‘पार्टी विद डिफरेंस’ अब ‘पार्टी विद डिफेंस’

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दिनेश निगम ‘त्यागी’

‘पार्टी विद डिफरेंस’ से ‘पार्टी विद डिफेंस’ हो जाने पर कितने संकट आते हैं, इसका सबसे बड़ा उदारहण है भाजपा। जब सब राजनीति को गंदा मान रहे थे, धारणा बनी कि राजनीति में कोई चाल, चरित्र नहीं होता। हर गलत काम जायज हो जाता है। ऐसी धारणा के बीच भाजपा ने खुद को ‘पार्टी विद डिफरेंस’ घोषित किया। लोगों को अच्छी चाल, चरित्र और चेहरे की राजनीति का भरोसा दिलाया। भाजपा अपने इस वादे पर कायम नहीं रह सकी। उस पर ग्रहण लग गया। इसमें भूमिका निभाई मप्र के ताजे राजनीतिक घटनाक्रम ने। कांग्रेस की सरकार गिराने और खुद सत्ता में आने के लिए क्या-क्या पापड़ बेलने पड़े। मंत्रिमंडल गठन में कैसे-कैसे समझौते किए। विभाग बंटवारे में कैसी असहज स्थिति का सामना करना पड़ा। पार्टी के अंदर भी इस कदर दबाव की कई वरिष्ठ विधायकों को दरकिनार कर दो बार जीते विधायक रामेश्वर शर्मा को प्रोटेम स्पीकर बनाना पड़ा। आखिर, मंत्री न बन पाने से पैदा नाराजगी को हलका जो करना था। ऐसे घटनाक्रमों ने भाजपा के चेहरे से ‘पार्टी विद डिफरेंस’ और ‘चाल, चरित्र, चेहरे’ को लेकर पड़ा नकाब उतार दिया। लोग मानने लगे कि राजनीति के ‘हम्माम में सब नंगे’ हैं।

क्या ज्योतिरादित्य ले सकेंगे राजमाता का स्थान….

ज्योतिरादित्य सिंधिया ने जिस तरह कांगे्रस छोड़कर भाजपा में एंट्री मारी, उसे देखकर राजमाता विजयाराजे सिंधिया का चेहरा और पुराना घटनाक्रम याद आ गया। राजमाता ने एक समय कांग्रेस की सरकार गिराकर जनसंघ में एंट्री मारी थी। इसके बाद राजमाता जनसंघ में निर्णायक भूमिका में रहीं और भाजपा में भी। सवाल उठने लगा है कि क्या ज्योतिरादित्य भाजपा में वह स्थान ले सकेंगे जो राजमाता को हासिल था। आखिर, ज्योतिरादित्य ने भी कांग्रेस के 22 विधायक तोड़कर भाजपा की सरकार बनवाई। 33 सदस्यीय मंत्रिमंडल में उनके 14 एवं भाजपा के 19 मंत्री हैं। पहली बार भोपाल दौरे पर आए तो भाजपा की ओर से सिंधिया का शानदार इस्तकबाल किया गया। यह देखकर जहां भाजपा के कई दिग्गजों की नींद उड़ गई, वहीं पार्टी के कई नेताओं ने सिंधिया की परिक्रमा शुरू कर दी। वैसा ही नजारा है जैसा तब राजमाता के समय हुआ था। फर्क यह है कि वे राजमाता थीं और ये ज्योतिरादित्य। राजमाता ने जनसंघ को मजबूत करने के लिए धन देने के साथ अथक परिश्रम किया था। अब भाजपा का दबदबा है। उसे ज्योतिरादित्य की राजमाता जैसे जरूरत नहीं। बहरहाल, सिंधिया पर सबकी नजर है।

क्या फिर पलटी मारेंगे ‘बिन पेंदी के लोटे’….

शिवराज सरकार के मंत्रिमंडल विस्तार के बाद कोई सबसे ज्यादा दु:खी हैं तो ‘बिन पेंदी के लोटे’। जी हां, हम बात कर रहे हैं सपा, बसपा एवं निर्दलीय सात विधायकों की जो कांग्रेस की सरकार बनने पर कमलनाथ के साथ थे। जैसे ही कमलनाथ सरकार गिरी पलटी मार कर भाजपा के पाले में खड़े हो गए। कमलनाथ से ये नाराज थे क्योंकि इन्हें मंत्री नहीं बनाया गया था। निर्दलीय प्रदीप जायसवाल कांग्रेस सरकार में खनिज जैसे कमाऊ विभाग के मंत्री थे लेकिन उन्होंने सबसे पहले भाजपा को समर्थन देने की घोषणा की थी। उम्मीद थी कि भाजपा सरकार में इनमें से तीन-चार मंत्री बन ही जाएंगे। बसपा की रामबाई, प्रदीप जायसवाल तो उम्मीद में थे ही, सुरेंद्र सिंह शेरा भैया, राजेश शुक्ला सहित दो और कतार में थे। भाजपा ने एक को भी घास नहीं डाली। बेंचारों के मुंह लटक गए। अब ये उम्मीद में हैं कि उप चुनाव के ऐसे नतीजे आएं ताकि हमारे समर्थन के बिना सरकार न बने। ये फिर पलटी मारें और कांग्रेस की सरकार बनवा दें। राजनीति में जिनकी कोई विचारधारा और चाल-चरित्र नहीं होता, वे इससे आगे की सोच भी नहीं सकते।
राजनीति में इस तरह बदलते हैं रिश्ते

कहा जाता है प्रेम और जंग की तरह राजनीति में भी सब जायज माना जाता है। यहां न कोई स्थाई दोस्त होता और न ही दुश्मन। ताजा राजनीतिक घटनाक्रम इसका उदाहरण है। जो कल तक एक-दूसरे को पानी पी-पी कर कोसते थे, आज एक दूसरे की तारीफ में कसीदे गढ़ रहे हैं। एक उदाहरण सागर जिले में भी देखने को मिला। यहां से मंत्री बने भूपेंद्र सिंह एवं गोविंद सिंह राजपूत एक दूसरे के पुराने प्रतिद्वंद्वी है। एक ही विधानसभा क्षेत्र सुरखी से ये भाजपा-कांग्रेस से चुनाव लड़ते रहे हैं। मजेदार बात यह है कि भूपेंद्र सिंह को सुरखी विधानसभा क्षेत्र के उप चुनाव का प्रभारी बनाया गया है। यहां से गोविंद राजपूत को मैदान में उतरना है। एक बात और शायद कम लोगों को मालूम होगी। भूपेंद्र सिंह का मंत्री पद खतरे में था। ज्योतिरादित्य का विश्वस्त होने के नाते गोविंद सिंह राजपूत ने पूरी ताकत लगाई कि भूपेंद्र सिंह मंत्री बने। सिंधिया ने कहीं यह बात कही भी कि भूपेंद्र को मंत्री बनाने को लेकर गोविंद सबसे ज्यादा प्रयासरत थे। हालांकि इसकी एक वजह यह भी है कि गोविंद को खतरा था कि भूपेंद्र मंत्री न बने तो उन्हें हराने की कोशिश कर सकते हैं ताकि एक मंत्री पद खाली हो जाए। राजनीति में रिश्ते इस तरह भी बदलते हैं।

असंतोष का लावा खतरे की घंटी तो नहीं

भाजपा सरकार बनने के बाद पहली बार ऐसा लगा कि मंत्रिमंडल विस्तार के कारण असंतोष का जो लावा फूट रहा है, वह इस सरकार के लिए खतरे की घंटी तो नहीं। मंत्री न बन पाने वाले नाराज हैं ही, भाजपा की वरिष्ठ नेता साध्वी उमा भारती ने भी खुलकर नाराजगी का इजहार किया। यहां तक कहा कि ऐसी सरकार से अच्छा था कि विधानसभा भंग कराकर मध्यावधि चुनाव कराते और अच्छे बहुमत के साथ जीत कर आते। दूसरा, कांग्रेस ने समर्थन देने वाले सपा, बसपा और निर्दलीय विधायकों को मंत्री न बनाकर जो गलती की थी, वह भाजपा ने दोहरा दी। तीसरा, कांग्रेस ने वरिष्ठों को दरकिनार कर नए विधायकोें को मंत्री बना दिया था, ऐसा शिवराज सरकार ने भी कर दिया। चौथा, मंत्रिमंडल में 8 क्षत्रिय विधायकों को जगह दे दी गई जबकि वैश्य, लोधी एवं जाटव उपेक्षित रह गए, जो कई क्षेत्रों में निर्णायक भूमिका में हैं और भाजपा का वोट बैंक रहे हैं। मंत्रिमंडल विस्तार के बाद गायत्री राजे पंवार, यशपाल सिसोदिया, रमेश मेंदौला, प्रदीप लारिया के अलावा राजेंद्र शुक्ला एवं अजय विश्नाई आदि के समर्थकों की ओर से जैसी प्रतिक्रिया देखने को मिली, यह भाजपा का कल्चर नहीं रहा।