नाबार्ड ने देश के संविधान एवं कानून का मज़ाक बनाकर लाखों किसानों का भविष्य अंधेरे मे डाला

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देश मे नाबार्ड को एक ग्रामीण क्षेत्र का प्रमुख विकसोन्मुखी संस्था के रूप मे देखा जाता है, और निश्चित रूप से ग्रामीण क्षेत्र के लिए नाबार्ड ने कई उल्लेखनीय कार्य किए है। सरकार की भी नाबार्ड से कई अपेक्षाएँ है, लेकिन सरकार की सारी अपेक्षाओं के विरुद्ध ये संस्था ही वाकई मे ग्रामीण क्षेत्र के दुर्दशा के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है।

केंद्र सरकार ने वर्ष 2010 से किसानो को संघठित कर उनके लिए फसलों का उत्पादन बढ़ाने और उनके उनके स्तर पर ही प्रसंस्करण करने और व्यवसाय करने के लिए किसान उत्पादक संघठन (एफ़पीओ) बनाने की योजना प्रारम्भ किया, और वर्ष 2015 से इसकी मुख्य ज़िम्मेदारी नाबार्ड को दिया। नाबार्ड की ज़िम्मेदारी थी की ग्रामीण क्षेत्र मे कार्यरत स्वयं सेवी संस्थाएं (एनजीओ) के साथ मिलकर जिला/ ब्लॉक स्तर पर किसानों को संघठित कर उनके एफ़पीओ बनाए जाये, और इस कार्य के लिए प्रति एफ़पीओ रु 30 लाख का प्रावधान किया गया।

नाबार्ड ने एनजीओ के साथ मिलकर एफ़पीओ तो बनाए, और पैसे पूरे खर्च किया, लेकिन ये एफ़पीओ कहाँ है, क्या कार्य कर है, कैसे है की इनको जानकारी नहीं है। पूरे पैसे का बंदर बाँट हो गया, और गाँव के किसान पहले जैसे थे, उससे भी बुरी दशा मे आ गए।
ये तो थी पुरानी (वर्ष 2020 से पहले) की बात। वर्ष 2020-21 मे केंद्र सरकार एक और योजना लेकर आई, 10000 एफ़पीओ बनाने की, और इसमे पहले चरण के लिए रु6600 करोड़ रुपए का प्रावधान रखा गया।

पहला चरण मार्च 2024 मे पूरा होना था। एक एफ़पीओ पर सरकार ने रु 43 लाख रुपए का प्रावधान किया था, जिसमे एनजीओ को प्रति एफ़पीओ रु 25 लाख मिलने है। मार्च 2024 तक मे पूरे देश भर मे 10000 एफ़पीओ बनने थे, लेकिन आज की तारीख मे किसी को नहीं मालूम के कितना एफ़पीओ बने और वो कहाँ है, और कैसे है?

भोपाल के एक पूर्व बेंकर और कृषि विशेषज्ञ शाजी जॉन, जो पिछले 10 वर्षो से एफ़पीओ क्षेत्र मे काम कर रहे है, ने एसएफ़एसी (SFAC Delhi) और नाबार्ड (भोपाल क्षेत्र) से यह जानकारी प्राप्त करने की कोशिश की कि मध्य प्रदेश मे केंद्र सरकार के 10000 एफ़पीओ योजना मे कितने एफ़पीओ बने है और उनकी वर्तमान स्थिति क्या है? साथ मे और भी जानकारी प्राप्त करने कि कोशिश किया कि इस योजना मे किसको, कितना और कब भुगतान हुआ? पूर्व बैंकर (साथ मे सर्वश्रेष्ठ बैंक प्रबन्धक पुरुस्कृत) होने के नाते उन्हे लेखांकन और ग्रामीण विकास का अच्छा ज्ञान और अनुभव है, और साथ मे वो स्वयं ही सारे सॉफ्टवेर भी बना लेते है।

इस नाते उन्होने नाबार्ड, एसएफ़एसी, कृषि विभाग आदि के उच्च अधिकारियों से एफ़पीओ कि वर्तमान स्थिति और एफ़पीओ को जीवंत बनाने पर चर्चा करने का प्रयास किया। इन सभी संस्थाओं से 30 से अधिक पत्राचार किए, उच्च अधिकारियों से टेलीफ़ोन पर बात करने कि कोशिश किया, मुलाक़ात (दिल्ली तक जाकर) करने कि कोशिश किया, लेकिन सभी प्रयास विफल हो गए है। इन सभी संस्थाओं के उच्च अधिकारियों ने एक साथ मिलकर शाजी जॉन का बहिष्कार करने का निर्णय लिया है।

इस स्थिति को भांपते हुए शाजी जॉन ने कानूनी रूप से इन संस्थाओं से निपटने का फैसला किया और सूचना का अधिकार (आरटीआई) का रास्ता अपनाया। शाजी जॉन का कहना बिलकुल स्पष्ट है कि उन्होने ये आरटीआई का मार्ग सभी मार्ग बंद हो जाने के बाद अपनाया है, और अब उन्हे खुशी है कि उन्होने आरटीआई का मार्ग अपनाया। आरटीआई के द्वारा उन्हे बहुत सारी ऐसी जानकारी मिल रही है कि “पूरी दाल ही काली है” एवं “रक्षक ही भक्षक है”।

शाजी जॉन ने एफ़पीओ कि सही स्थिति जानने के लिए उनके ज्ञान और अनुभव के आधार पर उन्होने लगभग 200 प्रश्न तैयार किए है, जिनमे से अधिकतर का जवाब –हाँ/ नहीं – मे है। इन 200 प्रश्नों को अलग अलग विषय/ मुद्दे के अंतर्गत 16 आरटीआई मे भागित किया। इस तरह हर आरटीआई मे एफ़पीओ से जुड़े किसी खास मुद्दा से लगभग 10- 15 सवाल पूंछे गए है, जिससे स्पष्ट हो जाएगा कि एफ़पीओ मे उस मुद्दे कि क्या स्थिति है । श्री शाजी जॉन चूंकि काफी समय से एफ़पीओ क्षेत्र मे काम कर रहे है, तो इन 10-15 सवालो के जवाब से निष्कर्ष निकाल सकते है कि एफ़पीओ उस संबन्धित मुद्दे पर कहाँ और क्यों पिछड़ रहा है।

इस तरह शाजी जॉन ने प्रति एफ़पीओ 16 आरटीआई का एक सेट बनाया है, जो उन्होने एसएफ़एसी और नाबार्ड को भेजना प्रारम्भ किया। अभी तक वो 900 से अधिक आरटीआई इन दोनों संस्थाओं को भेज चुके है, और वो नाबार्ड को मध्य प्रदेश मे बने 2 एफ़पीओ कि जानकारी (32 आरटीआई) रोज भेज रहे है। नाबार्ड ने अपने इतिहास मे पहली बार किसी एक वर्ष मे 1000 आरटीआई से आधिक प्राप्त करने का गौरव प्राप्त किया है, और इसमे 60% से अधिक मे योगदान शाजी जॉन का है।

आरटीआई देश के संविधान द्वारा एक आम आदमी को दिया गया एक बहुत ही ताकतवर अस्त्र है, जो लोकतंत्र के लिए अति आवश्यक है। एक आम नागरिक के रूप मे हमारा यह कर्तव्य है कि हम इस अस्त्र का उपयोग कर हमारे लोक तंत्र को मजबूत बनाए। यह अस्त्र कितना मजबूत है यह इस बात से जानिए कि संविधान के सभी दंड संहिताओं मे यह है कि अभियोग पक्ष को सबूत पेश करना होता दोष साबित करने के लिए, लेकिन आरटीआई कानून देश का एकमात्र कानून है जिसमे बचाव पक्ष को यह साबित करना होता है कि वो निर्दोष है।

आरटीआई अधिनियम 2005 के खंड 20.1 के अनुसार –“परंतु यह और कि यह साबित करने का भार कि उसने युक्तियुक्त रूप से और तत्परता पूर्वक (अँग्रेजी मे Reasonably and Due-diligently) कार्य किया है यथास्थिति, केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी पर होगा”। इसका सीधा सा अर्थ यही है की आरटीआई आवेदक यह कहे की लोक सूचना अधिकारी ने जानकारी गलत दिया है, तो यह लोक सूचना अधिकारी की ज़िम्मेदारी है की वो साबित करें की उन्होने सही जानकारी दिया है, अन्यथा दंडात्मक कार्यवाही का प्रावधान है।

नाबार्ड भोपाल ने शाजी जॉन द्वारा भेजे गए आरटीआई को जवाब देने का एक बहुत सरल रास्ता खोज निकाला है। इस सप्ताह उन्होने 462 आरटीआई का एक साथ एक जवाब बनाकर दिया है की हम (नाबार्ड) कुछ नहीं बताएँगे। देश के कानून और संविधान की धज्जियां कैसे उड़ाया जा सकता है, कोई नाबार्ड से सीखे।

शाजी जॉन ने कहा है की वो नाबार्ड भोपाल को एक मौका और देंगे, की वो सच सच बताए की उनके (नाबार्ड) के द्वारा बनाए गए एफ़पीओ मे क्या हो रहा है, और वर्तमान मे क्या स्थिति है। बेहतर होगा की सच्चाई को जाने, और सुधारने का प्रयास करें। लेकिन नाबार्ड, एसएफ़एसी, कृषि विभाग आदि के अधिकारी अहंकार की ऐसी परकाष्टा मे डूबे हुए है, की इन्हे देश के संविधान, कानून, ग्रामीण विकास, किसान दुर्दशा आदि से कोई मतलब ही नहीं है।

ये एफ़पीओ यदि सही बन जाये, तो गाँव के युवाओं को शहर भाग कर आने की जरूरत नहीं होगी, और किसानो के सभी समस्याओं का समाधान यह एफ़पीओ दे देती। लेकिन नाबार्ड ने केंद्र सरकार के इस एफ़पीओ योजना को किसानो का पैसे का बंदर बाँट करने का एक माध्यम बना लिया है। आप स्वयं देख लीजिये की देश के आरटीआई काननों का किस प्रकार धज्जियां उड़ाई है नाबार्ड ने।