प्रतिमान ! बड़े भैया को समर्पित मेरा आखिरी खत

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चंद्रशेखर शर्मा। आदत के खिलाफ पिछले कई दिनों से मैंने कोई बड़ी पोस्ट नहीं लिखी है। इसी में पता चला कि लिखने की तरह नहीं लिखने का भी अपना एक आनंद और अलग अहोभाव होता है !

सो सोचा था कि जब तक मुमकिन होगा, लिखना टालूंगा। इसी बीच शुक्रवार को बड़े भैया यानी विष्णुप्रसाद शुक्ला के ब्रम्हलीन होने की अत्यंत दुःखद खबर मिली। तब अनायास ही इस खाकसार को मिले उनके अतिशय स्नेह, सान्निध्य और सामर्थ्य का एक पुराना और लंबा कालखंड आंखों में चलचित्र की मानिंद घूम गया। ख्याल आया कि मैंने बड़े भैया पर अपनी आत्मा के वो भाव और आवाज न लिखी तो मुझसे बड़ा नालायक, कमजर्फ और कृतघ्न कोई नहीं होगा। बड़े भैया को तमाम दूसरे लोगों की तरह मैं भी बाऊजी कहता था। सोचा कि यदि बतौर पत्रकार उनके बारे में लिखूंगा तो शायद उनके और अपने भावों के साथ भी, न्याय नहीं कर पाऊंगा। यों पत्रकार मैं बहुत बाद में बना था और मुझे उनका स्नेहिल सान्निध्य उसके बहुत पहले मिल चुका था। फिर मेरी जाती राय और अनुभव कहता है कि बतौर पत्रकार किसी दिवंगत हस्ती के बारे में लेखन अक्सर सौ टंच ईमानदार नहीं होता। तब कुछ बाध्यताएं और आवेग होते ही हैं कि उस लेखन में अतिरिक्त लगाव, दुराव-छिपाव आदि कुछ शामिल हो ही जाता है। यही वो बात थी कि बाऊजी के बारे में लिखने को लेकर मन मे पिछले तीन दिनों से एक तरह की ऊहापोह सवार रही। बहरहाल काफी सोच-विचार के बाद मैंने बाऊजी से जुड़े सिर्फ दो प्रसंग लिखना तय किया है, क्योंकि मेरे पास उनके बारे में लिखने को इतना है कि एक लंबी सीरीज हो सकती है। खैर।

असल में बाऊजी इस शहर की एक अलग ही विरल हस्ती थे। हस्ती का एक अर्थ होता है व्यक्तित्व, लेकिन मुझे उसका जो अर्थ बाऊजी (बड़े भैया) के संदर्भ में सर्वाधिक जंचा वो है सामर्थ्य ! यही सामर्थ्य किसी को दूसरों से जुदा और बेहतर साबित करती है और इसकी कोई सीमा नहीं होती यानी यह कल्पनातीत होती है। उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति कितना ही बलशाली हो, लेकिन वो चट्टान को नहीं हिला सकता। इसके उलट हम सदियों से सुनते आ रहे हैं कि श्रीकृष्ण ने चीटी उंगली पर गोवर्धन पर्वत उठा लिया था ! अपने मुख में ब्रम्हांड दिखा दिया था ! आप कहेंगे श्रीकृष्ण तो अवतारी पुरुष थे और मायावी थे। ठीक है। सो यदि दुनियावी उदाहरण की बात करें तो कई बार हम देखते हैं कि ऐसे कई काम होते हैं जो पुलिस, कलेक्टर, विधायक, सांसद और मंत्री तक नहीं करा पाते, लेकिन वही काम किसी सामर्थ्यवान के फकत इशारे से हो जाते हैं !

पिछले दिनों मैंने ओटीटी प्लेटफॉर्म पर सीरीज ‘रंगबाज’ देखी। यह बिहार के खूब चर्चित बाहुबली और राजनेता मरहूम शहाबुद्दीन पर बनी है। उसमें एक रियल किस्सा है कि शहाबुद्दीन फरमान जारी करता है कि आज के बाद पूरे सिवान में कोई डॉक्टर 50 रुपए से ज्यादा फीस मरीजों से नहीं लेगा ! अचरज की बात कि फिर वो फरमान वहां की जैसे व्यवस्था बन जाता है। आप सोचिए क्या कोई कलेक्टर-एसपी, मंत्री, मुख्यमंत्री वहां ऐसा करा सकता है ? करा सकता था तो किस सूरत और किस कानून से ? लेकिन शहाबुद्दीन ने न कानून न कायदा और सिर्फ बोलकर ऐसा कर दिखाया था। हालांकि वो उचित था या अनुचित यह अलग बहस का मसला है, पर मूल बात है सामर्थ्य ! सो बाऊजी भी इस शहर में सामर्थ्य की ऐसी ही एक विरल प्रतिमूर्ति और प्रतिमान थे।

जिन दो किस्सों की मैं बात करने जा रहा हूँ, वो वर्ष उन्नीस सौ अठासी के आसपास के है। कुछ ऐसा योग बना था कि तब हम पांच (सब 25-26 बरस की उम्र के) जांबाज लोगों की टीम बाऊजी के साथ जिप्सी में रोज सुबह बाणगंगा उनके निवास से सांवेर के गांवों का दौरा करती थी और फिर उन्हीं के साथ रात को सब वापस इंदौर लौटते थे। तब उनकी जिप्सी बिरजू नाम का शख्स चलाता था। लंबे समय बेनागा यह सिलसिला चला। एक दिन बाऊजी से मैंने कहा कि मैं पांच भाई-बहनों में सबसे बड़ा हूँ और कोई काम मिल जाए तो पिताजी को घर चलाने में थोड़ी मदद हो जाएगी। बाऊजी ने बहुत धैर्य से मेरी बात सुनी और कुछ सोचकर बोले कल दोपहर कुछ करते हैं। अगले दिन दोपहर में वो मुझे अपनी उसी जिप्सी में लेकर एमजी रोड पर वहां पहुंचे जहां आज ट्रेजर आईलैंड मॉल है। तब वहां शहर के बड़े और नामी उद्योगपति (अब स्वर्गीय) पीएस यानी प्रेमस्वरूप कालानी का आलीशान बंगला और कई ऑफिस थे। वो मुझे सीधे पीएस के बहुत बड़े और निजी ऑफिस में लेकर गए और कुछ देर इधर-उधर की बात कर मेरी पढ़ाई-लिखाई की बाबत उन्हें बताकर कहा कि इसे कुछ काम दीजिये। आप यकीन कीजिये कि इस पर पीएस ने सिर्फ यह कहा कि जी, ठीक है कल से इन्हें भेज दीजिए। फिर उन्होंने मुझसे मुखातिब होकर कहा कि आगे कालानी फाइनेंस का ऑफिस है। वहां आपको मैनेजर उपेंद्र धीर मिलेंगे। उनसे कल मिलकर वो जो काम बताए, शुरू कर दीजिए। इसके कुछ देर बाद बाऊजी मुझे लेकर वहां से रवाना थे।

अगले दिन मैं अकेला वहां पहुंचा और सीधे मैनेजर धीर से मिलकर अपना परिचय दिया तो वो बड़ी गर्मजोशी से मिले और कहा आपको फाइनेंस की गाड़ियां सीज करने का काम करना होगा। तनख्वाह होगी आठ हजार और जमा हर गाड़ी सीज करने पर दो हजार रुपये ! आगे बोले, महीने में चार-पांच गाड़ियां सीज करना होती हैं। ऑफिस जरूर रोज आना पड़ेगा, लेकिन केवल दो-तीन घण्टे के लिए। जाहिर है यह दबंगई की नौकरी थी और फिर अपने बलन और शौक की भी। अपन को गदगद होना ही था। फिर अपन ने वहां इंदौर और बाहर से भी कई गाड़ियां सीज कीं। सोचिए, तब मेरे जैसे बेशुमार नौजवानों को नौकरी के लाले थे और एड़ियां घिस जाती थीं, पर नौकरी न मिलती थी। उधर, यह बाऊजी का सामर्थ्य था कि किसी को बोला और नौकरी तुरंत मेरे हाथ में थी !

दूसरा प्रसंग। इसके कुछ महीनों बाद मेरे एक ताजा झगड़े और मारपीट और झगड़ों के पुराने रिकॉर्ड के आधार पर पुलिस ने मुझे रासुका लगाकर इंदौर की सीआई जेल में पहुंचा दिया। हालांकि उसके पहले अपन मारपीट के मामलों में कई बार सेंट्रल जेल की यात्रा कर चुके थे, लेकिन यह सीआई जेल की पहली यात्रा थी और अंदर अपना कोई भी परिचित न था तो थोड़ी धुकधुकी थी कि सालभर यहां कैसे काटेंगे ? फिर शहर और प्रदेश के कई नामचीन दादा-पहलवान वहां बंद थे। वहां जेल की दो नम्बर हवालात में अपने को डाला गया, जहां कई दूसरे रासुका बंदी और करीब तीस पैंतीस दूसरे बदमाश पहले से थे। वहीं एक नम्बर हवालात में छावनी का रहने वाला कुख्यात बदमाश जग्गी जाट भी बंद था और पता चला उसका जेल में वो नक्शा था गोया जेलर के बाद पूरी जेल वही चलाता था। जेल के सारे छोटे-बड़े बंदियों में उसका एकतरफा खौफ और दबदबा था। मुझे बमुश्किल जेल में आठ-दस दिन हुए होंगे कि एक सुबह वो हमारी बैरक में आया और मुझसे पूछा, चंदू तुम हो ? जग्गी करीब सवा छह फीट का ऊंचा-पूरा और तगड़ा बंदा था और उसकी एक आंख खराब थी। मैंने धड़कते दिल से कहा, हां, मैं ही चंदू हूँ। इस पर उसने अपनी जेब से एक पर्चा निकालकर मेरी तरफ बढ़ाया और बोला सेंट्रल जेल से यह चिट्ठी तुम्हारे लिए चंदर (बदमाश रामचंदर काला) ने भेजी है। इस रामचंदर काला से मेरा पहले से परिचय था कि वो दो-तीन दफे मुझसे मिला था और एक बार पंचकुइयां रोड पर उसके घर पर कुछ बदमाशों की उसने खाने-पीने की पार्टी की थी तो मुझे भी बुलाया था और मैं उसमें गया था।

जग्गी की दी वो चिट्ठी मैंने वहीं खोलकर पढ़ना शुरू की तो पाया कि बैरक के तमाम बंदी हम दोनों की तरफ ही देख रहे थे। चिट्ठी मुझे संबोधित थी। लिखा था, ‘चंदू भाई, जग्गी दादा बहुत यारबाज और बहुत आदरणीय हैं। इन्हें एक केस में जमानत के लिए 15 हजार रुपये की जरूरत है। तुम इनकी व्यवस्था करवा दो !’ चूंकि जेल यात्राओं का मुझे पहले का अनुभव था तो तुरंत समझ गया कि ये चकरी क्यों घूमी है। मुझे खास बुरा तो यह लगा कि वो मुझे धुर और बनिये का बच्चा समझ रहा था। काला की चिट्ठी वाली इस हरकत और फितरत से अंदर ही अंदर बुरी तरह कलपकर मैंने जग्गी से कहा, ‘आओ पहलवान, बाहर चलकर बात करते हैं।’ वो बादशाह की तरह मेरे पीछे-पीछे बाहर आया तो मैं उसे लेकर बैरक की पीछे वाली दीवार के बगल में गया और पूछा कि ‘पहलवान आप कितने पढ़े-लिखे हो ? वो बड़ी बेफिक्री से बोला, ‘मैं तो सिर्फ छठी पास हूँ।’ वो मुझसे कोई दस बरस बड़ा था। तब मैंने कहा ‘पहलवान, मैं साइंस ग्रेजुएट हूँ, शतरंज का चैंपियन हूँ और कॉलेज में पैनल लड़ाता हूँ। हां, इस काला को (गाली देते हुए मैंने कहा) मेरे बारे में कुछ मुगालता हो गया है जो उसने मुझे यह चिट्ठी यहां पहुंचाई है, लेकिन उसका यह मुगालता मैं जल्द दूर कर दूंगा !’

भगवान जाने मेरी बात का जेल के उस डॉन पर क्या असर हुआ कि उसने धीरे से मेरे हाथ से वो चिट्ठी ली और रवाना हो गया। मैं भी वापस अपनी बैरक में आकर बैठ गया। मैं समझ गया था कि अब आगे अपने लिए जेल आसान नहीं रहने वाली। उस समय तक मेरी बैरक में बंद खंडवा के नामी बदमाश यूसुफ फेंगड़ा (उसके दोनों हाथ सिर्फ तीन उंगली और एक अंगूठे वाले थे, इसलिए उसका नाम फेंगड़ा पड़ गया था) से मेरी थोड़ी-बहुत बातचीत शुरू हुई थी, लेकिन जग्गी से मेरी वह बात मैंने किसी को नहीं बताई। दिन बीतने लगे। इसी बीच पता चला कि जग्गी की बैरक में उसके ठिये पर छावनी का ही एक टाटा पहलवान था और पांच-सात बदमाश और, जो सभी जग्गी की चाकरी में थे और जग्गी तो ठीक, उस टाटा पहलवान की भी बंदियों, जेल के सीओज और प्रहरियों में धाक थी। जेल में सीओज वो कैदी रहते हैं जो जेल की बंदियों से संबंधित कई व्यवस्थाओं, अनुशासन और प्रबंध से लेकर गड़बड़ करने वाले बंदियों की ठुकाई आदि करते हैं। वो जेल प्रशासन द्वारा चुने जाते हैं और उनके विश्वस्त रहते हैं। सो इनकी भी अपनी धाक होती है और टेरर होता है। खैर। तभी एक दिन सदर बाजार के मेरे दूर के दो रिश्तेदार भी मारपीट के एक मामले में जेल में आए। जेल में हमारी मुलाकात हुई तो मुझे थोड़ा ढांढस बंधा कि चलो अब मैं अकेला नहीं रहा। हालांकि उन्हें मुझसे दूर एक अन्य बैरक में रखा गया था। उन दिनों जेल में अखबार भी आता था। जग्गी से उस बातचीत को पन्द्रह दिन बीते होंगे कि एक दिन मैं उन रिश्तेदारों के साथ अपनी बैरक के बाहर बैठकर चर्चा कर रहा था। मैंने देखा कि थोड़ी दूर टाटा पहलवान जेल में आया अखबार पढ़ रहा था। मैंने अपने उसी एक रिश्तेदार से कहा कि जाओ और उससे कहो कि अखबार पढ़ लिया हो तो हमको पढ़ने को दे दे। रिश्तेदार उसके पास गया मेरी तरफ इशारा करके कहा कि तुमने अखबार पढ़ लिया हो तो वो मंगा रहे है। उस समय शाम के करीब पांच बजे थे। मैंने देखा कि पता नहीं क्या बात हुई कि टाटा पहलवान ने मेरे रिश्तेदार से बिना बात गाली-गलौज शुरू कर दी और मारपीट पर उतारू हो गया। सब कैदी उधर ही देखने लगे, पर किसी की हिम्मत न थी कि बीच में पड़े। आखिर वो जग्गी का नायब था। इस पर मैं अपने दूसरे रिश्तेदार साथी के साथ उधर बढ़ा तो टाटा के दूसरे साथी भी आ गए। दोनों तरफ से मारपीट शुरू हो गयी। इसी दौरान मैंने टाटा को हल्की सी हूल में लिया और पलक झपकते उसे चपड़ास (एक पहलवानी दांव) मारी। उससे वो तुरंत हवा में एक फिट ऊपर उछला और धम्म से जमीन पर। उधर रिश्तेदार टाटा के साथियों से गुत्थमगुत्था थे। चंद पलों में पूरी जेल में हंगामा गूंज गया और अनेक जेल प्रहरी वहां दौड़े आए तथा एकाएक ही जेल अलार्म से गूंज उठी। तब प्रहरियों ने फटाफट हम सबको अलग-अलग कर अपनी-अपनी बैरक में बंद कर दिया। अलार्म होने से पूरी जेल सन्नाटे में आ गयी। सिर्फ हमारी बैरक नहीं, बल्कि जेल के तमाम कैदियों को बलपूर्वक उनकी बैरकों में बंद कर बैरकों पर बाहर से ताले डाल दिये गए। बैरक में बंद होने के बाद भी मारे गुस्से के मेरा दिमाग बुरी तरह खराब था कि टाटा ने मेरे रिश्तेदार पर हाथ कैसे छोड़ दिया। तभी पता चला जेल में अलार्म बजना यानी व्यवस्था भंग होना था और उसे भंग करने वाले बंदियों की शामत तय थी।

अलबत्ता बमुश्किल दो मिनट बाद जेल के डॉन जग्गी का जलवा मेरे सामने था ! जैसा मैंने लिखा कि तब जेल में अलार्म के बाद तमाम बैरकों पर ताले डल चुके थे और इमरजेंसी लॉकअप हो चुका था। यानी अब वो ताले अगले दिन खुलते या जेल का कोई बड़ा अधिकारी चाहता तो संबंधित बंदियों की शामत के लिए किसी एकाध बैरक का तभी। जलवा यह सामने आया कि बिना जेल के किसी अधिकारी की हाजरी के तभी सिर्फ जग्गी की बैरक का ताला खुला और वो अकेला चार प्रहरियों (जो कि उस समय उसके अर्दली मालूम पड़ रहे थे) के साथ मेरी बैरक के जंगले (लोहे के चौड़े पाइपों वाली बड़ी खिड़की) पर आया और मेरी तरफ देखकर दहाड़ा कि, ‘क्यों रे तू बहुत बड़ा दादा है ?’ मैं भी गुस्से से भरा ही था। मैं भी दहाड़ा कि ‘तो तू बहुत बड़ा दादा है ?’ इस पर उसने मुझे बहुत भद्दी मां की गाली दी। बस उसका यह गाली देना था कि गुस्से में न मुझे उसके इस जलवे का भान रहा न उसके जेल के डॉन होने का। मैं गुस्से से एकदम फट पड़ा और चिल्लाया कि ‘कानिये, तेरे में दम है तो खुलवा बैरक। अभी तेरे को बताता हूँ तेरी औकात। साले, मुगालते में मत रहना किसी को भी तेरी मुलाकात लिवाकर तुझे जेल के गेट पर ही गोली मरवा दूंगा !’ सुनकर वो और उसके साथ वाले वो चारों प्रहरी सन्नाटे में आ गए कि किसी नये और मेरे जैसे अनजान बंदी से ऐसी हेकड़ी और दिलेरी की किसी को सपने में भी उम्मीद न थी। प्रहरियों ने जब देखा कि मामला उलटा पड़ रहा है तो उन्होंने तुरंत जग्गी को ‘पहलवान-पहलवान भीतर चलो, कहते हुए लगभग धकाया और ले जाकर उसे उसकी बैरक में बंद कर दिया। इधर, तभी नयी बात यह हुई कि मेरी बैरक के तमाम कैदी जो इसके पहले तक मुझसे बात तक नहीं करते थे, वो सब तुरंत मेरे आसपास इकट्ठा हो गए और बोलने लगे ‘चंदू भाई आपने आज बहुत बढ़िया काम किया है। आप घबराना मत, हम सब आपके साथ है।’ पता चला शहर का कुख्यात बदमाश अशोक भाट भी उसी बैरक में था। वो मुझसे बोला ‘चंदू भाई, आज से आप हमारे ठिये पर ही खाना-पीना करेंगे और आपको किसी चीज की तकलीफ नहीं आने देंगे।’ हालांकि तब मेरा दिमाग किसी और ही उधेड़बुन में था। मैंने अशोक भाट से कहा ‘मुझे अभी, आज ही, मेरे घर एक चिट्ठी भिजवानी है, कैसे होगा ?’ उसने कहा ‘आप लिखो, पहुंच जाएगी !’ मैंने कहा ‘आज ही ?’ तो वो बोला ‘हां आज रात ही।’ मैंने पूछा, ‘कैसे ?’ तो वो बोला ‘अपनी बलन का एक प्रहरी है। उसकी ड्यूटी अभी शाम को खत्म होगी और सौ रुपये लेकर आपकी चिट्ठी घर पहुंचा देगा, इसकी गारंटी मेरी !’

मुझे उसकी बात में दम लगा और फिर दूसरा कोई चारा भी न था। मैंने तभी हाथोहाथ अपनी टीम के दो साथियों के नाम चिट्ठी लिखी। उसमें जग्गी से भिड़ंत का पूरा माजरा लिखा और लिखा कि तुम जल्द से जल्द जेल पर आकर मेरी मुलाकात लो और मुझे जेल में कैसे भी करके हथियार पहुंचाओ। फिर अपने दादाजी के लिए नीचे लिखा कि वो यह चिट्ठी मेरे उन साथियों तक तुरंत पहुंचा दें। आखिर में चिट्ठी पर ऊपर घर का पता लिखकर मैंने उसे बंद कर दिया। कुछ घण्टे बाद रात करीब नौ बजे अशोक मेरे पास आया और कहा ‘प्रहरी आया है, चिट्ठी दो।’ देखा तो जंगले पर एक साया दिखा। मैंने चिट्ठी उसे दी और कहा ‘चिठ्ठी पर ऊपर लिख दिया है कि चिठ्ठी लाने वाले को सौ रुपये दे देना। उसे घर चिट्ठी पहुंचाने पर पैसे मिल जाएंगे।’ अशोक ने कहा ठीक है और यूं मेरी चिठ्ठी जेल से बाहर रवाना हो गयी। इधर, मन में बहुत उथल-पुथल थी और मैं समझ चुका था कि रामचंदर काला की वो चिट्ठी और उस पर मेरा जवाब ही इस बहुत बड़े पंगे तक पहुंच गया था। अलबत्ता लड़ने-भिड़ने और मारपीट का खूब अभ्यस्त और अनुभव होने के बावजूद मेरी वो रात बहुत सस्पेंस और तरह-तरह के ख्यालों में गुजरी।

अगले दिन दोपहर तक मुझे महसूस हो चुका था कि कल की घटना की पूरी जेल में बोम हो चुकी है और इसीलिए जेल की हवा में अजीब सी सनसनी वाली खामोशी थी। तभी करीब 12 बजे एक सीओ ने आकर मुझे बताया कि तुम्हारी मुलाकात आयी है। इससे मुझे बहुत राहत मिली और साफ था कि रात में उस प्रहरी ने अपने काम को चौकस निभाया था और मेरी चिट्ठी घर पहुंचा दी थी। मैं मुलाकाती कक्ष में पहुंचा तो बाहर प्रवीण गायकवाड़ और बसंत काला (दोनों शहर के नामचीन दादा और मेरे साथी) मौजूद थे। उन्होंने हालचाल पूछे और इशारों में बताया कि दाल-चावल, शक्कर के साथ मेरा ‘सामान’ वो अंदर पहुंचा चुके थे। दोनों ने यह भी कहा कि उन्होंने जग्गी से भी मुलाकात ली है और उसे कहा है कि चंदू अपना भाई है। फिर भी तुम जग्गी से सावधान रहना। कुछ देर में यह मुलाकात खत्म हो गयी। मैं भीतर जेल के गेट पर पहुंचा तो एक सीओ ने बाहर से आयी दाल-चावल और शक्कर से भरी वो थैली मुझे थमा दी। बता दूं कि ऐसा हर सामान बंदी को सौंपने से पहले उस सामान की पूरी तलाशी ली जाती है। मेरी थैली की भी ली गयी थी। थैली लेकर करीब तीन सौ कदम दूर मैं अपनी बैरक में अपनी सीमेंट की बनी वेदी पर पहुंचा और उसमें झांका तो ऊपर फोर स्क्वेयर किंग साइज सिगरेट के कई पैकेट, तीस नबंर बीड़ी का कई बंडल वाला बड़ा पैकेट, दाल-चावल, शक्कर के पूड़े और उसके नीचे हरी मिर्च और मैथी-पालक आदि बहुत सारी हरी सब्जियां थीं। मैंने एक-एककर सबको बाहर निकालना शुरू किया और अभी आधी सब्जियां ही बाहर निकाली थी कि देखा उसमें एक बड़ा रामपुरी चाकू मौजूद था ! उसे देखकर जैसे मुझे अलग ही आश्वस्ति मिली। उसे निकालकर मैंने बहुत गोपनीय तरीके से अपने आठ कम्बलों वाले बिस्तर में बीच में उसे छुपाकर और उस बिस्तर की गोल गठरी बनाकर गठरी को वेदी पर एक तरफ टिका दिया। फिर मैंने बाहर निकाला सारा सामान वापस थैली में रखा और उसे अशोक भाट को दिया कि संभालो यह सब घरवालों ने पहुंचाया है। हमारे उस ठिये पर सात बंदियों का खाना रोज अशोक ही बनाता था।

मैं उसे थैली देकर फारिग हुआ ही था कि तभी एक सीओ आया और मुझसे बोला, चलो तुम्हें सुपरिंटेंडेंट साहब बुला रहे हैं। सुनकर मेरा दिल बहुत जोर से लरज गया कि यह क्या बला माथे आ गयी ? मन में तरह-तरह के विचार और धुकधुकी के साथ मैं सीओ के पीछे-पीछे चला। उसने मुझे सुपरिंटेंडेंट के ऑफिस में ले जाकर हाथ पीछे करके खड़े रहने को कहा और खुद साइड में सावधान मुद्रा में खड़ा हो गया। सुपरिंटेंडेंट बावर्दी और बहुत रौबदार दिखने वाले सरदारजी बड़ी सी टेबल के पीछे अपनी कुर्सी पर बैठे मुझे अपलक घूर रहे थे। अचानक उन्होंने कड़क आवाज में पूछा, ‘क्या नाम है ?’ मैंने बड़े अदब से सर के संबोधन से उन्हें बताया। बोले, ब्राम्हण हो ? मैंने कहा, जी सर। बोले, पढ़े-लिखे मालूम होते हो। मैंने कहा, हां सर, होलकर कॉलेज से बीएससी हूँ। बोले, घर में कौन-कौन हैं ? मैंने बताया। बोले, खुद को शतरंज चैंपियन बताते हो ? मैंने कहा, हां सर, स्टेट चैंपियनशिप जीत चुका हूँ। बोले, ब्राम्हण हो, पढ़े-लिखे हो, शतरंज के खिलाड़ी हो, फिर इस गुंडा लाइन में क्यों जीवन खराब कर रहे हो ? मैंने कहा, सर गुंडा लाइन नहीं, लेकिन कॉलेज में पैनल लड़ाई थी। उसी सिलसिले में झगड़े हुए थे और पुलिस ने जबरन रासुका लगा दी। वो कड़ककर बोले, ज्यादा तेज मत चल, यदि जेल में तूने झगड़ेबाजी और कुछ गड़बड़ की तो उलटा लटका दूंगा, समझा ! मेरे मुंह से बोल न फूटा। फिर वो बोले, ‘चल फुट और शिकायत नहीं आना चाहिए।’ तब उस सीओ ने मेरी बांह थामी और बाहर ले चला।

बाहर आते ही मैंने लम्बी सांस ली कि गनीमत है सस्ता छूटा था और खास बात कि जेल में मेरे पास पहुंचे चाकू की किसी को भनक तक न थी। आगे करीब दस दिन ऐसे ही गुजरे। बदलाव यह हुआ था कि मेरी बैरक में अब सब लोग मुझसे बहुत दोस्ताना हो गए थे और जेल के बजाय अब मैं रोज बैरक में अशोक और उसके साथियों का बनाया असली घी वाला खाना खाने लगा था। जग्गी और उसकी टाटा मंडली से मेरा रोज आमना-सामना होता था, लेकिन न वो कोई हरकत करते थे और न अपन। उनसे बातचीत का तो सवाल ही न था। खास बदलाव यह हुआ था कि मेरे वो दूर के जो रिश्तेदार रोज मुझसे मेरी बैरक में मिलने आते थे, उन्होंने आना बिलकुल बंद कर दिया था ! हां, अशोक जरूर मेरे बहुत निकट हो गया था और अक्सर मुझे चेताते रहता था कि ‘चंदू भाई बहुत सावधान रहना, क्योंकि जग्गी किसी भी तरीके से हरकत करवा सकता है।’ वो जेल में जग्गी के निजाम की कई बातें और डरावने किस्से भी मुझे बता चुका था। हां, चाकू वाली बात मैंने अशोक तो क्या, किसी को भी नहीं बताई थी। उस वक्त जेल में अशोक भाट के अलावा बडू भाट, यूसुफ फेंगड़ा, बम्बई बाजार की खतरनाक निजाम लाला गैंग का सलीम अंटा, अज्जू अंडेवाला, रामिया गैंग का मनोहर, मल्हारगंज का गोप, उसका भाई गोल, जूना रिसाला का एहसान बोस सहित एक से बढ़कर एक खतरनाक बदमाश थे, लेकिन जग्गी से अपनी उस भिड़ंत के बाद अपन सबके चंदू भाई हो गए थे। हां, अशोक और बडू भाट को छोड़कर बाकी सबके जग्गी से अच्छे ताल्लुकात थे। आखिर वो जेल का डॉन था।

इसी दौरान जेल में खबर आई कि सांवेर में किसी मोहन बल्लीवाल की दिनदहाड़े चाकुओं से गोदकर हत्या कर दी गयी है और उसमें बड़े भैया यानी बाऊजी का नाम आया है ! इससे पूरी जेल में सनसनी फैल गयी। जेल में तरह-तरह की चर्चा और किस्से चलने लगे। मेरे मन में भी कई ख्याल आये। एक दिन, दो दिन, तीन दिन यह सब चला और जेल में फिर सब सामान्य रूटीन हो गया। इसके कई दिनों बाद जेल में मेरे साथ फिर एक नयी फितरत हुई। एक दिन सीओ ने मुझे आकर कहा कि तुमको सेल में डाला जा रहा है। मैंने पूछा क्यों तो वो बोला जेलर साहब का आदेश है, कल सुबह तैयार रहना। जेल में वो सेल एक छह बाय आठ फीट की और करीब दस फीट ऊंची एक छोटी सी खिड़की और दरवाजे वाली कोठरी थी। किसी बंदी को सेल में डालने का मतलब होता है जेल के भीतर बहुत कठोर सजा। यह सेल जेल में एक तरफ सुनसान स्थान में होती है। वहां आपको चौबीसों घण्टे नितांत अकेले रहना होता है और कोई इंसान और उससे बातचीत तो दूर आपको कोई परिंदा भी नहीं दिखता। दूसरे दिन मुझे उसमें डाल दिया गया। उसके पहले मैं बैरक में कम्बलों वाले बिस्तरों में छुपाकर रखे अपने चाकू को और हिफाजत से छुपा आया था। सेल में मुझे सोने के लिए दो दूसरे कम्बल दिए गए। तब सुबह तय समय पर एक प्रहरी आता और सेल का ताला खोलकर मुझे नित्य कर्म से फारिग करवाकर वापस बंद कर चला जाता। इसी तरह दो बार वो खाना देने के लिए दरवाजा खोलता और फिर बंद। गनीमत थी कि प्रहरी वही था, जिसने मेरी चिट्ठी घर पहुंचाई थी। क्या पता उसे हिदायत थी या नियम था कि वो मुझसे बहुत ही कम और केवल जरूरतपूर्ति बात करता था। फिर भी पहले ही दिन उसने पता नहीं क्या सोचकर मुझे बताया कि मुझे जग्गी ने ही सेल में डलवाया है ! जाहिर है उसका ऐसा ही जलवा था कि मैं बिना बात सेल में डाल दिया गया था। बहरहाल उस सेल में तीन दिन में ही अकेलेपन से मेरी हालत बुरी तरह खराब हो गयी। मैं पागलों की तरह दिन में कई बार चिल्लाकर प्रहरी को आवाज देता था, लेकिन जवाब में कहीं पत्ता तक नहीं खड़कता था। इत्तेफाक से चौथी दिन सुबह प्रहरी आया तो उसने बताया कि मोहन बल्लीवाल हत्याकांड में जेल में कल बड़े भैया और उनके पांच-छह साथी की नई आमद हुई है ! सुनकर मेरे अचरज का ठिकाना न रहा।

ठीक है कि बाऊजी का जेल में बंद होना कोई अच्छी खबर नहीं थी, लेकिन जिन हालात में मैं था, उनमें और उसी जेल में उनका आना मेरे लिए जैसे ‘लाटरी’ लग गयी थी। मैंने फौरन उस प्रहरी से कहा कि मेरी एक चिट्ठी उन तक पहुंचानी है और उसके भी पैसे दूंगा तो वो हैरत से मेरा मुंह ताकने लगा कि कहां बड़े भैया और कहां ये अनजान लेकिन जग्गी से पंगा लेने वाला और उसके कहर का शिकार यह छोकरा ? आखिर उसने हां भरी। तब मैंने एक छोटे से पर्चे पर लिखा कि ‘बाऊजी, इस जग्गी जाट के मैंने मुगालते दूर कर दिए हैं। आपसे बस इतना निवेदन है कि मैं इस जग्गी को यहीं जेल में आड़ा कर दूंगा। आप बस इतना करना कि उसके बाद जेल में मुझे जेलवाले (जेल प्रशासन) एक लकड़ी (डंडा) भी न मारें ! फिर प्रहरी को वो चिट्ठी देकर रवाना कर दिया। नतीजा अगले ही दिन सामने था।

अगले दिन वही प्रहरी आया और बोला तुमको अभी सेल से निकाला जा रहा है और वापस दो नम्बर हवालात में शिफ्ट कर रहे हैं, लेकिन दोपहर के खाने के बाद, लेकिन सुनकर मेरी तो भूख ही खत्म हो गयी थी और मैं समझ गया कि जरूर बाऊजी ने ही कुछ किया था। फिर दोपहर बाद मैं सेल से हवालात में पहुंचा ही था कि एक अन्य प्रहरी ने बताया कि तुमको बड़े भैया ने मिलने बुलाया है ! मैं फौरन उसके साथ हो लिया। वो मुझे दूर एक अलग बैरक तक छोड़ आया। वहां मैं अंदर पहुंचा तो देखा बाऊजी, कन्हैया पहलवान, वीरेंद्र रघुवंशी और और दो-तीन अन्य लोग बैठे थे। वो बहुत साफ-सुथरी और लम्बी-चौड़ी, व्यवस्थित बैरक थी और इन सबके अलावा वहां और कोई बंदी न था। मैंने जाकर बाऊजी के पैर छुए तो बोले खाना खाओ। वहां कई टिफिन, तरह-तरह के नमकीन की थैलियां, फल, मिठाई और जाने। क्या-क्या था। सभी नमकीन का स्वाद ले रहे थे। मैं भी उसमें शामिल हो गया। कई मिनट हो गए और बाऊजी ने मुझसे कुछ न पूछा कि क्या हुआ था। तब मैंने ही कहा कि बाऊजी, मुझे जग्गी को आड़ा करना है। उन्होंने सुना तो जाने क्यों उनके चेहरे पर चिर-परिचित मुस्कान आयी और बोले, ‘अब कोई जरूरत नहीं। उस तक खबर पहुंचा दी है। अब वो तुम्हारी तरफ देखेगा भी नहीं।, फिर एकाएक बोले, चलो तुमसे शतरंज की एक बाजी खेलते हैं। सच कहूं तो जग्गी को लेकर उनके दिलासे से जाने क्यों मुझे खात्री न हुई कि जग्गी का जलवा मैं देख-भुगत चुका था। अलबत्ता यह जानकर हैरानी हुई कि बाऊजी शतरंज खेलते थे और मेरे साथ खेलना चाहते थे, जबकि मैंने कभी उन्हें अपने शतरंज खेलने के बारे में कुछ न बताया था ! देखा कि वहीं नया-नकोर कैरम भी जमा हुआ था। वो तो बहुत बाद में समझ में आया कि बाऊजी को जेल में तमाम कैदियों से अलग एक पूरी बैरक, नमकीन, मिठाई, घर के बने खाने के टिफिन, शतरंज, कैरम आदि सब ऐसे ही नहीं हासिल थे ! बहरहाल उस दिन मैंने बाऊजी के साथ शतरंज की एक नहीं, बल्कि कई बाजियां खेलीं और फिर यह रोज का रूटीन हो गया था।

उधर, हर बीतते दिन के साथ मैंने पाया कि जग्गी अन्य बंदियों के मार्फ़त मुझसे बात करने के बहाने तलाशने लगा था, लेकिन मैं उसे कोई मौका नहीं देता था। आखिर एक दिन, जबकि वो बैरक के बाहर साथियों के साथ रमी (जुआ) खेल रहा था, उसने खुद मुझे जोर से आवाज लगाई और पूछा, ‘चंदू भाई, रमी-वमी नहीं खेलते क्या ?’ जाहिर है उसका अंदाज रुआब का कम और दोस्ताना ज्यादा था। मुझे जवाब देना जरूरी लगा। मैंने कहा, ‘क्यों नहीं, खेलता हूँ और हार-जीत भी करता हूँ। वो बोला, तो आओ फिर, थोड़ी हार-जीत (पैसों की) हो जाये।’ मैंने कहा, ठीक है और फिर उसकी मंडली में रमी खेलने बैठ गया। कोई एकाध घण्टा हम खेले होंगे कि एकाएक उसने कहा अब फड़ बंद करो। फिर मुझसे बोला, चंदू भाई, आओ कुछ आपसी बात करते हैं। हम दोनों उठ खड़े हुए तो वो फिर मुझे हवालात की दीवार के पीछे बगल में उसी जगह ले गया, जहां पहली मुलाकात में मैं उसे लेकर गया था !

वहां उसने अपनी पेंट की जेब में हाथ डाला और रूमाल में छुपाकर रखी कोई चीज बंद मुट्ठी में निकालकर मेरे सामने की और बोला ‘यह संभालो अपना सामान, जो तुमने मेरे लिए मंगाया था।’ फिर उसने मुट्ठी खोलकर रुमाल हटाया तो उसमें से जो निकला, उसे देखकर मारे हैरत के मेरी आँखें फ़टी रह गईं ! मैंने देखा उसकी खुली हथेली में वही रामपुरी चाकू था, जो मैंने बाहर से उसका सामना करने के लिए बहुत दिनों पहले जुगाड़ से अंदर बुलवाया था और जिसके बारे में मेरे अलावा किसी को खबर नहीं थी और जिसे मैंने खूब हिफाजत से छुपाकर रखा था ! उन्हीं फ़टी आंखों और हैरत से मैंने जग्गी की सूरत पर निगाह डाली तो उसके चेहरे पर अलग ही गर्व का भाव था और उसके होंठों पर मेरी फ़टी आंखों में मौजूद हैरत से उपजी आनंदित मुस्कान तैर रही थी। मुझे कुछ सूझ ही नहीं पड़ रहा था कि मेरा यह चाकू आखिर उसके पास कैसे पहुँचा ! मैं बिलकुल अवाक खड़ा था। तभी उसने अपने बाएं हाथ से मेरा दायां हाथ पकड़ा और उसकी दायीं हथेली में रखा वो चाकू मेरी दायीं हथेली में थमाकर वो बोला, संभालो इसे। फिर उसने जो कहा, वो बहुत मानीखेज बात थी। वो बोला, ‘चंदू भाई, जेल सिर्फ जीदारी से नहीं काटी जा सकती। उसके लिए तमाम फितरत और करतब भी सीखना पड़ते हैं !’ इसके बाद भी मेरे मुंह से कोई बोल न फूटा तो वो वापस पलटा और बोला, चलो। इसके बाद उसने मुझे अपनी बैरक तक छोड़ा और अपनी बैरक को रवाना हो गया।

गोया जेल का वो जादूगर और डॉन जेल में ही उसका पानी उतारने वाले मेरे जैसे एक अनजान शख्स से अपने अपमान का बदला लेने के बजाय एकाएक ही इतना दोस्ताना और उदारमना हो गया था ! कारण ? मुझे लगता है वही सामर्थ्य ! बाऊजी की ! जिन्हें इसके लिए एक सुई भी इधर से उधर नहीं करना पड़ी थी और जग्गी तक (पता नहीं) केवल एक खबर भिजवाई थी और बस ! मैंने बाऊजी के और उनकी सामर्थ्य के ऐसे अलग-अलग रंग वाले केवल दो किस्से यहां बताए हैं। बाऊजी के जीवन में तो पता नहीं ऐसे अलग-अलग और बेशुमार रंगों के जाने कितने किस्से हुए होंगे। सो कहने की जरूरत न कि वो इस शहर में सचमुच सामर्थ्य का एक विरल प्रतिमान थे। बाऊजी की स्मृति को मेरा सादर बहुत भावपूर्ण प्रणाम और नमन।