का शर्तिया फार्मूला मान लिया था। बिहार में लालू और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह इसी राजनीतिक वैक्सीन का सफल ट्रायल कर रहे थे।
तेजस्वी ने सफाई के अंदाज में पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा कि ( लालू राबड़ी युग ) मैं तो सरकार में था नहीं। फिर भी फिर भी हम से अगर कोई भूल हुई होगी तो हमको माफ कीजिएगा। जिसके पास रीढ़ होती है वही झुकता है। वैसे तेजस्वी का यह बयान साहसिक और जनता की सहानुभूति बटोरने की कोशिश है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने 2015 के विधानसभा चुनाव में इसी का सफल प्रयोग किया था। फर्क यह है कि केजरीवाल ने ‘अपनी गलती’ के लिए माफी मांगी थी लेकिन अपने ‘मां-बाप की गलतियों’ के माफी मांग रहे हैं। मानो शेर की गलती के लिए शावक क्षमा याचना करे।
दूसरी दिलचस्प बात 2035 तक दिल्ली पर राजद का हरा झंडा लहराने का आत्मविश्वास है। अगर सालों में गिने तो तब तेजस्वी 45 साल के होंगे और राहुल गांधी 65 के। दोनो की पार्टियों के बीच महागठबंधन पर अभी बात चल ही रही है। फिर भी बड़ा लक्ष्य रखना बुलंद हौसले का प्रतीक है। इसी के साथ तेजस्वी ने महंगाई को भाजपा की ‘भौजाई’ बताकर तगड़ी चिकोटी काटी है। क्योंकि यूपीए के जमाने में यही भाजपा महंगाई ‘डायन’ बताकर गरियाती रहती थी। लेकिन अब महंगाई की इस रेस में डीजल ने पेट्रोल को भी पछाड़ दिया तो ‘देशभक्तों’ के सीनों में हल्की-सी हूक भी न उठी। यानी सत्ता के साथ रिश्ते भी बदलते हैं। ‘डायन’ भी ‘भौजाई’ लगने लगती है। यह बात अलग है कि तेजस्वी ने अनचाहे तलाक के चक्कर में कोर्ट में उलझी अपनी ही भौजाई की बहन को पार्टी में शामिल कराकर ‘भैया तेजप्रताप’ को ‘डीजल’ से भी बड़ा झटका दे दिया है।
तेजस्वी ने एक बात और कही। उन्होंने कहा कि लालू एक ‘विचार’ है, जो कभी नहीं झुकेगा। पहले हमने सुना था कि ‘खादी वस्त्र नहीं, विचार है।‘ यानी विचार का ही भौतिक स्वरूप खादी है। लेकिन ‘लालू विचार’ के सम्बन्ध में स्थिति जरा अस्पष्ट है। तेजस्वी ने कहा कि कहा कि लालू ने अपने जीवन में ‘अपने नीति, सिद्धांत और विचारधारा’ के साथ कभी समझौता नहीं किया। चाहे वो पटना में रहें या फिर रांची की जेल में।
इसका निश्चित रूप से क्या अर्थ है, पता नहीं। क्योंकि स्वतंत्रता सेनानियों का जेल जाना इसलिए प्रेरक था, क्योंकि वो देश की खातिर जेल की चक्की पीस रहे थे। लेकिन चारा घोटाले में अपराध साबित होने के बाद जेल की काल कोठरी में जाना विचारधारा के साथ समझौता न करना कैसे है, समझना मुश्कि ल है। बेशक लालू ने भाजपा से कभी समझौता नहीं किया। उन्होंने भारतीय राजनीति को जातीय-धार्मिक ध्रुवीकरण का नया सियासी फार्मूला दिया, लेकिन उससे जितना मक्खन निकलना था, निकल चुका। लालू के इस गंवई किस्म के घाघपन को नीतीश के अल्पभाषी काइंयापन ने तगडी मात दे दी है। ऐसे में न चाहते हुए भी नीतीश की पालकी उठाना भाजपा की राजनीतिक मजबूरी है। शायद इसी वजह से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने हर संबोधन में परमात्मा की तरह बिहार का प्रत्यक्ष या परोक्ष उल्लेख करना नहीं भूलते। फिर चाहे गलवान घाटी में बिहारी सैनिकों की शहादत हो या फिर ‘अनलाॅक टू’ में छठ मइया को नमन हो। उनका हर राजनीतिक विहार, बिहार को छूते हुए निकलता है।
वैसे राज्य के विधानसभा चुनाव के आसन्न महाभारत में दोनो प्रतिद्वंदवी खेमों की सेनाअों में सबकुछ ठीक नहीं है। सीटों के बंटवारे को लेकर महागठबंधन में भारी दरारे हैं तो राजग में भी पासवान की पार्टी अनमनी है। जद यू और भाजपा की करीबी में उसे अपनी गुंजाइश कम दिख रही है। यही वजह है कि रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी ने अलग लाइन लेना शुरू कर दिया है। यानी केन्द्र में तो वो सत्ता की मलाई खाएगी, लेकिन राज्य में ज्यादा से ज्यादा सीटों के लिए कड़ी सौदेबाजी करेगी। आश्चर्य नहीं कि ऐन चुनाव के पहले वह राजग छोड़ महागठबंधन के पाले में जा बैठे। उधर कांग्रेस ने भी ‘आरक्षण’ के पुराने हथियार को बाहर निकालते हुए सत्तारूढ़ जद यू के तीन विधायकों को कांग्रेस में आने का ऑफर दे दिया है।
माना जाता है कि बिहार में आरक्षण का मुद्दा चुनावी बूस्टर होता है। 2015 के विधानसभा चुनाव में भी आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत द्वारा ‘आरक्षण की समीक्षा’ को लेकर दिए गए एक बयान ने भाजपा को बैकफुट पर धकेल दिया था। इस बार कांग्रेस सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले पर कि आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है पर मोदी सरकार की चुप्पी को मुद्दा बनाना चाहती है। लेकिन इससे वोटों की कितनी फसल कटेगी, कहना मुश्किल है। क्योंकि बीते 5 सालों में सियासत उग्र हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के इर्द गिर्द ज्यादा घूम रही है। देश मोदी के समर्थन और विरोध में बंट गया है। बिहार में भाजपा नीतीश कुमार के सुविधाजनक सेक्युलरवाद, सिलेक्टिव अल्पसंख्यकवाद और उदार जातिवाद के साथ अपने हिंदुत्व और प्रखर राष्ट्रवाद का ऐसा काढ़ा तैयार करना चाहती है, जो तीन साल की साझा सत्ता की नाकामियों को साफ कर दे। इसके लिए दोनो पार्टियां जरूरी ‘राजनीतिक डिस्टेंसिंग’ बनाए रखेंगी। लेकिन दुश्मन राजद सहित महागठबंधन का कोरोना ही होगा। िफलहाल तो तेजस्वी की ‘राजनीतिक बाल लीलाओं का मजा लें।