हिदायतउल्लाह खान
अस्पताल पहुंचने से पहले राहत इंदौरी ने शायर अल्ताफ जिया को फोन लगाया था और शेर सुनाया- तमाम शहर ने की मेरी मग़फिऱत की दुआ…मुझे भी मौत पर अपनी बहुत मलाल हुआ। तब सिर्फ शेर था और अल्ताफ ने भी उससे आगे सोचा नहीं था, पर राहत इंदौरी ने देख लिया था कि उन्हें गज़़ल, शेर, मिसरे, नज़्म, दाद और मुशायरे के डायस को छोड़कर जाना है। मौत की उन्होंने कभी परवाह की भी नहीं। हमेशा उससे आंख मिलाकर जीते रहे। जब कुछ दिन पहले उन्हें भतीजे की शादी में जाने से रोका गया, माने नहीं। जब मास्क लगाने को कहा गया, बोले- मास्क-वास्क तेरे पास में रख… यूं मुंह छिपाकर नहीं जियूंगा मैं। इतनी शर्तों पर जिया नहीं हूं और आगे भी नहीं। सीने के बटन खोलकर उन्होंने हमेशा जिंदगी जी और इस तेवर को उनकी शायरी में भी देखा जा सकता है। कई बीमारियों से लड़ रहे थे और खड़े थे। उन्हीं का शेर है- जिस्म के साथ निभाने की मत उम्मीद रखो… इस मुसाफिर को तो रस्ते में ठहर जाना है। कोरोना ने जरूर उन्हें अकेला कर दिया था। जब अस्पताल ले जा रहे थे, जाना नहीं चाहते थे, क्योंकि अकेले रह नहीं सकते थे, इसकी आदत नहीं थी और कोविड किसी को साथ रखने की इजाजत नहीं दे रहा था। बस यहीं से उनके चेहरे ने रंग बिखेरना शुरू कर दिए थे।
राहत को अकेले राहत मिलती नहीं थी। वही हुआ, जो उनकी मर्जी का नहीं था। बस, फिर वो किसी से नहीं मिल पाए। सुबह जरूर सतलज उन तक पहुंचा था, पर उतने करीब नहीं, जितना था। कभी उन्होंने कहा था- बिखर-बिखर सी गई है किताब सांसों की…ये कागजात खुदा जाने कब, कहां उड़ जाएं। उड़े और उस मिट्टी में दफ्न हैं, जिसको राहत इंदौरी हमेशा याद करते थे और कहते थे- दो गज़़ ज़मीन ही सही, मेरी मिल्कियत तो है…ऐ मौत तू ने मुझे जमींदार कर दिया। तंग रास्तों और गुरबत से निकला वो शायर जिसने कभी कोई समझौता नहीं किया और लगातार सत्ता, ताकत और पाखंड के खिलाफ बोलता है। अब नहीं हैं, पर उनकी वो आवाज जो पचास बरस मुशायरे की आवाज बनी, तब तक सुनाई देगी, जब भी बोला-सुना जाएगा। एक तरफ उनके जाने पर गम था, अफसोस था और दूसरी तरफ उनके इस शेर को घेरा जा रहा था- सभी का खून शामिल है यहां की मिट्टी में…किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है। ये शेर उन्होंने काफी पहले कहा था, लेकिन सोशल मीडिया पर जब से आया है, राहत इंदौरी को लगातार निशाने पर लिया जा रहा था, जबकि उनके ही शेर हैं- हों लाख ज़ुल्म मगर बद्दुआ नही देंगे…ज़मीन मां है, ज़मीं को दगा नहीं देंगे। जब मैं मर जाऊं तो मेरी अलग पहचान लिख देना… लहू से मेरी पेशानी पर हिंदुस्तान लिख देना। जो तौर है दुनिया का उसी तौर से बोलो… बहरों का इलाका है जऱा ज़ोर से बोलो। दिल्ली से हम ही बोला करें अम्न की बोली…यारों कभी तुम लोग भी लाहौर से बोलो। नमाज़े-मुस्तकि़ल पहचान बन जाती है चेहरों की… तिलक जिस तरह माथे पर कोई हिंदू लगाता है। दुश्मनी दिल की पुरानी चल रही है जाने से, ईमान से… लड़ते-लड़ते जि़ंदगी गुजऱी है बेईमान से, ईमान से। ऐ वतन! इक रोज़ तेरी खाक़ में खो जाएंगे, सो जाएंगे…मर के भी रिश्ता नही टूटेगा हिंदुस्तान से, ईमान से।
उन्होंने सियासत को आईना दिखाने में कभी कोताही नहीं बरती और उससे कभी उनकी बनी भी नहीं। उनका शेर है- वाकिफ़ है ख़ूब झूठ के फऩ से ये आदमी…ये आदमी ज़रूर सियासत में जाएगा। वो बेफकूफ़ ज़मीं बांटकर बहुत ख़ुश है… उसे कहो कि अभी आसमान बाकी है। राहत इंदौरी ने अपनी बात में कभी धागा नहीं बांधा, जो सही लगा बस कह दिया। कहीं-कहीं सख्त लफ्ज इस्तेमाल किए, लेकिन कहने और पिरोने का हुनर उन्हें आता था। उनकी शायरी में अगर इंकलाब है तो वतन को मजबूत करने के लिए भी उन्होंने कलम का इस्तेमाल किया है। वक्त-वक्त पर रहनुमाई की है, हर तरह के कट्टरवाद के खिलाफ रहे हैं, मजहबी पाखंड को बख्शा नहीं है, फिर चाहे मजहबी पेशवा नाराज ही क्यों ना हो जाएं।
राहत कहते थे, इंसान लड़ रहा है वजह सियासत है, क्योंकि किसी को साथ रहने नहीं देती है, इसे इत्तेहाद से डर लगता है, बार-बार कुछ ना कुछ ऐसा कर देती है, जिससे लोग बिखर जाएं, एक-दूसरे के दुश्मन हो जाएं और उनकी झोली वोट से भरी रहे। अंग्रेजों की जो सियासत थी, अभी भी जारी है। मिलाना चाहा है इंसां को जब भी इंसां से…तो सारे काम सियासत बिगाड़ देती है। राहत इंदौरी ने कभी फरिश्ता बनने की कोशिश नहीं की, जो किया, कभी छिपाया नहीं, क्योंकि उन्हें पता था, इंसान बनना ज्यादा मुश्किल है। हालांकि राहत इंदौरी के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं था, उनकी खूबी थी, मुश्किल से मुश्किल बात आसानी से कह देते थे। उनकी शायरी सिर्फ में महबूबा से बात करने का जरिया नहीं थी, नारा थी, जो सीधा असर करती थी। कभी वो आशिक हो जाते थे, कभी मजदूरों के मसीहा दिखने लगते, कभी सियासत का गिरेबान पकड़ लेते, कभी दाढ़ी और जनेऊ से मुकाबला करने निकल पड़ते। यही अंदाज, तेवर उन्हें दूसरों अलग करते रहे। लगातार पचास साल शायरी करना कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन आधी सदी तक मुशायरे के डायस पर राज करना कारनामा था, जो सिर्फ राहत इंदौरी ही कर सकते थे। शायरों को मरने के बाद ही शोहरत मिली है। राहत ही थे, जो जिंदा थे और हर उस जगह पहुंच गए थे, जहां शायरी समझी और बोली जाती है। उन्होंने नया अंदाज ईजाद किया, जिसने मुशायरों की तस्वीर ही बदल दी। इस डायस पर उनसे बड़ा कोई नहीं था और उनके बिना इसके वीराने को शायद ही कभी खत्म किया जा सके। हम ऐसे फूल कहां रोज़-रोज़ खिलते हैं… स्याह गुलाब बड़ी मुश्किलों से मिलते हैं।
उन्हें कई लक़ब दिए गए, घमंडी और बदतमीज़ कहा गया, तभी राहत इंदौरी ने शेर आगे किया- ज़रूर वो मेरे बारे में राय दे लेकिन…ये पूछ लेना कभी मुझसे वो मिला भी है। तुमको राहत की तबीअत का नहीं अंदाज़ा… वो भिखारी है मगर मांगो तो दुनिया दे दे। उन्होंने कभी कुछ मांगा भी नहीं और जब जश्न-ए-राहत की बात हुई तो इंकार करते रहे। फिर खुद ही कहा कर लो यार, वरना मेरी याद में करना पड़ेगा और उसके बाद ज्यादा रह भी नहीं पाए। सरकारी इनाम के लिए कोई जद्दोजहद नहीं की, किसी से सिफारिश नहीं करवाई। उनका कहना था- एक हुकूमत है जो इनाम भी दे सकती है… इक कलंदर है जो इनकार भी कर सकता है। सोने का रथ फकीर के घर तक ना आएगा… कुछ मांगना है हमसे तो पैदल उतर के आ।
उनका कहना था, जब अटलबिहारी वाजपेई प्रधानमंत्री थे, तब चाहने वालों ने कोशिश की थी, मुझे कोई ‘पदमÓ मिल जाए। उन्होंने मुझसे कहा, आप दस-बीस अंजुमनों से लिख कर दे दीजिए, बाकी काम हमारा है, पर मैं शायर हूं, बस यही मुझे आता नहीं है। अगर कर लेता तो आगे-पीछे कोई पदम जरूर लग जाता। उन्हें किसी अवार्ड की जरूरत नहीं है और कल जब उनकी आंखें बंद हुईं, जिस तरह से उन्हें याद किया गया है, पूरी दुनिया में उनके शेर गूंजे। सोशल मीडिया से लेकर हर उस जगह जहां बोला-सुना-लिखा जाता है, सिर्फ राहत इंदौरी बोल रहे थे। उन्हें जो हासिल करना था, कर चुके हैं, लोगों की ज़बान पर उनका कलाम है। उनका शेर है- मैंने मुल्कों की तरह लोगों के दिल जीते हैं…ये हुकूमत किसी तलवार की मोहताज नहीं।