पार्षद ही नहीं विधायक भी अफसरशाही से त्रस्त, इन्दौर के साथ षड्यंत्र लीडरशिप खत्म

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नितिनमोहन शर्मा। इन्दौर के साथ गजब षड्यंत्र हुआ, जो शहर अपने राजनैतिक नेतृत्व के लिए पहचाना जाता हैं। जिस शहर को प्रदेश की राजनीतिक राजधानी कहा जाता है, वहां की लीडरशिप षड्यंत्र के साथ खत्म कर दी गई। इस शहर को याद नही कि यहां अफसरों का ऐसा राज कभी रहा, जैसा शिवराज सरकार में हैं। आज हालात ये ही शहर का नेतृत्व अफ़सरो के सामने हाथ बांध खड़ा रहने को मजबूर कर दिया। समूची भाजपा अफ़सरराज के सामने ऐसी मुद्रा में खड़ी रही, जैसे सामने अफसर नही संगठन मंत्री हो और शहर के साथ साथ “अफ़सरराज” को भाजपा के संचालन का भी ठेका दे दिया हो। कही कोई सुनवाई नही। न पार्षद की, न विधायक की। जिला पंचायत से जुड़े नेताओ की तो कोई बखत ही नही।

“सरकार” पर अफसरशाही के हावी होने का शोर समय समय पर इन्दौर से निकलकर भोपाल तक भी गया लेकिन सुनवाई नही हुई। दिल्ली दरबार तक भी ये गूंज गई लेकिन “सत्ता” का मोह अफ़सरो से कम नही हुआ। सरकार चली गई फिर भी अफसर फ्रेंडली सरकार बेअसर रही। इन्ही अफ़सरो के हवाले आपका हमारा इन्दौर कर दिया गया। वे इस शहर के भाग्यविधाता बना दिये गए। शहर के नेतृत्व को भी इतना मजबूर कर दिया गया कि वे चाहकर भी कुछ नही कर पाएं। पार्षद तो दूर, विधायक-सांसद भी इतने मजबूर कर दिए गए कि वे चू तक नही कर पाए।

“सत्ता वाली भाजपा” तो आज हुई। लेकिन आपको कभी याद है कि कॉंग्रेस के शासनकाल में इस तरह नोकरशाही निरकुंश और हावी हुई। विपक्ष में रहते हुए भी अफ़सरो की मजाल नही थी कि वे कैलाश विजयवर्गीय, सुमित्रा महाजन, सत्यनारायण सत्तन, भंवरसिंह शेखावत, स्व निर्भयसिंह पटेल, स्व लक्ष्मणसिंह गौड़ की अनदेखी कर दे। इन नेताओं के तेवर ही तो थे जो आज भाजपा इस मुकाम पर है। निर्भय दादा ओर लखन दादा के तेवर ये शहर नही भुला है। विपक्ष में रहते हुए भी इन नेताओ का इतना रुतबा था कि अफ़सरराज यहां कभी कायम नही हुआ। और न कांग्रेस ने कभी अफ़सरो के जरिये भोपाल में बैठकर इन्दौर में सरकार चलाने की कोशिश की। उसी का परिणाम रहा कि इन्दौर अपने दम पर, अपनी तासीर के हिसाब से डेवलपमेंट करता रहा और चलता भी रहा।

कैलाश विजयवर्गीय ने तो विपक्ष में रहकर नगर निगम चलाकर दिखाया। वो भी दमदारी से। मजाल है कोई अफसर इस तरह से मनमानी कर जाता, जैसी आज चल रही हैं। विजयवर्गीय ने तो विपक्ष के रहते हुए निगम अफ़सरो के जरिये ही जन भागीदारी से गली मोहल्लों से लेकर शहर के विकास जैसे अनूठे प्रयोग को न केवल स्थापित किया, बल्कि उसे सफ़ल भी किया। शहर की बांड सड़के आज भी उस बात की गवाही देती है। दिग्विजयसिंह सरकार ने भी कभी इन्दौर की विपक्ष वाली निगम सरकार को इतना नही सताया, जितना पहले कृष्णमुरारी मोघे और अब पुष्यमित्र भार्गव सताए जा रहे हैं। भोपाल में अपनी ही सरकार होने के बावजूद जो हाल नगर निगम, पार्षद, विधायको के है, वैसे तो क़भी भाजपा के रहे ही नही। यहां के भाजपा नेता हर दौर में दमदारी से डटे रहे।

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फिर ऐसा क्या हुआ इस शहर के साथ कि यहां की लीडरशिप बंधिया हो गई। किसने किया ये बन्धियाकरण? कौन है इसके पीछे? ये किसी से छुपा है क्या? अन्यथा इन्दौर जैसा शहर केवल अफ़सरो की मोहताजी पर क्यो ओर कैसे छोड़ा जा सकता हैं। सरकार का अफसर प्रेम अब तो इस शहर का बच्चा भी जान रहा है और सरकार को लग रहा है कि किसी को अहसास नही। शहर के पार्षद, एमआईसी मेम्बर के साथ साथ स्वयम महापौर भी जब मुखर हो जाये तो फिर क्या बचता हैं? जिस शहर ने भाजपा को थोकबंद पार्षद दिए, वो पार्षद नाली गटर जैसी समस्या के लिए भी अफ़सरो के सामने गिड़गिड़ाने को मोहताज क्यो और कैसे कर दिए गए। ऐसा तो कभी इस शहर में हुआ नही।

प्रवासी भारतीय सम्मेलन में 6 से लेकर 10 हजार का एक पौधा लगाने वाली अफसरशाही के खिलाफ कल जिला पंचायत में भी गुस्सा फूट गया। जिला पंचायत की सीईओ अपने कमरे में बैठी रही और अध्यक्ष सहित सदस्य उनका डेढ़ घण्टे इंतजार करते रहें। यानी वो ही कहानी ग्रामीण नेतृत्व के साथ भी हो रही है, जो शहर के नेताओ के साथ हुई।

सरकार को दिल्ली से भी आगाह किया जा चुका है कि अफ़सरो के दम पर दमदारी दिखाने का खेल खत्म करें। अन्यथा 2018 जैसे हाल हो जाएंगे। बावजूद इसके रत्तीभर फर्क नजर नही आ रहा है। उलटे जनप्रतिनिधियों को डराया जा रहा है कि आप लोग अफ़सरो के खिलाफ क्यो बोले? डराने का ये खेल भी अफ़सरराज की तरफ साफ इशारा कर रहा हैं। वक्त रहते अगर इस पर अंकुश नही लगा तो भाजपा में आरपार की लड़ाई को शुरू होने में देर नही लगेगी।