सुंदरलाल बहुगुणा देश में पर्यावरण संरक्षण की लोक चेतना के पर्याय थे। उनके निधन से देश ने एक महान ‘वृक्ष मित्र’ को खो दिया है। वे पूरे विश्व को पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रोत्साहित करने वाले महामानव और प्रकृति पुरूष थे, जिसकी कमी को भरना बेहद मुश्किल है। उन्होंने समाज के युवा वर्ग को पर्यावरण संरक्षण के कार्यों से जोडने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनका मध्यप्रदेश से काफी गहरा लगाव रहा और प्रदेश में अनेक बार उनका प्रवास हुआ। मैं अपने को सौभाग्यशाली मानता है कि मुझे बचपन से ही श्री बहुगुणाजी से कई बार मिलने और चर्चा करने का अवसर मिला। वे जब भी इंदौर प्रवास पर होते थे तो उनका आवास मेरा घर याने सर्वोदय प्रेस सर्विस ही होता था। मुझे में पर्यावरण और प्रकृति के प्रति लगाव की प्रेरणा का केंद्र श्री बहुगुणाजी को ही मानता हॅू। उनकी सौम्यता, सादगी, सहज स्वभाव, सफेद लंबी दाढ़ी और सिर पर बंधा सफेद कपड़ा मुझे हमेशा आकर्षित करता रहेगा।
वे एक सर्वोदय सेवक के नाते आजीवन गांधी विचार के प्रसार के लिए सतत संलग्न रहे। उनका मानना था कि विकास के दो मूल भूत लक्षण हैं। जो कुछ आज की पीढ़ी ने प्राप्त कर लिया है, पहले तो उससे अधिक नहीं तो कम से कम उतना तो आने वाली पीढ़ियों को मिलना ही चाहिये।
वे कहते थे कि हम विश्व के उस मूक बहुमत की आवाज बनें जिसको सत्ता संपति, और शस्त्रों पर कब्जा किये हुए एक वाचाल अल्पमत ने तकनीकी तंत्रज्ञ और नौकर शाही की मदद से दबा रखा है। बहुसंख्यक मूक बहुमत के पास सदियों के अनुभवों से पैदा हुई व्यवहार ज्ञान है, जिसके आधार पर हमारी लड़खड़ता हुआ समाज जिंदा है। गांधी विनोबा और जयप्रकाश द्वारा बनाई गई राह पर चलकर इस आकांक्षा को धरती पर उतारने का पुरूषार्थ करने का सौभाग्य हमें प्राप्त हुआ है। यह मृत्यु से जीवन की ओर जाने का राजमार्ग है जीवन की जय और मृत्यु की क्षय के महामंत्र का जाप करते हुए ‘इस जीवन की जय: मृत्यु की क्षय।‘
वे चिपको आंदोलन के प्रणेता थे। उनके प्रयासों का ही नतीजा रहा कि आंदोलन के बाद 15 सालों तक के लिए उत्तराखंड में सरकार ने पेड़ काटने पर रोक लगा दी थी। सुंदर लाल बहुगुणा ने 1981 से 1983 के बीच पर्यावरण को बचाने का संदेश लेकर हिमालयी क्षेत्र में करीब 5000 किलोमीटर की पदयात्रा की। इस यात्रा ने न केवल उन्हें सुर्खियों में ले आई बल्कि आंदोलन देश में खास तौर पर चर्चित हुआ। अपनी पत्नी श्रीमती विमला बहुगुणा के सहयोग से सिलयारा टिहरी गढवाल में ‘पर्वतीय नवजीवन मण्डल’ की स्थापना की। उन्होंने उत्तराखंड में टिहरी बांध के विरोध के लंबे संघर्ष के फलस्वरूप केंद्र सरकार ने पुनर्वास नीति में तमाम सुधार किए। वे चर्चा में कहते थे कि अपने आंदोलनों के दौरान मुढे कई बार उपेक्षा, अलगाव और अपमान का सामना करना पड़ा। लेकिन मैं कभी इनसे टूटे और घबराया नहीं, बल्कि गांधीजी के संघर्ष को याद करके और मजबूत हुआ।
ऐसे विचारक मनीषी और कर्मशील व्यक्तित्व के जाने से गांधी विचार का एक महतवपूर्ण स्तम्भ ढह गया है। वे इस सदी के महामानव थे। दुख है कि हमने एक ऐसे वृहद वटवृक्ष को खो दिया है जिसकी छांव में आज हम आज सांस ले पा रहे हैं। ऐसे वट वृक्ष का चले जाना भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के लिए अपूरणीय क्षति है। प्रकृति के प्रहरी को मेरा आखरी प्रणाम। सादर नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि।