सबसे अलग/जयराम शुक्ल
समय का पहिया अपनी गति से घूमता है, कभी उत्थान तो कभी पतन। इसीलिए कहते हैं कि घूरे के दिन भी फिरते हैं। आज जो हेय है कल श्रेय भी बन सकता है।
कल एक मित्र की पोस्ट में उनके शहर का दर्द झलक रहा था। उसने लिखा- इंदौर तो दूर की कौड़ी अपना शहर तो पहली बरसात में ही गटरगंगा बन जाता है। कहने को स्मार्ट सिटी है पर सड़ांध और कूड़े के ढेर से सड़कें पटी। एक महकमा सड़क बनाता है, तीसरा खोद के चला जाता है। तालाबों को बिल्डरों ने हजम कर लिया। नालों को अतिक्रमण ने लील लिया।
मित्र की शिकायत वहाँ की लीडरशिप से है, जो अपना घर भरने की सोचते हैं शहर की बरक्कत के बारे में नहीं। हो सकता है कि वो सही न हों पर उनकी विकास की भूख अपनी जगह दुरुस्त है।
आज के दौर में सब तुलनीय है। जो है उससे और अच्छा, अच्छे से अच्छा। वे अपने शहर को इंदौर, भोपाल से बेहतर देखना चाहते हैं।
दो वर्ष पहले इंदौर में दुनिया भरके देशों के महापौर आए थे। यह चमत्कार देखने कि इंदौर भारत का सबसे साफ सुथरा शहर कैसे बन गया। जापान के विशेषज्ञ आए वे भी इंदौर में गंदगी नहीं ढूंढ पाए। सफाई के मामले में यूरोपीय शहरों में हम अपना माँडल देखने के आदी हैं। आज बहुत से दूसरे देशों के लिए हमारा इंदौर शहर माँडल शहर बनकर उभर चुका है।
इंदौर साफ सुथरा इसलिए नहीं कि वहाँ का प्रशासन ऐसा है। वही म्युनिस्पल कार्पोरेशन, वैसे ही अधिकारी-कर्मचारी हमारे शहर में भी हैं, पर हमारा शहर इंदौर नहीं बन पा रहा है। इंदौर को इंदौरियों ने इंदौर बनाया। उन्हें विकास की भूख है और साफ-सुथरा रहने का स्वअर्जित संस्कार।
इंदौर के मीडिया का ममत्व अपने शहर के प्रति है। पिछले वर्ष एक ही दिन यहाँ के दो मीडिया समारोहों में मैं शामिल हुआ। दोनों एक दूसरे के प्रतिद्वंदी थे। लेकिन यह प्रतिद्वन्द्विता सकारात्मक थी। दोनों एक दूसरे को गाली-गलौज देने की बजाय अपने शहर में जन्में महापुरुषों का गौरवगान कर रहे थे।
इंदौर की पत्रकारिता की स्पिरिट गजब की है। सेठ सिर्फ अखबार निकालते हैं पत्रकारिता अभी भी पत्रकारों के हवाले है। इसलिए मैं मानता हूँ कि रीवा को रिमहे ही सुधार सकते हैं और जबलपुर को जबलपुरिए। पर हो इसके विपरीत रहा है। जब कोई साफ सुथरे परिवेश और विकास की बात करता है तो हम चौराहे पर गंदगी की टोकरी लाकर बहस छेड़ देते हैं।
पिछले साल इंडिया टुडे के कानक्लेब में रीवा को मध्यप्रदेश का सबसे तेजी से विकास करता हुआ शहर बताया गया (यद्यपि इस वर्ष यह श्रेय बुरहानपुर के खाते में गया)। यह कोरी बात नहीं। एक निजी एजेंसी का तथ्यपरक सर्वेक्षण था। सर्वे एजेंसी ने अधोसंरचना के विकास के मामले में रीवा को इंदौर के बाद दूसरे नंबर का शहर बताया था। केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय ने रीवा के राजकपूर आड़िटोरियम को 2017-18 का देश के सर्वश्रेष्ठ व खूबसूरत अधोसंरचना का पुरस्कार दिया। यह उपलब्धि मध्यप्रदेश गृहनिर्माण मंडल के खाते में गई। ऐसी उपलब्धियों पर अपने शहर के ही लोग मीन-मेख निकालने में लग जाते हैं।
अभी हाल ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब रीवा सोलर प्लांट को एशिया का वृहदतम् सोलर प्लांट बताया तो उनकी इस बात को झूठा बताने में रीवा के लोग ही सबसे आगे रहे। यही नहीं जब प्रधानमंत्री ने रेवा(नर्मदा) के गौरव को रीवा के साथ जोड़ा तो इसका भी मजाक उड़ाया गया। स्वतंत्रता के बाद इन बहत्तर वर्षों में श्रीमोदी पहले प्रधानमंत्री हुए जिन्होंने रीवा व विंध्य के गौरव को वैश्विक क्षितिज में रेखांकित किया व इसके साथ ‘सफेद शेर’ को जोड़ा।
इसके उलट जब इंदौर को ऐसा कोई तमगा मिलता है तो गली-मोहल्लों से लेकर राजवाड़े के प्रांगण में रात भर जश्न चलता है। इंदौरी देश की हर सर्वश्रेष्ठ को अपने साथ जोड़ने के लिए लालायित रहते हैं जैसे कि राजवाड़ा, जैसे कि लता मंगेशकर, जैसे कि राजेंद्र माथुर-प्रभाष जोशी, जैसे कि कुमार गंधर्व, जैसे कि कैप्टन मुश्ताक अली..आदि.आदि। महारानी अहिल्याबाई तो यहाँ कुल देवी की तरह पूजित हैं।
अपने यहाँ चार साल से विंध्यमहोत्सव मनाया जा रहा था, उसका समापन मीन-मेख के साथ होता रहा। इस मीन-मेख निकालने की प्रक्रिया में जाने अनजाने हम भी शामिल हो जाते हैं। इसबार प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी। उसने विंध्यमहोत्सव को अपने कैलेंडर से हटा दिया। शंकराचार्य के पाँचवे मठ ‘पचमठा’ के वैभव व बीहर बिछिया के सौंदर्यीकरण, रीवर बैंक, इकोपार्क की योजना, पंडित माखनलाल विश्वविद्यालय परिसर की खूबसूरत बिल्डिंग की निर्माण प्रकिया को ठंडे बस्ते में डाल दिया, शहर के विकास की हर योजनाओं के बजट को काट दिया तो, हमने उफ तक नहीं किया और न ही कोई फिकर, कि हमारे शहर के साथ ऐसी उपेक्षा और पक्षपात क्यों?
मीन-मेख निकालने वाले उतने दोषी नहीं हैं जितनी की विरासत में मिली हुई वो परिस्थितियाँ हैं जिनमें हम पले बढ़े।
1956 तक रीवा का रसूख वैसा ही था जैसा कि पटना, लखनऊ, भुवनेश्वर का। 56 के पहले का भोपाल तो रीवा से कई गुना गया गुजरा था। राजनीति ने एक फलते-फूलते राज्य विंध्यप्रदेश को शैशवकाल में ही संखिया पिलाकर मौत देदी। उस संखिया का असर से उपजा अवसाद अभी भी है। इस अवसाद से हम उबरने की कोशिश में हैं। 56 से लेकर पिछले दशक तक समूचे विंध्य को छला गया।
अब वह बाधाक्रम टूट रहा है। विकास के मामले में भी, जीवनस्तर के मामले में भी। राजनीति के चश्मे को उतारकर अलग धर दें तो विधायक राजेंद्र शुक्ल निसंदेह इस मिशन के एकल योद्घा हैं। बंगलूरू शहर की बात करते हैं तो सर मोक्षगुंडम् विश्वेसरैय्या का जिक्र होता है। वे इस गौरवशाली शहर के वास्तुविद् थे। राजनीति में पसंद ना पसंद अपनी जगह है पर जब भी रीवा और विंध्य के गौरव व स्वाभिमान की पुनर्प्राणप्रिष्ठा की बात चलेगी तो आने वाली पीढ़ी राजेन्द्र शुक्ल का ऐसा ही जिक्र करेगी।
कृष्णा राजकपूर आडिटोरियम को लेकर कइयों को यह खटकता है कि यह राजकपूर के नाम से क्यों? शादी बारात के बाद उनका क्या योगदान? योगदान तो लता मंगेशकर का भी इंदौर के लिए कुछ नहीं और न ही किशोर कुमार का खंडवा के लिए है। पर इंदौर और खंडवा के लोग इन दो महान शख्सियतों को पलभर के लिए भी बिसराना नहीं चाहते। राजकपूर का तो समूचा करियर ही रीवा की स्मृति की बुनियाद पर खड़ा हुआ है। यकीन न हो तो उनके द्वारा अभिनीत फिल्म “आह” देखिए। रीवा को लेकर उनकी क्या कशिश है, समझ जाएंगे। रीवा का कृष्णा-राजकपूर आडिटोरियम कलाजगत के लिए विंध्य का सांस्कृतिक गान है।
कंक्रीटी विकास प्राणहीन होता है। फ्लाईओवर, माँल, चौड़ी सड़कें, गगनचुम्बी इमारतें बेमतलब हैं जब तक उनमें साहित्य-कला-संस्कृति की प्राणवायु न मिले।
हम लोग स्कूल के दिनों(70 के दशक) में यह देखते थे कि सफेद बाघ की एक झलक पाने विदेशी पर्यटक बसों में भर-भर के आते थे। वह दौर फिर लौट रहा है। रीवा से पाँच नेशनल हाइवेज गुजरते हैं। अगले पाँच सालों में सभी के सभी एक्सप्रेस हाइवे में बदल जाएंगे। ललितपुर- सिंगरौली रेललाइन शुरू हो जाएगी, रीवा मिर्जापुर का काम चल रहा होगा। रीवा स्टेशन जल्दी ही जंक्शन में बदल जाएगा। कैमोर की छुहिया और मोहनिया की टनल अपने आपमें अनूठी होगी। जो लोग दुनिया का सबसे बड़ा सोलर प्लांट देखने गुढ़-बदवार की पहाड़ियां जाएंगे उनके लिए यह रोमांचकारी होगा। तब तक पर्यटन विभाग विंध्य मेगा डेस्टिनेशन के लिए इतना कर चुका होगा कि आप हनुवंतिया का रोमांच भूल जाएंगे।
अच्छे काम के स्वागत के लिए इंदौरियों जैसा दिल लाना होगा। इंदौरी दुनिया में नंबर एक आने की दौड़ में भागीदार हैं कम से कम हम मध्यप्रदेश में नंबर वन बने रहने के लिए विकास में साथ हो लें। मीन-मेंख और राजनीति बाद में कर लेंगे।
और अंत में प्रार्थना-
मुझको मन की शक्ति देना मन विजय करे,
दूसरों की जय के पहले खुद की जय करें।
पुनश्चः-
हमारे विंध्य के बच्चे अपनी प्रतिभा की धाक देश भर में जमा रहे हैं। अवनी चतुर्वेदी हमारे युग की कल्पना चावला है जो देश की पहली महिला फाइटर पायलेट बनी। पिछले पाँच वर्षों से यूपीएससी की परीक्षाओं में प्रदेश में सबसे ज्यादा हिस्सेदारी अपने बच्चों की है। दस से पंद्रह की संख्या आईएएस, आईपीएस, आईआरएस व समवर्ती परीक्षाओं में सफल हो रहे हैं। एमपीपीएससी में भी फिलहाल सबसे ज्यादा हिस्सेदारी अपने ही बच्चों की है। कहते हैं न- प्रतिभाएं सुविधाओं की मोहताज नहीं होतीं। आइए हम स्वयं पर गर्व करना सीखें।