राज्यों के चुनाव – पार्टियां किधर

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 एन के त्रिपाठी

चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश के चुनावों का मुख्य आकर्षण पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की टीएमसी की शानदार जीत है। नतीजों का आकार और प्रकार किसी की भी कल्पना से परे था। मोदी-शाह की जोड़ी ने, कोविड के अपने कर्तव्य की अनदेखी करते हुए, प्रचार में हमले किये और संसाधन लगाए, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। उनका गर्व चूर हो गया। ममता की लगातार तीसरी जीत से पता चलता है कि राज्य में हिंसा के बावजूद जनता को उनकी सत्ता में पूरा विश्वास है।

भाजपा ने अब वीर चेहरा दिखाते हुए विधानसभा में अपनी ताकत बढ़ाने और राज्य में कांग्रेस और वाम दलों की जगह लेने का हवाला देकर खुद को सांत्वना दी है। ममता की जीत ने विरोधी दलों को एक नया संबल दिया है। मोदी पर हमला करने के लिए ममता अब विरोधी दलों के शीर्ष पर होगी। यहां तक ​​कि कांग्रेस भी इन चुनावों में अपनी बुरी हार के बावजूद बंगाल में बीजेपी की विफलता पर आनंदित है। ममता की जीत निश्चित रूप से देश की राजनीति में व्यापक प्रभाव डालेगी।

बंगाल में भविष्य की रणनीति बनाने के लिए भाजपा को अपना मानसिक संतुलन ठीक करने में कुछ समय लगेगा। हालांकि, इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि बीजेपी ने एक अनजान प्रदेश में अपना धरातल बना लिया है। बीजेपी केरल और तमिलनाडु जैसे धुर दक्षिणी राज्यों में पैर जमाने की कोशिश में नाकाम रही हैं। पार्टी को केवल एक ही संतुष्टि हो सकती है कि दूसरी बार असम में उसे शानदार जीत मिली है। बंगाल में विफल ध्रुवीकरण के प्रयास आसाम में सफल रहे है।

कांग्रेस से दल छोड़ कर आए हेमंत बिस्वा सरमा ने फिर से भाजपा के लिए अपनी उपयोगिता साबित की है। कांग्रेस के लिए, बदरुद्दीन अजमल के साथ गठबंधन करने की उसकी उत्सुकता बेकार साबित हुई। यह जीत पूर्वोत्तर में भाजपा की मजबूत उपस्थिति को जारी रखेगी, जहां से कांग्रेस उसके पारंपरिक क्षेत्र से दूर कर दी गई है।

यद्यपि यह अपेक्षित था, लेकिन फिर भी केरल में पिनाराई विजयन की जीत कम शानदार नहीं है। यह कांग्रेस के लिए एक अपमानजनक हार है क्योंकि वह पिछले 40 वर्षों की वैकल्पिक रूप से सत्ता पाने की परंपरा को बनाए नहीं रख सकी। यह याद दिलाया जाना चाहिए कि राहुल गांधी केरल से सांसद हैं और पार्टी के लिए उन्होंने अथक प्रचार किया था। विजयन की जीत ने सीपीएम को कुछ राहत दी है जो बंगाल में अपना खाता खोलने में नाकाम रही है, जहां किसी समय वह तीन दशकों से अधिक समय तक शासक रही थी। लेकिन इस जीत में पार्टी की शायद ही कोई भूमिका है। विजयन व्यक्तिगत रूप से त्रासदियों में एक उल्लेखनीय प्रशासक साबित हुए हैं, जो दुर्भाग्य से केरल में बहुत बार आयीं।मोदी कोविड के संकट से निपटने के लिए विजयन से नसीहत ले सकते हैं।

स्टालिन की द्रमुक के लिए 10 साल की एंटी इन्कमबेंसी और जयललिता के जाने से उत्पन्न शून्य के बाद सत्ता में आने का सबसे उपयुक्त अवसर था। ईपीएस को श्रेय जाता है कि उनके प्रशासनिक कार्यों के कारण अन्नाद्रमुक का पूरा सफ़ाया नहीं हुआ है। उनके नेतृत्व को चुनौती देना उनकी पार्टी के भीतर किसी अन्य नेता को बहुत मुश्किल होगा।

दोनों राष्ट्रीय दलों के लिए अपने भविष्य की रूपरेखा के बारे में सोचने का यह एक क्षण है। पूर्व और दक्षिण भारत में कांग्रेस बहुत कमजोर हो चुकी है। कांग्रेस को विपक्षी दलों में भी अपनी महत्वपूर्ण स्थिति बनाए रखने के लिए बहुत कड़ी मेहनत करनी होगी। इसके नेता राहुल गांधी ने लगातार कड़ा परिश्रम नहीं किया है। केवल केंद्र सरकार पर ट्विटर में व्यंग्यात्मक टिप्पणी करने से भारत की जनता के दिमाग में जगह नहीं बनेगी। इन चुनावों में तथा पूर्व के चुनावों में हुई पराजय के कारण उन्हें फ़िलहाल कोविड की स्थिति के कारण पार्टी के अंदर कोई चुनौती नहीं है। राहुल को कोविड संकट में केंद्र सरकार के दोषपूर्ण कार्य को एक वरदान के रूप में नहीं लेना चाहिए। अगर वे सत्ता में आना चाहते है तो उनके लिए कड़ी मेहनत के अलावा कोई विकल्प नहीं है।

भाजपा अब इतना फैल चुकी है जिसकी कल्पना भी उसके संस्थापकों ने नहीं की होगी। उसने नए क्षेत्रों को जीतने के लिए अपना उत्साह बरकरार रखा है। लेकिन बीजेपी की सीमा उसकी अपनी विचारधारा है। हिंदुत्व अपने सर्वोच्च धरातल तक पहुंच गया है और पार्टी में ऊर्जा के लिए नए विचारों को समाहित किया जाना आवश्यक है। हिंदू होने पर गर्व करने में कोई नुकसान नहीं है, लेकिन भारत की वास्तविकता के साथ इसका सामंजस्य स्थापित करना होगा।

सभी समुदायों के लिए एक बराबर दृष्टिकोण एक स्वस्थ राष्ट्र के लिए अत्यावश्यक है। दूसरे सुशासन पर और अधिक बल दिया जाना चाहिए। मोदी अभी भी सबसे क़द्दावर नेता है और परिणाम देने में सक्षम हैं। उन्हें वर्तमान कोविड संकट से निपटने और उसके बाद अर्थव्यवस्था को बहाल करने में अपनी पूरी क्षमता दिखानी होगी। इससे देश के साथ-साथ भाजपा को भी फायदा होगा। सतत चुनाव चलने वाले राष्ट्र में आगामी चुनावों के एक और व्यवधान की प्रतीक्षा है, जो संभवतः निकट ही होंगे।