दिल्ली में गाजीपुर लैंडफिल स्थित कचरे के पहाड़ पर लगी आग अभी फिलहाल बुझा तो दी गयी है। वह बात दीगर है कि अभी भी 40-50 छोटी-मोटी जगहों पर आग की लपटें बची हुयी हैं। लेकिन इसके धुंए ने आसपास के एक किलोमीटर इलाके के लोगों की सांस अटका रखी है। हसनपुर, गाजीपुर, खोडा़, चिल्ला गांव और मयूर विहार सहित आधा दर्जन इलाकों में रहने-बसने वाले लोग आंखों में जलन व सांस लेने में दिक्कत महसूस कर रहे हैं। वे आंखें खुली नहीं रख पा रहे हैं। इसकी दुर्गंध तो बरछों से उनकी नियति बन चुकी है। कुछ लोग जो दिल के मरीज हैं, परेशानी के चलते घर छोड़ रिश्तेदारों के यहां चले गये हैं। इसने देश की राजधानी की राजनीति में आग जरूर लगा दी है। वैसे आजकल चुनावी माहौल में राजधानी दिल्ली वायु प्रदूषण की मार के चलते जार-जार हो रही है लेकिन कूड़े के पहाड़ का मसला चर्चा का विषय बना हुआ है।
गौरतलब यह है कि अभी तक आग के कारणों का पता नहीं चल सका है। लेकिन पुलिस और एफ एस एल की टीमें जांच कार्य में भले जुटी हैं लेकिन लैंडफिल साइट के प्रबंधन को लेकर दिल्ली नगर निगम की नीति पर लोगों ने सवाल जरूर खडे़ किये हैं। उनका कहना है कि कचरे के पहाड़ पर आग लगने की यह कोई नयी बात नहीं है। यह तो हर महीने लगती ही रहती है। इसको नियंत्रित करने के कोई भी कदम नहीं उठाये जा रहे हैं। पिछले बीस सालों से कूड़े के पहाड़ खत्म करने के दावे किये जा रहे हैं लेकिन ठोस कार्यवाही न होने का खामियाजा यहां रहने वाले लोगों को उठाना पड़ रहा है।इसका खात्मा न हो पाने के पीछे कचरे का धीमी गति से हो रहा उठान है। इससे दो किलोमीटर के क्षेत्रफल में रहने वालों का जीना दूभर हो गया है।
सबसे ज्यादा परेशानी तो बच्चों और बुजुर्गों को है। वैसे कूडे़-कचरे के पहाड़ के मामले में अभीतक दिल्ली और मुंबई महानगर सबसे ज्यादा चर्चित थे लेकिन अब तो गुरुग्राम ने भी इस सूची में अपना नाम दर्ज करा लिया है। यहां बंधवाडी़ लैंडफिल साइट पर रोजाना फरीदाबाद और गुरुग्राम का 2300 टन कचरा पहुंच रहा है। यहां पिछले 30 मार्च से लगातार आग लगने की घटनाएं हो रही हैं। यहां फिलहाल तकरीबन 16 लाख टन कूडा पड़ा है। बीते 24 दिनों में यहां 13 बार आग लगने की घटनाएं हुयी हैं। मंगलवार की सुबह यानी 23 अप्रैल की सुबह लगी आग इतनी भयंकर थी कि उसका धुंआ कई किलोमीटर दूर तक से न केवल दिखाई दे रहा था बल्कि वहां के लोग धुंएं के चलते आंखों में जलन से परेशान थे। असलियत यह है कि लैंडफिल साइट के पास लोगों का रहना काफी मुश्किल होता जा रहा है। लोग खून-पसीने की कमाई से बनाये मकान छोड़ नहीं पा रहे हैं। यहां रहने वाले लोग बरसों से दिल, सांस, गले में खराश, दिमाग में सूजन आदि रोगों के चंगुल में हैं। खासतौर पर बच्चों, गर्भवती महिलाओं, हृदय और सांस के रोगियों के लिए यह स्थिति जानलेवा है।
कचरे के पहाड़ पर लगी आग से शहर में घुल रहे धुंए पर न केवल उपराज्यपाल, दिल्ली के पर्यावरण मंत्री और सुप्रीम कोर्ट तक ने संज्ञान लेते हुए निगमायुक्त, प्रमुख सचिव व दिल्ली सरकार से जबाव मांगा है। सुप्रीम कोर्ट ने इस बाबत अपनी टिप्पणी में कहा है कि यह आश्चर्यजनक है कि राजधानी में प्रतिदिन निकलने वाले 11,000 टन ठोस कचरे में से 3,000 टन का कानून के तहत उचित तरीके से निपटान नहीं किया जाता है। सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने कहा है कि यह स्तब्ध करने वाली बात है कि ठोस कचरा प्रबंधन नियम 2016 को लागू हुए आठ साल हो गये हैं लेकिन दिल्ली में इसका कोई पालन नहीं हो रहा है। इसका नतीजा है कि दिल्ली में कचरे का पहाड़ दिन-ब-दिन बढ़ता ही जाता है।
यह तो अकेले देश की राजधानी दिल्ली का हाल है। पूरे देश के हालात का जायका लें तो पता चलता है कि देश में हर साल 277 अरब किलो कचरा निकलता है। यानी प्रति व्यक्ति करीब 205 किलो कचरा निकलता है। इसमें से केवल 70 फीसदी ही इकट्ठा किया जाता है। बाकी जमीन और पानी में फैला रहता है। इकट्ठा किये कचरे में से आधा या तो खुले में फेंक दिया जाता है या उसे जमीन में दबा दिया जाता है। जहां तक प्रति व्यक्ति का सवाल है, 0.62 किलोग्राम कचरा एक व्यक्ति प्रतिदिन पैदा करता है। हमारे देश में निकलने वाला कचरा इंडस्ट्रियल और म्युनिस्पल दो तरह का होता है। इंडस्ट्रियल कचरे के निपटान की जिम्मेदारी उद्योगों और म्युनिस्पल कचरे के निपटान की जिम्मेदारी स्थानीय प्रशासन की होती है।
देश में कुल कचरे में से सिर्फ 5वें हिस्से की रिसाईकिलिंग हो पाती है। देश में जिस तरह कचरे की रिसाईकिलिंग होती है उससे न केवल पर्यावरण को नुकसान होता है बल्कि लोगों के स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। जहां तक खुले में फेंके गये कचरे का सवाल है,भारत में सबसे बड़े महानगर मुंबई और दिल्ली में खुले में कचरा फैंका जाता है। दिल्ली में गाजीपुर और मुंबई में मुलुंड डम्पिंग ग्राउण्ड हैं जहां कचरे के ऊंचे ऊंचे पहाड़ बन चुके हैं। उनके पास लोगों का रहना दूभर है। खुले में फैंके कचरे में भारी मात्रा में निकल, जिंक, आर्सेनिक, कांच, क्रोमियम और दूसरी जहरीला धातुएं होती हैं जो पर्यावरण और लोगों के स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरे की वजह होती हैं। देश में सालाना जितनी जहरीली मीथेन उत्सर्जित होती है, उसमें से 20 फीसदी सिर्फ इन कचरे के ढेरों से निकलती है। इस तरह दिन-ब-दिन कचरे के पहाडों की तादाद शहर-दर-शहर बढ़ती चली जायेगी और उस स्थिति में इन कचरे के पहाडो़ं के कम होने की कोई उम्मीद दिखाई नहीं देती क्योंकि अब छोटे शहर-कस्बों में भी जो 17 फीसदी की दर से विकसित हो रहे हैं, में कचरे के लैंडफिलों की तादाद तेजी से बढ़ रही है। आने वाले दिनों में विकास की रफ्तार और बढे़गी, उस स्थिति में ज्यादा तेज विकास के साथ कई गुणा कचरा बढ़ेगा। क्या हम उस स्थिति के लिए तैयार हैं। यह विचार का विषय है।
यहां हम अमेरिका, आस्ट्रेलिया, चीन, ब्रिटेन, जर्मनी, सिंगापुर आदि की बात छोड़ दें और यदि अहमदाबाद, सूरत, नवी मुंबई, मैसूर और इंदौर की ही बात करें जिन्होंने कचरा संग्रह और उसके निपटान व स्वच्छता में अपनी एक विशिष्ट पहचान बनायी है, से कुछ सीख ली है। जबाव है कुछ भी नहीं। ऐसी स्थिति में दिल्ली ही क्या, देश के हर शहर-कस्बे में कचरे के पहाड़ तेजी से बनेंगे और वे सुलगेंगे, धधकेंगे और लोगों की अनचाहे मौत के वायस बनेंगे। इसमें दो राय नहीं। उस दशा में आईपीसीसी की रिपोर्ट सही साबित हो जायेगी कि अगर यही रफ्तार रही तो 2050 में 3.4 गीगाटन कूडा़-कचरा होगा जिसका निस्तारण बूते के बाहर होगा। हमारे देश में असलियत में कचरा प्रबंधन के मामले में हम दूसरे देशों से बहुत पीछे हैं। वह चाहे इंडस्ट्रियल कचरा हो या म्यूनिस्पल दोनों में हमारी नाकामी जगजाहिर है। उस स्थिति में तो और विषम हालात हो जायेगी जबकि वर्ल्ड बैंक के अनुसार 2030 में भारत में हर साल निकलने वाला कूडा़-कचरा 388 अरब किलो हो जायेगा। इसलिए यह बेहद जरूरी है कि लोगों को घरों में ही अलग- अलग डस्टबिन में कूडा़-कचरा रखने के बारे में जागरूक किया जाये जिससे रिसाईकिलिंग होने में आसानी हो सके।
वैसे स्वच्छ भारत अभियान से और कचरे के पुनः इस्तेमाल करने के मामले में लोगों में न केवल बहुत जागरूकता आयी है बल्कि इसमें देश की स्थिति काफी सुधरी भी है। इसके बावजूद बहुत अभी भी कुछ करना बाकी है ताकि शहर दर शहर, कस्बे दर कस्बे कचरे के पहाड़ न बनें और आये दिन उसमें आग लगने की नौबत न आये। यह सब सरकार की इच्छाशक्ति के बिना असंभव है। इसमें दो राय नहीं।
ज्ञानेन्द्र रावत (लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद)