आपदा का राष्ट्रधर्म

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राकेश कायस्थ 

भारत जैसे देश में लोक स्मृति अल्पायु ही होती है। दशक और दो दशक बहुत लंबा समय है, जनता छह महीने पुरानी बात भी याद नहीं रखती। मैंने जो दो तस्वीरें शेयर की हैं, वो 27 साल पुरानी हैं। पुराने पत्रकारों को ये तस्वीरें शत-प्रतिशत याद होंगी। जिनकी देश, राजनीति और इतिहास में रूचि है, उन्हें भी इस तस्वीर के पीछे की कहानी पता होगी। 2014 के बाद पैदा हुए और सोशल मीडिया पर शोरगुल मचाते लोगों को यकीकन इनके बारे में कुछ पता नहीं होगा और ना ही जानकारी से उन्हें कोई फर्क पड़ेगा।

तस्वीरें जनेवा के उस संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन की हैं, जिसमें भारत का नेतृत्व किसी सरकारी व्यक्ति ने नहीं बल्कि विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने किया था। दल के उपनेता बने थे विदेश राज्यमंत्री सलमान खुर्शीद। उन दिनों भारत लगातार सीमा पार से प्रायोजित आतंकवाद झेल रहा था। एक दशक तक सुलगने के बाद पंजाब मुश्किल से शांत हुआ था और कश्मीर में हजरत बल जैसा कांड ताजा-ताजा हुआ था। पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कथित मानवाधिकार हनन को लेकर भारत पर हमलावर था।

ऐसे में यह ज़रूरी था कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत दुनिया को यह बताये कि वह पूरी तरह एक है। प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव ने आपदा का राष्ट्रधर्म निभाते हुए विपक्ष को भरोसे में लिया। अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय दल का नेतृत्व करने के लिए राजी हुए और सलमान खुर्शीद सहर्ष उनके डेप्यूटी बने। उसके बाद जेनेवा में जो हुआ, वह इतिहास है। भारत ने शानदार तरीके से पाकिस्तान पर कूटनीतिक विजय प्राप्त की।

अब मौजूदा दौर में वापस लौटते हैं। कोरोना का संकट संभवत: आज़ाद भारत की सबसे बड़ी समस्या है, जहाँ हर घर बीमार है। असंख्य लोग बिना इलाज के मर चुके हैं। ऐसे में दस साल तक सफलतापूर्वक भारत का नेतृत्व कर चुके मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री मोदी को चिट्टी लिखी, जिसमें कोरोना प्रबंधन और खासकर टीकाकरण को लेकर कई सुझाव दिये गये। चिट्ठी में सिर्फ सुझाव दिये गये थे कोई इल्जाम नहीं लगाया गया था।

प्रधानमंत्री मोदी को आपदा का राष्ट्रधर्म उसी तरह निभाना था, जिस तरह कभी नरसिंह राव ने निभाया था। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने क्या किया? उन्होंने पूरी दुनिया में सम्मानित पूर्व प्रधानमंत्री के पत्र को इस लायक भी नहीं समझा जिसका जवाब वो खुद दे सकें।राजनीतिक शिष्टाचार को ताक पर रखकर मोदीजी ने उन जवाब उन स्वास्थ्य मंत्री से दिलवाया जिन्हें कोरोना काल में वर्क फ्रॉम होम के तहत मटर छीलने के अलावा कुछ और करते नहीं देखा गया है।

जवाब भी ऐसा वैसा नहीं। स्वास्थ्य से संबंधित सुझावों का जवाब बदत्तीमीजी की भाषा में आकंठ डूबे राजनीतिक उत्तर के साथ दिया गया। उसके बाद बीजेपी पूरे देश को यह समझाने में लगी है कि कोरोना के सवाल पर राजनीति नहीं होनी चाहिए। सोचिये और खुद तय कीजिये कि भारतीय राजनीति कहाँ आ पहुँची है और देश किन लोगों के हाथों में है?