श्रवण गर्ग
दुनिया के सबसे बड़े सम्मान नोबेल शांति पुरस्कार से पुरस्कृत और अमेरिका जैसे ताकतवर मुल्क के राष्ट्रपति रहे बराक ओबामा को बारह हज़ार किलोमीटर की दूरी पर बैठकर भारत के हिंदू-मुसलिम मामले में पड़ने से बचना चाहिए। अमेरिका के किसी अन्य तत्कालीन अथवा पूर्व राष्ट्रपति ने इस संवेदनशील मुद्दे पर वैसा हस्तक्षेप नहीं किया जैसा ‘फ्रेंड ओबामा’ 2014 के बाद से कर रहे हैं। वे भारत की यात्रा पर आते हैं तब भी नहीं चूकते और अपने देश में बैठे-बैठे भी उन्हें चैन नहीं मिलता।
भारत का हिंदू-मुसलिम मामला उतना गंभीर नहीं है जितना ओबामा बनाना चाहते हैं या अमेरिका में डॉनल्ड ट्रम्प और उनकी रिपब्लिकन पार्टी ने वहाँ के गोर-सवर्णों और तमाम अश्वेतों ,जिनमें कि मुसलिम भी शामिल हैं, के बीच बना रखा है। ट्रम्प समर्थक सवर्ण तो अब अपनी ही संसद पर हमले भी कर रहे हैं और ओबामा उन्हें रोक नहीं पा रहे हैं ! ओबामा जानते होंगे कि जितनी आबादी ( 24 करोड़) उनके देश में गोरे सवर्णों की है लगभग उतने भारत में मुसलमान हैं।
भारत की हिन्दू-मुसलिम समस्या अमेरिका की तरह का कोई स्थायी विभाजन नहीं है। एक कट्टर हिंदूवादी पार्टी के पिछले नौ सालों से सत्ता में होने के बावजूद ऐसा संभव नहीं हो पाया है। मौजूदा सरकार की दिल्ली से बिदाई के साथ सारा हिंदू-मुस्लिम तूफ़ान शांत भी हो जाएगा। यह काम देश की जनता बिना ओबामा की मदद के संपन्न कर लेगी। उसे पता है कि 2014 के पहले यह समस्या इतनी चिंताजनक कभी नहीं रही। गुजरात के 2002 के दुर्भाग्यपूर्ण एपिसोड को छोड़ दें तो अटलजी जी के नेतृत्व वाली एनडीए की (1999 से 2004 ) हुकूमत के दौरान भारत के अल्पसंख्यक अपने आप को कांग्रेस के ज़माने से ज़्यादा सुरक्षित महसूस करते थे।
ओबामा को समझाया जाना चाहिए कि मोदी-शाह-योगी भारतीय संस्कृति की मूल आत्मा नहीं हैं। भारत की मूल आत्मा सर्वधर्म समभाव की है और यही राष्ट्र का स्थायी चरित्र है। ऐसा नहीं होता तो सवा दो सौ सालों (1526-1761) में मुग़ल शासक भारत को एक इस्लामी राष्ट्र, अंग्रेज लगभग सौ सालों (1858-1947) में ईसाई राष्ट्र और संघ पिछले सौ सालों (1925-2023) में हिंदू राष्ट्र बनाने में कामयाब हो जाता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए हिंदू राष्ट्र की स्थापना की कल्पना हिंदू बहुसंख्यकवाद की ताक़त के बल पर अपने आप को सत्ता में बनाये रखने का एक साधन मात्र है।संघ का साध्य भिन्न है।
ओबामा अगर हिंदू राष्ट्रवाद के कारण भारत के टूटने के भय से परेशान हैं तो उन्हें सबसे पहले 2024 के अमेरिकी चुनावों में ट्रम्प की सत्ता में वापसी को रोककर दिखाना चाहिए। ओबामा जानते हैं कि 2017 में राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के तत्काल बाद किस तरह ट्रम्प ने कुछ मुसलिम मुल्कों के नागरिकों के अमेरिका प्रवेश पर रोक लगाई थी। ट्रम्प फिर से सत्ता में आ गए तो मुसलिमों ही नहीं सभी ग़ैर-सवर्णों का अमेरिका में जीना दूभर कर देंगे।
एक ऐसे समय जब मोदी अपनी पहली राजकीय यात्रा पर उनके देश में थे और उनकी ही पार्टी के नेता-राष्ट्रपति और किसी समय उनके ही उपराष्ट्रपति रह चुके बाइडन के साथ चर्चा में भारत की लोकतंत्र और धार्मिक स्वतंत्रता के प्रति प्रतिबद्धता ज़ाहिर कर रहे थे, ओबामा की टेलीविज़न-साक्षात्कार टिप्पणी भारतीय प्रधानमंत्री के साथ एक अन्यायपूर्ण कृत्य था।
ओबामा ने बजाय ऐसा करने कि वे बाइडन के साथ हुई संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस में लोकतंत्र और धार्मिक स्वतंत्रता के सवाल पर मोदी द्वारा दिए गए जवाब की तारीफ़ करते, उन्होंने जो कुछ कहा उसे अमेरिका में रहने वाले पचास लाख भारतीय मूल के नागरिकों ने सम्मान के साथ स्वीकार नहीं किया होगा।
अमेरिकी चैनल सीएनएन के साथ इंटरव्यू में ओबामा ने कहा :’अगर मैं प्रधानमंत्री मोदी से बातचीत करता, जिन्हें मैं अच्छी तरह से जानता हूँ, तो उनसे कहता कि अगर वे भारत में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा नहीं करेंगे तो ऐसी आशंका है कि किसी बिंदु पर आकर भारत टूट सकता है। बाइडन और मोदी की मुलाक़ात में भारत के मुसलिम अल्पसंख्यकों की सुरक्षा पर बात होना चाहिए। हमने देखा है कि जब आंतरिक संघर्ष बढ़ेगा तो वह न भारत के मुसलमानों के हित में होगा और न भारत के हिंदुओं के हित में।’ भारत में धार्मिक स्वतंत्रता के मुद्दे पर ओबामा ने पहली बार कुछ कहा हो ऐसा नहीं है। पद पर रहते हुए जब वे 2015 में जब वे भारत यात्रा पर आये थे तब भी स्वदेश रवाना होने से ठीक पहले और राष्ट्रपति का पद छोड़ने के बाद 2017 में जब एक मीडिया प्रतिष्ठान के कॉनक्लेव में भाग लेने आये थे तब भी भारत में धार्मिक आज़ादी को लेकर उन्होंने चौकनेवाली टिप्पणियाँ कीं थीं।
ओबामा के कार्यकाल (2009-2017) के दौरान मोदी ने अमेरिका की तीन बार यात्राएँ कीं थीं। पहली सितंबर 2014 में और दो साल 2016 में। अमेरिकी प्रशासन ने उन्हें एक बार भी राजकीय अतिथि बनने का सम्मान नहीं प्रदान किया।इसके उलट ,2009 में सत्ता में आते ही उन्होंने डॉ मनमोहन सिंह को अपना पहला राजकीय अतिथि बनाया था। मैं डॉ सिंह के साथ तब अमेरिका यात्रा पर गए मीडिया दल का एक सदस्य था। व्हाइट हाउस में उपस्थिति के दौरान हमने देखा था कि किस उत्साह और आत्मीयता के साथ ओबामा दंपति ने डॉ सिंह के स्वागत में वार्ताओं और विशाल भोज का आयोजन किया था। अमेरिका और भारत की तमाम बड़ी हस्तियाँ व्हाइट हाउस में उपस्थित थीं।ओबामा ने तब भी और 2010 में की गई अपनी आधिकारिक भारत यात्रा के दौरान भी भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति को लेकर कभी कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं की।
मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान संयुक्त पत्रकार वार्ता में वॉल स्ट्रीट जर्नल की पत्रकार सबरीना सिद्दीक़ी ने तयशुदा तरीक़े से उनसे अप्रिय सवाल किया, ओबामा ने अपने टीवी साक्षात्कार में सर्वथा ग़ैर-ज़रूरी टिप्पणी की और इस सबकी प्रतिक्रिया में पहले असम के मुख्यमंत्री ने अत्यंत विवादास्पद ट्वीट किया और फिर केंद्रीय वित्त मंत्री ने अपनी संपूर्ण कटुता के साथ पूर्व राष्ट्रपति के कार्यकाल में मुसलिम देशों पर गिराए गए बमों की गिनती सुना दी। सवाल किया जा सकता है कि इस सबसे भारत में रहने वाले करोड़ों अल्पसंख्यकों की मनःस्थिति पर क्या प्रभाव पड़ा होगा !
ओबामा को प्रतिष्ठित ‘नोबेल शांति पुरस्कार’ उनके द्वारा ‘अंतर्राष्ट्रीय जगत में कूटनीति को सुदृढ़ करने और समुदायों के बीच आपसी सहयोग बढ़ाने’ के सम्मानस्वरूप प्रदान किया गया था।कहना कठिन है कि ओबामा उसी दिशा में कार्य कर रहे हैं। नोबेल शांति पुरस्कार महात्मा गांधी को प्राप्त नहीं हो पाया था जबकि हिंदू-मुस्लिम सद्भाव क़ायम करने के लिए उन्हें अपने प्राणों का बलिदान करना पड़ा था। ओबामा को सिर्फ़ मुसलिम-हितों के रक्षक की छवि से समझौता कर लेने के बजाय उस गांधी के नायकत्व की भूमिका निभाना चाहिए जिनके नाम का उल्लेख उन्होंने नोबेल पुरस्कार प्राप्त करते समय अत्यंत ही गर्व के साथ किया था।