आस्था और फंतासी के बीच ओरछा

Suruchi
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जयराम शुक्ल

हाल ही ओरछा से लौटा, दिल-ओ-दिमाग में रामराजा के मंदिर व जहांगीर महल की ताजा छवियों को लिए हुए, नव घोषित झाँसी से राँची राष्ट्रीय राजमार्ग से। यह राजमार्ग अपने लिए भावनात्मक इसलिए भी क्योंकि इतिहास के कूड़ेदान में डाल दिए गए विन्ध्यप्रदेश के ओर- छोर को जोड़ता है। एक छोर ओरछा का तो दूसरा सिंगरौली का। ओरछा विन्ध्यप्रदेश की सांस्कृतिक व साहित्यिक राजधानी रहा है। विन्ध्यप्रदेश के जमाने में साहित्य के लिए दिया जाने वाला देव पुरस्कार यहाँ के लिए ग्यानपीठ पुरस्कार ही था।

वृंदावन लाल वर्मा, बनारसीदास चतुर्वेदी, वियोगी हरि से लेकर गौरापंत शिवानी और मृणाल पांडे के बीच के साहित्यकारों की परंपरा और उसके बाद के भी रचनाधर्मियों को यहाँ की आबोहवा खींचती रही है।

ओरछा में कोई भी महाकवि केशवदास, उनकी शिष्या राय प्रवीण की आत्माओं को बेतवा के बेतरतीब तटों से लेकर रीते हुए गगनचुंबी मंदिरों के कंगूरे तक भटकते हुए महसूस कर सकता है। केशवदास तुलसी के समकालीन कवि थे। समीक्षक केशवदास और उनकी रामचंद्रिका को बेजोड़ कहते हैंं। पर केशवदास राजश्रयी कवि थे और तुलसीदास लोकाश्रयी। साहित्य के समालोचकों पर लोक भारी पड़ा। तुलसी के राम जनजन की जुबान पर बस गए और केशव के राम दरबार से निकलकर पुस्तकालयों में कैद हो गए। केशवदास रसिक रहे होंगे तभी आज बुढापे के रोमांस को केशव की कविता के जरिये उलाहना दी जाती है-

केशव केशन कस अरी अरिअहु नाहि सताहि,
चंद्रबदन मृगलोचनी बाबा कहि कहि जाहि।

राय प्रवीण सौंदर्य की मूर्ति कही जाती। वे दरबारी नर्तकी की थी। अकबर अपने जमाने का परम ऐय्याश और स्वेच्छाचारी बादशाह था। हर अच्छी चीजों पर वह अपना अधिकार समझता था। अकबर ने गोंडवाना की रानी दुर्गावती से अपने सूबेदार को लड़ने के लिए नहीं अपितु किडनैप करके हरम में लाने के लिए भेजा था। दुर्गावती भी अपूर्व सुंदरी थीं पर उससे बढकर स्वाभिमानी, सो इसलिए लड़कर जान दे देना ही श्रेयस्कर समझा।

अकबर की नजर पर अपना विन्ध्य कुछ ज्यादइ चढा़ था सो पहले रीमा के राजा के दरबार से बीरबल को उठवाया फिर तानसेन को। अपने दरबार में लाकर दोनों की मुसलमानी कर दी। इतिहासकारों ने डंका पीटते हुए लिख दिया अकबर महान, जब कि वास्तव में जलीलुद्दीन ही था शासक के नाम को जलालत के जहन्नुम तक पहुँचाने वाला..। बहरहाल अकबर की नजरों में राय प्रवीण का भी सौंदर्य भींज गया। सो हुक्म जारी किया कि राय प्रवीण को हरम मेंं हाजिर किया जाए। राय प्रवीण ठहरीं बाबा केशवदास की चेली। हरकारों के जरिए दोहे से लैस एक मीसाईलनुमा अर्जी भेज मारी-

विनती रायप्रवीन की सुनिए साह सुजान।
जूठी पत्तल भखत हैं बारी,बायस, स्वान।।

जाहिर है कुत्ते व कौव्वे की तुलना वाले इस जवाब से अकबर का जायका बिगड़ गया होगा। सो अकबर के बाद उसके बेटे जहांगीर ने इसका बदला चुकाया। जहांगीर भी रसिया किस्म का ही था। अनारकली वाला किस्सा उसी के साथ जुड़ा है। उसने ओरछा नरेश को हुक्म भेजा कि अब्बा हुजूर के साथ जो दगा हुआ सो हुआ अपन को ये सब ठीक नहीं सो वहां इंतजाम करो वहीँ हम आ रहे हैं। तब भी अपने मुल्क में ऐसे राजा व दरबारी हुआ करते थे कि उन्हें झुकने को कहिए तो वे गलीचे की तरह बिछ जाया करते थे..बस इलाके में उनका हुक्म और हुक्का कैसे भी चलते रहना चाहिए। ओरछा नरेश बिछ गए.. और शहंशाह के लिए एक खूबसूरत महल तैय्यार करवा दिया। जिसे आज जहांगीर महल के नाम से जाना जाता है, अब यह टूरिज्म का होटल शीशमहल है।

इतिहासकारों ने ये तो लिखा कि घंटा बजाकर न्याय देने वाला जहांगीर कितना महान था, पर यह शायद भूल गए कि एक शहंशाह की ऐय्याशी के लिए बनाए गए इस महल की नक्काशी, पच्चीकारी और रंग रोगन में कितने कारीगरों अँगुलियों के सुर्ख खून की रंगत है। कितने मजदूर पत्थर ढोते ढोते उसी में दबे और दफन हो गए। ओरछा में वो जहांगीर महल आज भी शान से है। बिल्कुल रामराजा महल के मुकाबले तना और खड़ा हुआ। जहांगीर महल के आज भी वही ठाट हैं।

अपन जैसे टुटपुंजिए दूर से निहार सकते हैं ज्यादा से ज्यादा सेल्फी ले सकते हैं। वहां ठहरने का साउकाश की वही वहन कर सकता जिसका जिगर जहांगीर जैसा हो। देश में जहांगीर के कलेजे वाले बहुत हैं। हवाई जहाज से उड़कर आते हैं और यहाँ वही सब करते होंगे जो जहांगीर ने किया था। जहांगीर की शानशौकत और उसका महल उस समय भी मुझ जैसे जलकट्टों को नहीं भाया होगा। सो एक किस्सा उड़ा कि जहांगीर जब दिल्ली लौटा तो दूसरे दिन ही मर गया। क्योंकि उसने रामराजा के रहते हुए खुद सलामी क्यों ली?

कुछ यह भी कहते हैं कि राजा ने जहांगीर से यह रहस्य छुपा कर बुलाया था ताकि वो ऐसा करे फिर मर जाए। हारे और बेबस लोगों को ऐसे किस्से बहुत सुकून देते हैंं। ओरछा घुमाते हुए गाइड ये किस्सा सुनाता है तो इतिहास के पन्ने फड़फड़ाने लगते हैं। दरअसल ओरछा में आज भी दो धाराएं हैं एक जिसका उद्गम रामराजा के महल से शुरू होता है। राम यहां भगवान् नहीं बल्कि राजाधिराज हैं.. महारानी गणेश कुँवरि अयोध्या से छोटी सी साँवली सलोनी मूर्ति लाईं और चूकि तबतक मंदिर नहीं बन पाया था सो महल में विराज दिया।

मंदिर बन गया तो भगवान ने जाने से मना कर दिया। इस मान मनौव्वल के फेर में एक के बाद एक मंदिर बनते गए (जो अब पर्यटकों को लुभाने के काम आ रहे हैं) पर रामलला को तो महल ही भा गया। तब से अबतक वे महल में हैं एक राजाधिराज की भाँति। पुलिस के जवान रोज तीनों वक्त सलामी देते हैंं और वही जयकारा भी लगवाते हैं। ये आस्था व विश्वास की प्राणप्रतिष्ठा है..जिसे रानी ने लोकशाही की ताकत के दम पर किया। दूसरी धारा जहांगीर महल की है जिसे राजा ने राजशाही की ठसक और दौलत के दम पर शहंशाह की चापलूसी व खुदगर्जी के लिए की। ये दोनों धाराएं आज भी संचारित होती हैं ओरछा की धमनियों में। तब से बेतबा का पानी कितना बह गया, इतिहास का पहिया कितनी बार घूम चुका पर आज भी स्थिति जस की तस है। लोक रामराजा के साथ और राज..जहांगीर महल के।