डॉ. वेदप्रताप वैदिक
म्यामांर में कल खून की होली खेली गई और भारत हाथ पर हाथ धरे बैठा है। उसकी जुबान को लकवा मार गया है। कल म्यांमारी फौज ने सवा सौ से ज्यादा लोगों को मौत के घाट उतार दिया और सैकड़ों बर्मी लोग मौत के मुहाने पर पहुंच गए हैं। फौज ने वहां 1 फरवरी को तख्ता-पलट किया था। इन लगभग दो महिनों में उसने 200 से ज्यादा निहत्थे प्रदर्शनकारियों की जान ले ली है। भारत ने श्रीमती सू ची के तख्ता-पलट और सू ची की गिरफ्तारी पर जो दबी जुबान से प्रतिक्रिया जाहिर की थी, उसे देखकर उस वक्त मुझे यह लग रहा था कि भारत म्यांमारी फौज से पंगा लेने की बजाय ‘मौन कूटनीति’ से काम लेना चाहता है लेकिन अब मुझे लग रहा है कि हमारे लिए यह विकल्प खत्म हो चुका है। हमारे पड़ौसी देश में खून की नदियां बहें, लोकतंत्र की हत्या हो और हम चुप रहें, इससे बड़ी भारतीय नपुंसकता क्या हो सकती है ?
तख्ता-पलट वगैरह को तो हम पड़ौसी देशों का अंदरुनी मामला कहकर टाल सकते हैं लेकिन निहत्थे लोगों की सामूहिक हत्या तो विश्व अपराध है। मानव-अधिकारों का कत्ल है। अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप तो बर्मा के लिए दूर-देश हैं लेकिन उनकी हिम्मत को मैं दाद दूंगा कि बर्मी फौज के साये में रंगून में बैठे उनके राजदूतों ने इस हत्याकांड की कड़ी भर्त्सना की है लेकिन दिल्ली में बैठे हमारे नौटंकीपरस्त नेताओं की हवा खिसकी हुई है। ज़रा वे सोचें कि म्यांमार के बच्चों, कन्याओं, औरतों और निहत्थे मर्दों को इतनी बुरी तरह से दक्षिण एशिया के किसी देश में उसी की फौजों ने कभी कत्ल किया है ?
यह ठीक है कि किसी पड़ौसी देश के आंतरिक मामलों में हमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए लेकिन हम यह कभी नहीं भूलें कि बर्मा और श्रीलंका जैसे देश 80-90 साल पहले तक भारत के ही हिस्से थे। उनके लोग-बाग और हमारे लोग-बाग एक ही परिवार के सदस्य हैं। आज इस परिवार का खून बहते हुए हम कैसे देखते रह सकते हैं ? 1971 में इंदिरा गांधी से यह नहीं देखा गया तो उन्होंने ढाका में अपनी फौजें दौड़ा दीं। क्या वैसा ही अवसर अब म्यांमार (बर्मा) में उपस्थित नहीं हो रहा है ? 56 इंच का सीना हमारा है या नहीं है, यह दिखाने का मौका बस यही है। देखना है, हमारी सरकार इस अग्नि-परीक्षा में कहां तक खरी उतरती है ?